आखिरी बार मैंने ये शुभकामनाएं ह्वाट्सएप पर अपने उन मित्रों के गिरोह में फेंकी थी जो हर रोज़ सुबह ‘थॉट ऑफ़ द डे’ के नाम पर मुझे दुनिया के ऐसे क्रांतिकारी, विचारकों के नाम से परिचित करवाते थे जिनके नाम के उच्चारण के लिए तीन बार गहरी सांस और चार बार शब्दकोष लेना पड़ता।
ये सन्देश वहां सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह द्वारा गिराए बम की भांति ही गिरा। क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां जरुरी नहीं होती, बहरों को सुनाने के लिए धमाके करने पड़ते हैं, लेकिन जब तक ख्याल आया कि ये बहरे सोचते भी अंग्रेजी में हैं तब तक मैं भी ह्वाट्सएप ग्रुप से शहीद हो चुका था।
भारत विश्व के उन देशों की सूची में पहले स्थान पर है जो आज भी हिंदी को विलुप्त होने से बचाने के बड़े प्रयास कर रहा है। भारत की लगभग 43.63% आबादी की पहली भाषा हिंदी है. देश के 125 करोड़ लोगों में से लगभग 53 करोड़ लोग अपने घर में हिंदी को अपनी मातृभाषा मानते हैं।
इतिहास की ओर नज़र घुमाएं तो ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा बताए गए इतिहास में खामियां नज़र आती है। जब वे लिखते हैं कि अंग्रेज़ों ने भारत के साधारण व्यक्ति में हर वो विचार डाले जिनसे वो पश्चिमी सभ्यता का ध्वजवाहक बने लेकिन ये बात वो नहीं बताते हैं कि उन्हें अंग्रेजी की बारहखड़ी तो हमने सिखाई और उन्होंने हम पर हिंदी थोपी। यही कारण है कि हम इस विदेशी भाषा हिंदी को आज तक बोलना ,लिखना नहीं सीख पाए लेकिन हमने अपनी सुविधा के लिए अंग्रेजों की चाल को मात देते हुए नयी वाली हिंदी सीख ली।
इतिहास का दूसरा पहलू देखें तो भारत के संविधान की नींव रखने वाले सभी निर्माता साधारण पृष्ठभूमि से आने वाले लोग थे,भारत के गाँव में पले-बढ़े थे। यही कारण था कि उन्होंने विदेशी भाषा हिंदी को बैठकों से बाहर दरवाजे पर ही रखा और सम्पूर्ण संविधान उन्होंने अपनी प्यारी आंग्लभाषा में रचा।
अंग्रेज़ो ने कई बार भाषाई साज़िश भी की। नेहरू-अम्बेडकर जैसे नेताओं को समय समय पर इंग्लैंड भेजते रहते थे ताकि वे विदेशी भाषा हिंदी सीख जाएँ लेकिन हमारे दूरदर्शी नेताओं पर इसका लेशमात्र भी असर न हुआ… सिवाय कपड़ों के ….वे तो अंग्रेज़ों को सांत्वना देने के लिए छद्म आवरण करना पड़ा था।
बड़ी बात ये है कि उन कपड़ों की आज नीलामी नहीं होती है वरना उन्हें खरीदने के लिए पूरा भारत बेच देना पड़ता।
इतने अमूल्य थे। …
एक सर्वे के मुताबिक़ माँ हिंदी के सबसे बड़ी संतान वकील कौम है ,माननीय न्यायालय और जनता के बीच सेतु बन कर माँ हिंदी की सेवा करने का जो अवसर उन्हें मिला है वो शायद ही अन्य किसी के वश की बात हो। वो अलग बात है कि इस सेतु पर यात्रा करने के लिए टोल टैक्स लगना तो प्राचीन काल की परंपरा है।
खैर, हिंदी दिवस पर इतना नकारात्मक होना ठीक नहीं है, सकारात्मक पहलू देखें तो हिंदी आज भी जिन्दा है। उन दीवारों पर ,जहाँ लिखा होता है “यहाँ पेशाब करना मना है”। अंग्रेजी में शायद इसलिए लिखा नहीं दिखता क्यों कि हिन्दीभाषी ही यह ‘सुकर्म’ करता है।
एक बात तो है कि,
सुबह मोदी जी के पंच प्रणों को सुनकर गुलाम मानसिकता से छुटकारा पाने की बात कहने वाला रात को देसी पीकर अंग्रेजी में ही रानी एलिज़ाबेथ को गरियाता है। खैर ,इस पीढ़ी के लिए हिंदी अब सिर्फ गालियों में ही बची है और कुत्ते को हट-हट गरियाने तक।
हैप्पी हिंदी डे !