रविवार के दिन जब सारा मीडिया जगत वीकेंड के मोड में था तो उसी बीच देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा दखल रखने वाले राज्य महाराष्ट्र में कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी को आशा नहीं थी। दोपहर 1 बजे के बाद प्रदेश के राजभवन में सरगर्मियां तेज हुईं और राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नेता और शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। उनके साथ 8 अन्य विधायकों ने मंत्रिपद की शपथ ली।
इस शपथ में और अधिक चौंकाने वाला फैक्टर यह रहा कि अजित पवार के साथ एनसीपी के कार्यकारी अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल और हसन मुश्रीफ़ जैसे लोग शामिल थे। महाराष्ट्र में कुछ घंटों के भीतर पूरी तरह से बदले इस सियासी घटनाक्रम ने कई राजनीतिक पंडितों और विपक्षी दलों को अचरज में डाल दिया। इस शपथग्रहण समारोह के बाद अजित पवार के शरद पवार से अलग राह लेने और विपक्षी एकता के दिवास्वप्नों को शुरू होने से पहले ही खत्म कर देने की बातें उठी।
अजित पवार ने शपथ लेने के बाद आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा कि वह पार्टी अलग नहीं हुए बल्कि उनका निर्णय पार्टी का ही निर्णय है। अजित ने इसी के साथ पार्टी के सभी पदाधिकारियों के विश्वास में होने और चुनाव चिन्ह अपने साथ होने की भी बात की और कहा कि उन्होंने शपथ से पहले चाचा शरद पवार से फोन पर बात भी की थी। अजित पवार ने यह भी कहा कि वर्तमान में हमारे साथ 40 से अधिक विधायक हैं। अजित पवार के इस बयान के बाद शरद पवार भी सामने आए और उन्होंने बिना किन्हीं कटु शब्दों का उपयोग किए हुए कहा कि हम पहले भी ऐसा देख चुके हैं और अब हम जनता के बीच जाएंगे।
शरद पवार ने इस दौरान शिंदे-फडनवीस सरकार में शामिल हुए विधायकों की योग्यता पर भी कोई ख़ास जवाब नहीं दिया। हाल ही में पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष बनाई गईं सुप्रिया सुले ने भी बयान में कहा कि हम बैठ कर बात करेंगे और जनता के बीच जाएंगे। शरद पवार के बयान और अजित पवार के सरकार में शामिल होने के फैसले को पार्टी का निर्णय बताने के बाद यह कयास लगाए जा रहे हैं कि फैसला शरद पवार की सहमति से हुआ और उन्हें इस पूरे घटनाक्रम की जानकारी पहले से थी।
इस दावे का समर्थन करने के लिए मुंबई की मंत्रालय बिल्डिंग से लेकर दिल्ली के राजनीतिक गलियारों के विशेषज्ञों ने कहा कि अगर शरद पवार का आशीर्वाद भतीजे के साथ नहीं होता तो हमें वर्ष 2019 जैसा ही एक्शन कल देखने को मिल सकता था जब एक दिन के भीतर अजित पवार NDA कैम्प से चाचा के पास वापस आ गए थे। इसके अलावा एनसीपी के बड़े नेता और अजित पवार के साथ शिंदे की सरकार में कल मंत्रिपद की शपथ लेने वाले छगन भुजबल ने भी एक इंटरव्यू में यह साफ कर दिया कि शरद पवार का सोचना है कि प्रधानमंत्री मोदी अगले आम चुनावों में वापस लौट रहे हैं।
शरद पवार के हाँ और ना एक साथ करने के पीछे यह भी कारण बताया गया कि वह अभी विपक्षी एकता के स्वप्न को टूटने नहीं देना चाहते और भाजपा से भी अपनी करीबियां विकसित करना चाहते हैं। वहीं पार्टी के विधायकों का विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी से अलग होने के पीछे एक कारण बीते दिनों पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक है।
इस बैठक में शरद पवार, राहुल गांधी के साथ शामिल हुए थे। यहीं से कॉन्ग्रेस ने यह प्रोजेक्ट भी करने की कोशिश भी कि एकीकृत विपक्ष के नेता राहुल गांधी हैं और वह 2024 में प्रधानमंत्री मोदी के सामने विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर पेश किए जाएंगे। एनसीपी के नेताओं को यह बात बिलकुल नहीं पसंद आई कि राहुल गांधी जो कि अमेठी से चुनाव हार चुके हैं और दक्षिण भारत के सहारे अपनी राजनीतिक जमीन बचाने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें शरद पवार के सामने नेता माना जाए।
राहुल गांधी को नेता ना माने जाने के पीछे तर्क दिया गया है कि वह चुनाव हार चुके हैं और 2014 तथा 2019 में प्रधानमंत्री के विकल्प के तौर पर पेश किए जा चुके हैं लेकिन हर बार उन्हें शिकस्त ही मिली है। दूसरी बात यह भी है कि राहुल गांधी को नेता मानने से महाराष्ट्र में भी एनसीपी कॉन्ग्रेस के बड़े भाई के रोल में नहीं रह पाएगी और उसे बड़े स्तर पर सीटों का बंटवारा करना पड़ेगा। शरद पवार लगातार 90 के दशक से प्रधानमंत्री बनने के प्रयासों में जुटे रहे हैं और इसमें वह कह भी चुके हैं कि सोनिया गांधी ने ही रोड़ा अटकाया था, ऐसे में वह राहुल को प्रधानमंत्री बनने में समर्थन करें यह मुश्किल है।
इस नए डेवलपमेंट के बाद विपक्षी एकता और भाजपा की महाराष्ट्र में स्थिति को लेकर भी कई थ्योरी दी जा रही हैं। कहा जा रहा है कि विपक्षी एकता में दरार पहली बैठक के बाद ही दिखना चालू हो गई है और ऐसे में जब वह महाराष्ट्र जैसे राज्य में एक साथ ना रह सके तो भला देश भर में मिलकर कैसे चुनाव लड़ पाएंगे।
इस बीच राहुल गांधी ने केसीआर पर भी हमले तेज कर दिए हैं और लेफ्ट पार्टियों ने पश्चिम बंगाल में अकेले लड़ने की बात कही है। इसके अलावा, केजरीवाल भी अपने मुद्दों पर कॉन्ग्रेस का समर्थन ना मिलने के कारण अलग-थलग हैं और अब विपक्ष की अगली बैठक भी टल गई है। कुल मिलाकर विपक्षी एकता के दावे की नींव ही अजित पवार के NDA में शामिल होने से कमजोर हो गई है और ऐसे में बड़ा मुश्किल है कि पार्टियाँ एक साथ मिलकर चुनाव लड़ पाएं या किसी भी प्रकार का समझौता कर पाएं।
महाराष्ट्र में हुए इस सियासी बदलाव में भाजपा अभी की राजनीति से अधिक 2024 को देख रही है। पहले शिवसेना और एनसीपी के उसके साथ आने से उसकी ताकत बढ़ गई है। विधानसभा में अगर अब आँकड़ों को देखा जाए तो २८८ सीटों वाली विधानसभा में अब NDA के पास लगभग 200 सीटें हैं। आगामी लोकसभा चुनावों में उसकी स्थिति इस नए घटनाक्रम के बाद और मजबूत होगी क्योंकि एनसीपी, शिवसेना और कॉन्ग्रेस तीनों के वोट बंट जाएंगे। भाजपा, महाराष्ट्र को लेकर लगातार मिशन मोड में है भी क्योंकि उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक लोकसभा सीटें यहीं हैं।
महाराष्ट्र में सत्ता में रहने का फायदा संसाधनों के रूप में भी होता है। इसके अतिरिक्त, वर्ष 2024 महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी हैं और ऐसे में भाजपा-एनसीपी-शिवसेना गठबंधन अगर चुनावों में उतरता है तो उसे जीतने के चांस काफी बढ़ जाएंगे। इस पूरे सियासी घटनाक्रम के बीच शिवसेना (उद्धव) अपनी पार्टी में पिछले वर्ष हुई ऐसी ही टूट को याद कर रहे हैं और उसके नेता संजय राउत लगातार केंद्र पर हमले कर रहे हैं।
अब आगामी दिनों में यह देखने वाला होगा कि एनसीपी को भाजपा के साथ केंद्र और राज्य में कैसे समायोजित किया जाता है और विपक्ष आगे क्या रणनीति अपनाएगा। अभी के लिए तो वह पूरी तरह से बैकफुट पर नजर आ रहा है।
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