भारतीय संविधान के मूल में उपनिवेशवाद से लिया गया एक भारी भरकम शब्द है पंथनिरपेक्षता, अर्थात सेक्युलरिज्म। संविधान में सभी प्रकार के धर्मों और यहाँ तक की नास्तिकों को संरक्षण प्राप्त है। इसमें धर्म को मानने, उसका प्रचार करने, अपने-अपने तरीके से पूजा कार्य करने और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षण दिया गया है। इसके अर्थ का अनर्थ विविध प्रकार से इस देश में किया जाता रहा है और उसके रुकने की संभावना फिलहाल नजर नहीं आ रही है।
संविधान में निहित अनुच्छेद 25, 26 धर्म को संरक्षण प्रदान करते हैं जो धर्म का आवश्यक तत्व है। इसमें धार्मिक ग्रंथ भी शामिल है। बहरहाल धार्मिक ग्रंथ को संविधान से ही मान्यता मिले, यह जरूरी नहीं है। ये कोई कानूनी या शैक्षिक दस्तावेज नहीं है। ये धार्मिक ग्रंथ है जिसकी स्वीकार्यता संबंधित धर्म से जुड़े लोगों के बीच है। ग्रंथ की शिक्षाएं उस वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करती है।
हजारों वर्षों पुरानी सभ्यता के साथ जी रहा भारत धार्मिक ग्रंथों से परिपूर्ण है, या कहें कि इसे इनका भरपूर आशीर्वाद मिला है। ऐसे धार्मिक ग्रंथ जिनकी रचना युगों पूर्व की है और जिनके अध्याय आज भी प्रासंगिक है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं की आज भी 95 करोड़ से अधिक हिंदू इन ग्रंथों से जुड़े हुए हैं।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि किसी स्थानीय नेता को ऐसा क्यों लग रहा है कि वह श्री रामचरितमानस जैसे लोक ग्रंथ पर प्रश्न कर सकता है? या फिर इसे बैन करने की मांग कर सकते हैं?
राजनीति हो या धर्म, आप स्वतंत्र हैं अपना पक्ष चुनने के लिए लेकिन किसी और की धार्मिक आस्था उनके ग्रंथ और उनकी शिक्षाओं को रोकने का अधिकार आपको किसने दिया है? स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपना बयान किसे खुश करने के लिए दिया था, यह तो समझ नहीं आ रहा क्योंकि बात धार्मिक ग्रंथों पर आएगी तो देश में न तो धर्मों की कमी है न धार्मिक ग्रंथों की।
तुलसीदास रचित रामचरितमानस किसी पार्टी की राजनीतिक संपत्ति नहीं है जिसे बैन कर दिया जाए। ये हिंदू धर्म का सर्वमान्य काव्य है। जहाँ तक कानूनी समझ की बात है ‘धर्मनिरपेक्षता’ के तहत हिन्दुओं को भी संरक्षण प्राप्त है भले ही दिखता न हो। हाल ही में हो रहे प्रभु राम या रामचरितमानस पर हमले राजनीतिक निराशा का परिणाम कम, राजनीतिक मूर्खता की परिकाष्ठा अधिक लग रहे हैं।
राम मंदिर निर्माण के लिए काम कर रहे लोगों को एक समय आतंकवादी बता चुके मौर्य आज रामचरितमानस को बैन करने की बात कहने के बजाए कोई सहिष्णु और धर्मपरायण धर्म अपना लेते तो उन्हें इस अवांछित धर्म की रक्षा के लिए बयान नहीं देने पड़ते। खैर, शायद अपने दल की राजनीतिक सोच और विरासत को आगे बढ़ाना उनकी मजबूरी है।
ऊपर से, मसला सिर्फ मौर्य का नहीं है। विडंबना यह है कि राजनेताओं और मंत्रियों द्वारा धर्मनिरपेक्ष स्वतंत्रता हिंदू धर्म के प्रति ही खुलकर सामने आती है। उन्हें लगता है कि वे हिंदू धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करने में विशेषज्ञ हैं। हिंदू धार्मिक ग्रंथ कितने अप्रासंगिक हैं, इसका निर्धारण अंग्रेजों या अन्य आक्रांताओं ने भले किया हो पर उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आज तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने अपने कंधे पर ले ली है। वैसे देखा जाए तो इस परिपाटी के सर्वोच्च वाहक आधुनिक भारत के स्वपनदृष्टा और देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ही थे जिन्होंने सोमनाथ मंदिर उद्घाटन कार्यक्रम से राष्ट्रपति सहित सबको अलग रहने के लिए चिठ्ठी लिखी थी।
हिंदू धर्म ग्रंथों के इन कथित व्यख्याताओं के साथ समस्या यह है कि वे इसे उपनिवेशवादी काल से पूर्व देख ही नहीं पाते। अगर औपनिवेशिक काल की बात करें तो आपने क्रिस्टोफर कोलंबस की कहानी तो सुनी होगी जो असल में भारत को ढूँढ़ने निकला था लेकिन अमेरीका पहुँच गया। क्या आपको लगता है कि जिस भारत को खोजने के लिए पूरा यूरोप अपनी जान लगा रहा था वो किसी ने बसाया था?
भारत था और हमेशा से था। धार्मिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक उन्नति के सभी रास्ते इसी उपमहाद्वीप से निकले थे। इसलिए अरबों, मुगलों और फिर अंग्रेज आक्रांताओं ने यहाँ अपने पैर जमाए। इसी दौरान उन्होंने यहाँ के धर्म की व्याख्या अपने अनुसार पेश की और उनके राजनीतिक वंशजों ने उसे लपक लिया। हाँ, तथाकथित धर्मनिरपेक्षता को आगे रखकर उसके पीछे चलते हुए इतनी दूर निकल गए हैं कि इनके पीछे क्या है उसे देख नहीं पा रहे।
ये यह नहीं देख पा रहे कि निज में बदलाव की क्षमता हिन्दू जनमानस इन्हीं धार्मिक ग्रंथों से लेता रहा है। ऐसे में हमारे धर्म और उसके ग्रंथों के नए संस्करण की आवश्यकता नहीं है। हिंदू अपने धर्म की स्वीकार्यता की चाह केवल निज से रखता है। और किसी नेता से तो बिलकुल नहीं रखता। यह नेता की आस्था पर निर्भर है। आज प्रश्न स्वीकार्यता से अधिक सम्मान का है। हिंदू धर्म के सम्मान का। आप हिंदुत्व के अनुयायी हो या न हो।