शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ के पहले एक्ट के पहले सीन में तीन चुड़ैलें प्रकट होती हैं और महान उत्तर आधुनिक उद्घोष करती हैं जो इस प्रकार है:
Fair is foul, and foul is fair:
Hover through the fog and filthy air.
सत्य भ्रम के अँधेरे में धुंधला चुका है और भ्रम के पीछे धुंधलाए सत्य को अपने-अपने परिधान पहनाने के प्रयास जारी हैं। ऐसे में सत्य जब परिधान उतार कर नंगे स्वरुप में सामने आएगा तब की तब देखी जाएगी लेकिन जब तक नंगा सत्य सामने नहीं आता तब तक यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि आप किन लोगों के साथ खड़े हैं।
क्या सत्य की जिस धारणा के साथ ज्यादा संख्या है वो सत्य सत्य है या सत्य की वो धारणा सत्य है जिसको कहना और सुनना कर्णप्रिय है, क्योंकि उस सत्य को कुलीन भाषा के अलंकार से सजाया गया है।
उत्तर आधुनिकता के अनुसार तो कुछ भी सत्य नहीं है लेकिन अगर ऐसा मान लिया जाए तो उत्तर आधुनिकता का ये उद्घोष स्वयं ही संशय के घेरे में खड़ा हो जाता है। क्या उत्तर आधुनिकता मृत्यु को भी सत्य नहीं मानती? क्या किसी समाज का बहुमत गलत हो सकता है?
हिटलर के जर्मनी का बहुमत गलत था तो क्या स्टालिन के समाज का बहुमत सही था? चलिए इनको छोड़ते हैं, ये गलत लोग थे। ये सोचिये कि चर्चिल का इंग्लैंड क्या सही था जब बंगाल के लोगों को अकाल से मरने के लिए छोड़ रहा था?
यह कैसे तय हुआ होगा कि अनाज की जरूरत हिटलर की जर्मन सेना से लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए लड़ने वाले इंग्लैंड के रणबांकुरों को ज्यादा थी या अनाज पैदा करने वाले बंगाल के गुलामों को? क्या यूरोपीय लोकतंत्र का मूल्य भारत के लोगों के जीवन मूल्य से अधिक था?
सोचिए, अगर गाँधी इंग्लैंड के नेता होते तो क्या जर्मनी के सामने दूसरा गाल बढ़ा देते? उत्तर आधुनिकता ऐसे ही भ्रमित करने वाले सवाल करती है। खैर, भारी बातों को छोड़कर, चलिए आजकल की बात करते हैं, क्यों इतिहास के गंदे नाले को हिलाया जाए।
कुलीन अलंकृत भाषा से याद आया कि शोभा डे नामक विदुषी महिला ने भारत के एक राज्य के मंत्री द्वारा एक फिल्म के गाने पर की गई टिप्पणी के विरोध में NDTV नामक समाचार प्लेटफार्म पर एक पूरा लेख लिख मारा है। धन्य है भारत देश और धन्य हैं भारत देश के गणमान्य लोग (अगर शोभा डे गणमान्य लोगों में से हैं तो, नहीं तो गणमान्य विशेषण हटा कर पढ़ा जाये। विदुषी वाला विशेषण भी मैं पाठक के विवेक पर छोड़ता हूँ)।
लेखक जिस समाज से आता है (और इस प्रकार मैंने खुद को शोभा डे जी के समाज से अलग कर लिया है इस पर ध्यान कीजिए) वहाँ इतने फुरसतिया लोगों की करतूतें देखकर ही ‘जैसे उद्धव वैसे भान न इनके चुनई न उनके कान’ जैसी लोकोक्ति की कल्पना की गयी होगी।
खैर, अब अंग्रेजी आती हो और लिखने के पैसे मिलते हों तो कोई भी लिखेगा ही (मैंने सारे लेखकों पर ये आरोप लगा दिया है कि वो पैसे के लिए लिखते हैं)। मैं लिख ही रहा हूँ और निश्चिन्त हूँ कि मुद्रा आएगी। न तो मैं किसी नैतिकता के भावावेश में हूँ और न ही मुझे सामाजिक चिंतन जैसी कोई व्याधि ही है। पैसे के लिए मैंने मेरी लेखनी को व्यस्त कर रखा है।
थोड़ी भूमिका और झेलिए, फिर मुद्दे पर आते हैं। अगर धैर्य बना रहा तो इस नैतिकता विहीन लेख के साथ निभा ले जाइएगा। मेरी लेखनी को बेशरम लेखनी कहना अतिशयोक्ति नहीं है और जब तक ये बेशरम लेखनी पैसे बना रही है तब तक मेरी लेखनी को शर्म न होने का अपमान बर्दाश्त है।
वैसे भी मैं अब निम्न मध्यम वर्गीय नैतिकता से ऊपर उठ रहा हूँ और उस जगह पर आ गया हूँ जहाँ ये समझ में आ जाता है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा। उक्त मंत्री जी को किसी फिल्म के गाने पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए था या नहीं, मैं इस झंझट में भी नहीं पडूंगा क्योकि मुझे पता है कि कम से कम मंत्री जी को लोगों के बीच चुनाव के लिए जाना ही पड़ेगा, अगर वो राजनीति से सन्यास नहीं ले रहे हैं तो।
जनता जनार्दन है और वो मंत्रीजी का फैसला करेगी। अगर ये जनता किसी ज़माने में जवाहिर लाल को प्रधानमंत्री बनाई थी तो अब तो जनता जवाहिर लाल के खोले स्कूलों में पढ़ लिख के और राजाबाबू हो गयी है इसलिए नेता चुनने में गलती का कोई सवाल ही नहीं उठता।
मैंने शोभा डे नामक भद्र महिला के लेख के साथ छपी श्रीमती दीपिका रणवीर सिंह पादुकोण और शाहरुख़ खान जी की वो तस्वीर भी देखी है जिसकी कलात्मक व्याख्या एक आधुनिक राजनेता जैसा रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन व्यक्ति नहीं कर सका, यह आपेक्षित ही था।
आश्चर्य तब होता जब एक नेता अभिनेता की कला के पीछे छिपे साहित्य को समझ लेता। इस प्रकार सभी ने सभी को आश्चर्य चकित होने से बचा लिया है। अभिनेता और अभिनेत्री वही कर रहे जो उनसे आपेक्षित था, नेता वो कर रहे जो उनसे आपेक्षित था और लेखक वो कर रहे जो उनसे आपेक्षित था।
कहीं कोई समस्या नहीं है। उक्त लेख के साथ लगी तस्वीर की प्रशंसा के लिए स्वयं उज्जयिनी नरेश सम्राट विक्रमादित्य को भी कालिदास जैसे साहित्यविद की आवश्यकता पड़ती, जो नायक की बाहों में झूलती नायिका की कदली जंघाओं और उन्नत वक्षों का सौंदर्य उचित शब्दों के द्वारा समझा सकता, ठीक वैसा जैसा महाकवि ने मेघदूतम में वर्णित किया है।
विदुषी लेखिका का लेख उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण से लिखा गया है और जैसा कि एक उत्तर आधुनिक विदुषी से आपेक्षित है, लेखिका ने अपने परिप्रेक्ष्य और वातावरण के दृष्टिकोण से मंत्री जी के वक्तव्य को पढ़ा और विश्लेषित किया है। अब मैं एक निम्न मध्यम वर्गीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता हूँ जो निम्न मध्यम वर्गीय उत्तर आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में ही समझा और पढ़ा जाये।
एक समय की बात है हमारे मोहल्ले में कुछ वरिष्ठ लोगों के मन में ऐसी शंका उत्पन्न हुयी कि घर के सामने से बह रही बजबजाती नाली में दुर्गन्ध कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है और वरिष्ठ समाज सेवी इस परिकल्पना पर पहुंचे कि किसी ने अपने घर का मल मूत्र एकत्र करने वाले टैंक की खिड़कियां नाली में खोल रखीं हैं।
समस्या केवल इस बात से नहीं थी कि मल मूत्र नाली में बहने से दुर्गन्ध बढ़ गयी थी बल्कि इस बात से ज्यादा थी कि जो शहराती जनेऊधारी नाली साफ़ करके जनेऊ बदल लिया करते थे वो ये मान कर चलते थे कि नालियों में मल मूत्र जैसा वर्जित पदार्थ नहीं बह रहा है और इसका अंदाजा वो नाली से आ रही दुर्गन्ध की तीव्रता से लगा लेते थे।
अब इस भारत भूमि के करोड़ों निम्न मध्यम वर्गीय नागरिकों ने नाली सूंघने जैसे विषम ज्ञान का पेटेंट लिया या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन ये जरूर पता है कि सुगन्धित बाथरूमों में निपटान करने का सुख लेने वाले वाले मुट्ठी भर महानगरीय विशिष्ट नागरिक ‘अपनी टट्टी सबको महकती है’ जैसी कहावत के पीछे छुपे मर्म को बिलकुल नहीं समझ सकते।
सामाजिक न्याय के पैरोकार भी ये जान लें कि मंडल कमीशन के पहले भी और बाद में भी इस देश के सामान्य शहरों में रह रहे अतिसामान्य शहरी नागरिक बिना ईश्वरचंद्र विद्यासागर कहलाने की अपेक्षा किये अपना मल मूत्र स्वयं साफ़ करते रहे हैं और अगर केवल अपनी टट्टी साफ़ करने वालों का कोई वर्ग होता तो वो कम से कम शहरी इलाकों में बहुसंख्यक होता।
इस प्रकार के वर्ग का कोई संघर्ष होता तो टट्टी साफ़ करने वाला ही इस भारत भूमि कि नियति लिख रहा होता।
अब इस वर्ग ने संघर्ष किया नहीं इसलिए इस देश का शहरी विकास कोष शोभा डे जैसों के मोहल्ले में दलित (सरकारी नौकरी हो तो सवर्ण भी अपना ज्ञान इस क्षेत्र में दिखाने में तत्पर हैं) मेहतरों की नियुक्ति में घुस जाता है ताकि शोभा डे जैसी विदुषियां और विद्वान समय मिलने पर उन मेहतरों पर उत्तर आधुनिक शैली के समाजशास्त्रीय लेख लिखकर अपने को ‘गोरे लोगों के बोझ’ से मुक्त कर सकें।
खैर, महानगरों में मेहतरों पर निबंध लिखने का प्रकल्प फिर कभी। अभी फ़िलहाल कहानी पर चलते हैं। अंत में मोहल्ले में मार हुयी क्योकि दूसरे के संडास की टंकी कौन जांचे और क्यों जांचे? आखिर निजता भी कोई चीज़ है और छोटी जगहों पर भी निजता के सवाल प्रासंगिक होते हैं।
मार-गाली के साथ ही अपने संडास की खिड़की नाली में खोलना जिस किसी सज्जन की करतूत थी, उनको आभास हो गया कि उसकी निजी गंध के कारण सामाजिक ताना-बाना पर्याप्त दुर्गन्धपूर्ण हो गया है और इस ज्ञान के होते ही (या ऐसे कह लें कि तब तक आवश्यकतानुसार टैंक पर्याप्त खाली हो चुका होता था) उन्होंने अपने संडास के टैंक की खुली खिड़की को बंद किया ताकि माहौल सामान्य हो सके।
आवश्यकतानुसार टैंक खाली करना एक समाजशास्त्रीय महत्व की घटना हुआ करती थी और ऐसी घटना के बाद सभी एक दूसरे को गाली गलोच ले दे कर शांत हो जाया करते थे। करते सब थे लेकिन सबकी नैतिकता तभी प्रज्ज्वलित होती थी जब दूसरे की टट्टी नाली से साफ़ करनी हो।
जाति का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं के लिए इसमें ये गूढ़ मानव वैज्ञानिक तथ्य छिपा है कि मनुवादियों को अपनी टट्टी साफ़ करने में कोई खास दिक्कत नहीं है लेकिन दूसरे की टट्टी साफ़ करने को लेकर निम्न मध्यम वर्गीय शहरी समाज हिंसक होने की सीमा तक जातिवादी और सामंतवादी बना हुआ है।
साथ ही शहरीकरण की ये प्रवृत्ति भी समझ में आती थी कि गाली देकर ही सही, दूसरे की टट्टी साफ़ की जा सकती है, जो इस बात का द्योतक है कि शहरों में जाति कैसे जाती है।
अब आते हैं शोभा डे के कलात्मक आंग्लभाषा में लिखे उत्तर आधुनिक नैतिक कटाक्ष पर जो उन्होंने मंत्री जी पर लेख में किया है और उनकी लोकतंत्र की समझ पर सवाल उठाये हैं। शोभा डे जी को मंत्रीजी को लोकतंत्र समझाने से पहले खुद लोकतंत्र को समझने की जरूरत है। मंत्री का भी लोकतान्त्रिक अधिकार उतना ही है जितना किसी और का। रंगों के प्रकार जानने के साथ साथ एक भद्र महिला को लोकतंत्र के बहुरंगात्मकता में छिपे रंगों की पहचान करने की आवश्यकता है।
शोभा डे जी को उक्त चित्र में जो दिख रहा है, जरूरी नहीं है कि सबको वही दिखे। अर्थ निकालने का सौभाग्य बाँटने वाली ज्ञान की देवी महानगरीय घरों में परिचायिका नहीं हैं और केवल टिकैत समूह के किसानों के लिए लाल किले पर धावा बोलने का दावा सुरक्षित नहीं है।
ये समझना होगा कि इस लोकतंत्र ने श्रीमती दीपिका रणवीर सिंह पादुकोण को ये आज़ादी दे रखी है कि वो साड़ी में घूमें या बिकनी में घूमें। किसी मंत्री के टिप्पणी करने से उनका ये संवैधानिक हक़ चला नहीं जायेगा। लेकिन वही हक़ किसी मंत्री सहित इस देश के हर नागरिक को भी है कि वो किसी रंग, किसी परिधान, किसी टिप्पणी को कैसे देखता सुनता और जांचता है।
यहाँ फिल्म इंडस्ट्री के एक गहन शोधपरक डायरेक्टर श्री अनुराग कश्यप जी, जो साथी डायरेक्टरों को शोध के महत्व और तरीकों पर सुझाव भी देते हैं, की एक फिल्म के दृश्य की तरफ ध्यान आकर्षित कराना जरूरी हो जाता है जिसमें गांजा पीने वाला अभिनेता “भरो मांग मेरी भरो” नामक गाना सुनने की आड़ में अभिनेत्री के कपड़ों के भीतर झाँक कर अपनी कामपिपासा शांत करने की कोशिश कर रहा होता है क्योंकि उक्त डायरेक्टर साहब शोध परक हैं (अगर नहीं हैं तो उपरोक्त फ़िल्मी प्रसंग को बकवास माना जाये)।
इसलिए यह मान लेना चाहिए कि फिल्म के गाने सुनकर लौंडे उस अभिनेता की तरह व्यवहार करते हैं और इस प्रकार फिल्मों के दृश्य ठीक वैसे ही किसी सामान्य बालिका के सम्मान के लिए खतरा बन सकते हैं जैसे मंत्री की धमकी अभिनेता और अभिनेत्री की जान के लिए खतरा बन सकती है।
शोभा डे जी को एक सवाल खुद से पूछना चाहिए; आखिर, युसूफ खान को दिलीप कुमार बनने की जरूरत क्यों पड़ी होगी? उस ज़माने में तो नेहरू साहब का धर्म निरपेक्ष शासन था, युसूफ, प्रभु ईसा मसीह के पिता का नाम था और ख़ूबसूरत नाम था और दिलीप साहब मंझे हुए कलाकार थे। क्या जरूरत थी नाम बदलने की?
शाहरुख़, सलमान और आमिर ने तो नाम नहीं बदला। जैसे बॉबी में डिंपल कपाड़िया की बिकनी पर एक ज़माने में लोगों का ध्यान नहीं गया वैसे ही किसी और ज़माने में युसूफ खान को नाम बदलना पड़ा होगा। इस ज़माने में अगर श्रीमती दीपिका रणवीर सिंह पादुकोण के परिधान का रंग लोगों को खटक रहा है तो भारतीय लोकतंत्र में कोई अतिसामान्य घटना नहीं हुई है।
अगर किसी को लगता है कि लोकतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए तो सवाल उन रहनुमाओं से पूछिए जिन्होंने युसूफ खान को दिलीप कुमार बनने पर आपत्ति नहीं की। दिलीप कुमार के चाहने वालों को बुरा लगेगा लेकिन सच ये है कि युसूफ खान को व्यायसायिक कारणों से नाम बदलना पड़ा।
हो सकता है कि शोभा डे जैसे हिन्दुओं ने ही युसूफ खान को कहा होगा कि हिन्दू नाम रखने से माल आएगा। युसूफ खान कह सकते थे कि वो ऐसा नहीं करेंगे लेकिन पापी पेट का सवाल रहा होगा। दीन पर मुद्रा भारी पड़ा। माल आये तो लोग बाप बदल देते हैं।
श्रीमती दीपिका रणवीर सिंह पादुकोण उक्त चित्र में जिस परिधान में हैं उसमें इसलिए हैं क्योकि उसको पहिनने से ज्यादा माल आने की सम्भावना है। माल आने की संभावना होगी तो श्रीमती दीपिका रणवीर सिंह पादुकोण सती और जौहर भी करेंगी और घूंघट भी निकालेंगी।
कम से कम, उत्तर आधुनिक विद्वानों को धंधे में नैतिकता नहीं ढूंढनी चाहिए। जिन लोगों से धंधा है उनको कोसना धंधा बंद करवा देगा। श्री शाहरुख़ खान और श्रीमती दीपिका रणवीर सिंह पादुकोण से इस मुल्क के लोगों ने विनती नहीं कर रखी है कि वो सिनेमा बनाएं ताकि लोगों का मनोरंजन हो सके। देशवासी टिकटोक वीडियो देख कर अपना पर्याप्त मनोरंजन कर रहे हैं।
अब अपने मोहल्ले की कहानी पर आते हैं। इस देश का आम शहरी अपनी टट्टी धो रहा है इसका मतलब ये नहीं है कि वो दूसरे की टट्टी भी धोएगा, खास कर के जब दूसरा बिना बताये अपनी टट्टी नाली में बहा रहा हो।
अगर धोएगा तो गाली देगा और मार-पीट भी करेगा। अंत में, शोभा डे जी, हमको पता है कि शाहरुख़ खान जी वैष्णो देवी गए थे। ऐसी खबरें कैसे और क्यों छपतीं हैं? युसूफ खान ने नाम ऐसे ही थोड़े बदला था। हमने डुबकी मार के मछली खाने वाले रोजेदार देख रखे हैं।
इस लेख में नैतिकता ढूंढने का प्रयास न करें क्योकि ये लेख माल बनाने के उद्देश्य से लिखा गया है। अंत में पाठकों का मनोबल बनाये रखने के लिए पेश-ए-खिदमत हैं, हबीब जालिब साहब की चार पंक्तियाँ ताकि लेखक ज्यादा बुद्धिजीवी लग सके और भविष्य में उसके और माल मुद्रा बटोरने की संभावनाएं तैयार हो सकें-
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता…