राहुल गांधी की समस्या यह है कि राजनीति में सर्दी हो, गर्मी हो या फिर बरसात, उनके राहुलपने पर कोई असर नहीं होता। वे हर मौसम में राहुल गांधी ही रहते हैं। नरेंद्र मोदी यदि हर राजनीतिक मौसम में नरेंद्र मोदी रहना चाहें तो चलता है क्योंकि उनकी राजनीतिक पूंजी इतनी बड़ी है कि उनके लिए ऐसा करना संभव है पर राहुल गांधी की समस्या यह है कि वे ऐसा करना अफोर्ड नहीं कर सकते। रहुलपने से न निकल पाने की उनकी अक्षमता या जिद उनके लिए और उनकी पार्टी के लिए बहुत महँगी साबित हो रही है।
राहुल गांधी ने संसद में हिंडनबर्ग-अडानी मुद्दा उठाया और अडानी को दोषी करार दे दिया। इसमें कुछ नया नहीं है। कम से कम राहुल गांधी के लिये तो बिलकुल नहीं है। वैसे भी वे केवल आरोप नहीं लगाते। वे आरोप के साथ-साथ उसका फ़ैसला भी सुना देते हैं। यह बड़ा बेसिक सा कांग्रेसी गुण है जो उन्हें न केवल कांग्रेसी बल्कि नेहरू-गांधी परिवार का भी साबित करता है। उन्होंने आरोप लगाया, फैसला भी सुनाया लेकिन इसके साथ उनके लघुमानव (Minions) सुप्रीम कोर्ट भी पहुँच गये। उद्देश्य वही, एक दाग सुप्रीम कोर्ट की कोठरी से निकाल कर मोदी पर चिपका दें। राफ़ाल और पेगासस के समय यह नहीं हो सका तो क्या हुआ, इस बार हो जायेगा।
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सुप्रीम कोर्ट ने भी तथास्तु के लिए बना अंग्रेजी शब्द दे दिया। कमेटी बन गई है। कमेटी बनी है तो जाँच भी होगी ही। पर पता नहीं उन्हें क्यों अब इस जाँच पर विश्वास नहीं है और वे जेपीसी की माँग पर अड़ गये हैं। पहले तो जेपीसी की यह माँग केवल राजनीतिक लग रही थी पर अब राहुल जी इसे गंभीरता का मुखौटा पहनाना चाहते हैं। इसी कोशिश में अब उन्होंने यह पूछना शुरू कर दिया है कि ये अडानी की कंपनियों में कोई 20 हज़ार करोड़ रुपये किसके हैं। पता नहीं वे किस 20 हज़ार करोड़ की बात कर रहे हैं पर कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमेटी बनाये जाने के बाद भी उनकी जेपीसी की मांग कहाँ तक जायज है यह प्रश्न तो विशेषज्ञों और क़ानून के जानकारों के लिये है पर उन्होंने और दलों को भी इस मांग के लिये राजी कर लिया है। अब इसके लिए वे शरद पवार को राजी क्यों नहीं कर पाए, इसका प्रश्न राजनीति के जानकार देंगे। शरद पवार राज़ी नहीं हैं, यह बात उन्होंने पक्की कर दी। अब जो हड़कंप मच रहा है, उसे लेकर अलग-अलग राय आयेगी पर फिलहाल शरद पवार ने राहुल गांधी की हवा निकाल दी है।
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राहुल गांधी और उनके सलाहकारों की राजनीतिक समझ दरअसल पूर्व की राजनीति से प्रेरित लगती है। भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर कांग्रेस पार्टी की गंभीरता समझ में आती है। अस्सी के दशक में बोफोर्स के मुद्दे पर कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है और 2004 में भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर सत्ता में वापस भी आ चुकी है। यह बात और है कि 2004 में कांग्रेस पार्टी द्वारा लगाए गये भ्रष्टाचार के आरोप (कॉफ़िन स्कैम) अदालत में ग़लत साबित हो चुके हैं पर इस टेम्पलेट पर कांग्रेस का विश्वास अब तक क़ायम है। यह बात रफ़ाल से लेकर पेगासस तक और अब अडानी के मुद्दे पर बार-बार साबित हुई है।
जहाँ तक नरेंद्र मोदी का प्रश्न हैं, वे और उनकी सरकार इसी मुद्दे को लेकर जनता की अदालत में जाने के लिये तत्पर है। यहाँ विपक्ष इसके लिए तैयार नहीं दिखाई देता। यही कारण है कि वह बार-बार अदालत पहुँच जाता है। यह बात और है कि अभी कुछ दिन पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष को राजनीति के प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिये जनता की अदालत में जाने की सलाह दी है। देखना यह है कि विपक्ष और राहुल गांधी इस सलाह को मानते हैं या फिर जेपीसी की मांग को ही इन प्रश्नों का उत्तर बनाते हैं।