कल यानी 19 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका खारिज कर दी। यह याचिका कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार और पलायन से संबंधित थी। याचिका में इसकी जाँच का आग्रह किया गया था। बार एंड बेंच के मुताबिक शीर्ष कोर्ट ने याचिकाकर्ता को अपनी याचिका वापस लेने की अनुमति दी।
याचिका आशुतोष टपलू ने दायर की थी, जिनके पिता टीकालाल टपलू की हत्या जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकियों ने उस वक्त कर दी थी।
जस्टिस बी आर गवनी की बेंच ने अंग्रेजी में जो कहा, उसका ढीला-ढाला अनुवाद होगा कि उनकी कोई रुचि ऐसे मामलों में नहीं है, ऐसी याचिकाएँ पहले खारिज की जा चुकी हैं।
इससे पहले इसी साल मार्च में कश्मीरी हिंदुओं के एक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी। यह शीर्षस्थ न्यायालय के 2017 के उस आदेश पर थी, जिसमें कोर्ट ने 1989-90 के दौरान कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार और पलायन की जाँच करने से मना कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका ‘रूट्स इन कश्मीर’ नामक संस्था ने 24 जुलाई 2017 को दाखिल की थी। कोर्ट ने याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि 27 वर्षों का समय बीत चुका है और अब उस मामले में सबूत मिलने की कोई गुंजाइश नहीं है।
पुनर्विचार याचिका में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए सभी तथ्यों का ख्याल नहीं रखा और पूर्व धारणा से फैसला दिया। वैसे, सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था खुद उसके 2007 में दिए जपनी साहू बनाम चंद्रशेखर मोहंती के मामले के खिलाफ है, जिसमें कोर्ट ने कहा है कि अपराध कभी भी नहीं मरता।
बहरहाल, यह तो अभी तक के समाचार थे। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने क्यूरेटिव पेटिशन को भी ठुकरा दिया है। तो क्या यह मान लिया जाए कि करीबन 3 लाख कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार और पलायन को कोई मोल ही नहीं है?
हम लोग आज भी 1984 के सिख दंगों और 2002 में गुजरात में गोधरा में 58 कारसेवकों के जिंदा जलाए जाने के बाद हुए दंगों की दुहाई देते हैं, नरेंद्र मोदी और तत्कालीन गुजरात सरकार को बदनाम करने के लिए कथित पत्रकारों ने न जाने कौन-कौन सी कहानियाँ गढ़ीं?
क्या कश्मीरी हिंदुओं के खून में फर्क है? या, फिर यह अंग्रेजों के बनाए कानूनों का ही सिलसिला है कि देश के एक हिस्से में इतना बड़ा अन्याय हो गया और माननीय कोर्ट को फर्क ही नहीं पड़ता?