कुछ दिनों पहले द पैम्फलेट पर छपे लेखक के एक लेख में बदलते वैश्विक वातावरण पर चर्चा की गयी थी। उस लेख में संक्षेप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न हुई परिस्थितियों और समकालीन विश्व में उभर रहे नए समीकरणों की पड़ताल की गयी थी जिसमें बताया गया था कि कैसे वर्तमान भूरणनीतिक हालात अमेरिका के पूंजीवादी राज्य और चीन के राज्य पूंजीवाद के बीच संघर्ष का सीधा परिणाम हैं। हालाँकि वह लेख रूस-यूक्रैन युद्ध के परिदृश्य में लिखा गया था लेकिन चीन और अमेरिका के बीच चल रहे शीतयुद्ध के वैश्विक आयाम हैं और इसमें अमेरिका फौरी तौर पर पिछड़ता हुआ दिख रहा है। लेकिन क्या इस बदलाव के निहितार्थ वही हैं जो सीधे-सीधे दिखाई दे रहे हैं या कुछ है जो सामान्य दृष्टि से छिपा हुआ है? लेखक ने पिछले आलेख में बताने की कोशिश की थी कि उदारवादी लोकतंत्र के विचार में बदलाव आ रहा है लेकिन इसे अमेरिका की हार कहना इसलिए उचित नहीं होगा क्योंकि स्वतंत्रता और समानता जैसे मौलिक लोकतान्त्रिक मूल्यों को लेकर किसी प्रकार के पुनर्विचार की सम्भावना कम ही नज़र आ रही है।
फिलहाल हम नए शीतयुद्ध के कारण बदल रहे वैश्विक परिवेश और इसके पीछे के निहितार्थों को समझने की तरफ वापस चलते हैं। नए शीतयुद्ध के सन्दर्भ में ही विगत दिनों में सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन की मध्यस्थता से राजनयिक संबंधों की पुनर्स्थापना की खबरें आयीं है जो एक बड़े भू-राजनैतिक परिवर्तन का संकेत हैं। सऊदी अरब और ईरान, दोनों ही इस्लामिक जगत के नेतृत्व के लिए विगत कई दशकों से आपस में उलझते रहे हैं। दोनों देशों के मध्य राजनयिक सम्बन्ध सऊदी अरब द्वारा 2016 में एक शिया धर्म गुरु निम्र अल निम्र को फांसी दिए जाने के बाद ईरान में सऊदी अरब के राजनयिक मिशन पर हमले के बाद ही पूर्ण रूप से समाप्त हो गए थे। सऊदी अरब और ईरान के सम्बन्ध इस स्तर तक ख़राब होने तक कैसे पहुंचे, ये अपने आप में एक लम्बे लेख का विषय है जिस पर समय आने पर चर्चा की जाएगी। अभी के लिए इतना जान लेना पर्याप्त है कि दोनों देश इस्लाम के दो बड़े धड़ों शिया और सुन्नी का प्रतिनिधित्व करते हैं। ईरान और सऊदी अरब की धार्मिक पहचान को इन देशों की प्राथमिक पहचान बनाने में पश्चिमी देशों की कई दशकों की कड़ी मेहनत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इच्छुक पाठक इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए मार्क कर्टिस, रोबर्ट डेफरश की पुस्तकें देख सकते हैं। मध्य एशिया में पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप के राजनैतिक इतिहास की संक्षिप्त जानकारी क्रिस्टोफर डैविडसन की पुस्तक शैडो वार्स में भी दी गयी है जिसको देखा जा सकता है।
अगर सऊदी अरब और ईरान के तात्कालिक इतिहास की बात करें, जिनके सन्दर्भ में इस नए घटनाक्रम को देखा जाना चाहिए तो अमेरिका द्वारा सद्दाम हुसैन का 2003 में ख़ात्मा किये जाने के बाद ही ऐसी परिस्थितियां पैदा हुई जिसके बाद से ही ये देश एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो गए। क्योंकि दो दिन पहले हुआ समझौता चीन की मध्यस्थता से हुआ है तो यह मान लेना चाहिए कि चीन अब वैश्विक स्तर पर राज्यों के बीच संबंधों में हस्तक्षेप करने के लिए तत्पर है जिसे विद्वानों द्वारा अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को सीधी चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है। सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल करने के बाद इराक में अमेरिका शिया ईरान के सहयोग से ही सरकारें बना पाया है जिसने सऊदी अरब से उसके संबंधों पर असर डाला है। इसराइल में भी डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा जेरुसलम को इसराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता ने भी मध्य पूर्व के संतुलन को प्रभवित किया है। हालाँकि इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण घटना अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका का भगदड़ के अंदाज़ में निकलना रहा है। लेकिन क्या अमेरिका मध्य एशिया से बिना सोचे समझे निकल रहा है? अगर थोड़ा सतह को खुरचा जाये तो ये समझ में आता है कि मध्य पूर्व में चीन के हस्तक्षेप की भूमिका अमेरिका के पीछे हटने से ही शुरू हुई है। तो महत्वपूर्ण सवाल ये है कि अमेरिका मध्य पूर्व से भाग रहा है या वो चीन को इस क्षेत्र में किसी रणनीति के तहत घुसने दे रहा है।
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के निकलने के निहितार्थों को समझना बहुत जरूरी है। अफ़ग़ानिस्तान मध्य पूर्व में अमेरिकी भू-रणनीतिक खेल की प्रयोगशाला रहा है और इसने ईरानी प्रभाव को पूर्व में फैलने से रोक रखा था। ये समझना होगा कि अफगान तालिबान के साथ दोहा में वार्ता की मेज़ पर बैठ कर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने तालिबान को राजनैतिक शक्ति के रूप में मान्यता दी है और इस प्रकार ईरान के विरोध में निकलते-निकलते हुए भी एक कट्टर सुन्नी ताकत को अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका प्रभावी बना कर गया। अब यह सर्वविदित है कि तालिबान नाम की ताकत पाकिस्तान को निगलने पर आमादा है और अब किसी को ये भ्रम नहीं है कि पाकिस्तान तालिबान जैसी वैचारिक ताकत को संभाल सकता है। तालिबान क्योकि सुन्नी इस्लाम का एक वैचारिक पक्ष है इसलिए इस्लाम के अलग-अलग वैचारिक पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले देशों के लिए तालिबान एक चुनौती है जिसको इन देशों को साधने की जरूरत है। ईरान और सऊदी अरब जो वैचारिक इस्लाम के सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं, का नजदीक आना इसीलिए बेमतलब नहीं रह जाता।
मिश्र और टर्की दो और वैचारिक इस्लामिक ताकतें हैं लेकिन मिश्र के आर्थिक हालात बेहाल हैं और वहां मुस्लिम ब्रदरहूड को अल सीसी कब तक रोके रख पाएंगे ये यक्ष प्रश्न है और उस परिस्थिति में भी सऊदी अरब बिलकुल नहीं चाहेगा कि मुस्लिम ब्रदरहूड उसके लिए खतरा बने। तुर्की अभी एर्डोगन के भरोसे हैं और वो खुद इस्लामिक दुनिया का नेता बनने की कोशिश कर रहा हैं लेकिन यूरोपियन यूनियन में रहकर वो इस दिशा में कितनी दूर तक जा सकता हैं, ये खुला प्रश्न है। कुल मिलाकर सऊदी अरब और ईरान ही मध्य एशिया में वो ताकतें हैं जो इस्लामिक जगत में हो रही हलचल को प्रभावी रूप से संभाल सकती हैं। दोनों के सम्बन्ध अगर आने वाले दिनों में प्रगाढ़ हुए तो इस्लामिक दुनिया में शिया सुन्नी मतभेद कम हो सकते हैं और इस्लाम एक नयी ऊर्जा के साथ दुनिया के सामने खड़ा हो सकता है। हालाँकि ये अभी दूर की कौड़ी है क्योकि दोनों देशों के मतभेद मध्य पूर्व के लगभग हर मसले पर हैं, चाहे वो यमन हो या सीरिया, चाहे आइसिस हो या हेज़बोल्लाह। सऊदी अरब और ईरान के बीच के मतभेद वो पहेली हैं जिन्हे सुलझाना इतना आसान इसलिए नहीं होगा क्योंकि कई मामलों में एक पक्ष की जीत दूसरे पक्ष की हार है।
दूसरा सवाल ये है कि चीन का सऊदी ईरान समझौते में क्या फायदा है? इस सवाल का सीधा जवाब तो यही है कि इस तरह के समझौते करवा कर चीन संतुलनकारी वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रहा है। लेकिन इस समझौते में चीन की उपस्थिति का एक दूसरा पक्ष भी है जिसे समझने के लिए फिर से अफ़ग़ानिस्तान जाना होगा। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी सुरक्षा प्रदाता के रूप में थे जिनकी छत्रछाया में चीन पकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में अपना व्यापारिक साम्राज्य बढ़ा रहा था। अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए ये मूर्ख दिखने जैसा था कि उनके सुरक्षा छाते के नीचे चीन पैसा बनाये। अफ़ग़ानिस्तान से निकल कर अमेरिका ने चीन को बाध्य किया कि अपने निवेश की सुरक्षा के लिए वो खुद के संसाधन उपयोग करे और इसीलिए चीन ने सऊदी अरब और ईरान को समझौते की मेज़ पर बैठाया है और अब इस समझौते को दीर्घकालिक बनाने की जिम्मेदारी भी चीन पर ही है। ये समझौता अफ़ग़ानिस्तान-पकिस्तान में चीन के निवेश की सुरक्षा के लिए अहम् होने जा रहा है। कमोबेश यही हाल इराक में भी हैं जहाँ हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं। आने वाले दिनों में अमेरिकी पक्ष इराक से भी निकल ले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
भारत की बढ़ती ताकत से घबराया ब्रिटिश मीडिया
अब हम आखिरी प्रश्न पर आते हैं कि भारत के लिए इसके क्या मायने हैं। पहले तो मोदी सरकार को बधाई कि समय रहते भारत और मध्य पूर्व के देशों के मध्य के संबंधों के महत्व को समझा गया और मध्य पूर्व के अरब देशों के लिए एक प्रभावशाली विदेश नीति का अनुसरण किया गया। सांस्कृतिक संबंधों का इतिहास होने के बलबूते आज की विदेश नीति काम नहीं करती और आर्थिक नीति आज विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण आयाम है। इस बदलते परिदृश्य में अरब देशों के साथ ताकतवर होते रणनीतिक और व्यापारिक संबंधों का फायदा भारत को आने वाले दिनों में जरूर मिलेगा। साथ ही ईरान से भी भारत के सम्बन्ध रूस के साथ होने वाले व्यापार पर निर्भर करते हैं और आने वाले समय में उत्तर-दक्षिण व्यापार गलियारे की सफलता ईरान भारत संबंधों की दिशा तय करेगी। हालाँकि ईरान के अयातुल्लाह ने निकट अतीत में कश्मीर के सम्बन्ध में टिप्पणियां की हैं जो इस्लाम की विभिन्न वैचारिक धाराओं के बीच एकता होने की दशा में भारत के लिए भविष्य में चिंता का सबब बन सकता है। हालाँकि सब कुछ भारत की आर्थिक संवृद्धि पर निर्भर करता है कि इस्लामिक एकता भारत के लिए नुकसानदेह होगी या फायदेमंद। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि कोई भी इस्लामिक देश चीन में उइघर मुस्लिमों के प्रश्न को नहीं उठा रहा है।
जिस एक मामले में भारत को फायदा ही फायदा होने की उम्मीद है वो ये है कि जैसे-जैसे मध्य एशिया में अमेरिका का प्रभाव कम होता जायेगा वैसे-वैसे भारत उसके लिए और महत्वपूर्ण होता जायेगा। पिछले आलेख में लेखक ने जो बात कही थी कि अमेरिकी पूंजीवादी राज्य और चीनी राज्य पूंजीवाद के बीच वर्चस्व की जंग में लोकतंत्र का भारतीय मॉडल, जो हिन्दू रूढ़िवादी उदारवाद पर आधारित है, एक महत्त्वपूर्ण वैश्विक विकल्प है। भारत का लोकतान्त्रिक मॉडल परम्पराओं पर आधारित बहुसांस्कृतिक अवधारणा को सफलतापूर्वक समाहित करता है और व्यक्तियों के मौलिक अधिकार सुनिश्चित करता है। विश्व में बहुत कम देश हैं जो बहुसंस्कृतिवाद को भारत की तरह अपने लोकतान्त्रिक आदर्शों में समाहित करते हैं। यह विशेषता भारत को एशिया और विश्व में लोकतंत्र का भविष्य बना देती है। पिछले आलेख में भी लेखक ने कहा था कि भारतीयों को वृहद् वैश्विक भूमिका के लिए खुद को तैयार करना चाहिए। ईरान और सऊदी अरब के बीच हुए समझौते ने लेखक की बात को और प्रासंगिक बना दिया है क्योंकि ये परिवर्तन भारत के पड़ोस में हो रहे हैं।