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Home » मात्र दस रुपए में भविष्य दर्शन
व्यंग्य

मात्र दस रुपए में भविष्य दर्शन

अभिषेक प्रियBy अभिषेक प्रियSeptember 4, 2022No Comments17 Mins Read
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बैलगाड़ी
बैलगाड़ी (फोटो साभार: दैनिक ट्रिब्यून)
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“आइये, आइये, भविष्य में चलिये, दस रुपये में भविष्य दर्शन, दस रुपये, दस रुपये!” कुछ लोग ज़ोर-ज़ोर से आवाज लगा रहे थे। बस-अड्डे पर तीन-चार गाड़ियां खड़ी थीं। तभी किसी गाँव से एक दल वहाँ आ पहुँचा।

ढीली-ढाली बुश्शर्ट, आधी बाँह-पूरी बाँह के छोटे कुर्ते, पैंट-पजामे। गले में गमछे। कुछ ने गमछे साफ़ी बनाकर सिर पर बांधे हुए थे। औरतें साड़ी पहने हुए थीं, जिनमें से कुछ की कमर में बच्चे लटक रहे थे। कुछ छोटे बच्चे पैदल चल रहे थे। सामान के नाम पर पोटली और झोले। कुछ चप्पल पहने, कुछ नंगे पैर।

पहुँचते ही गुड़ की मक्खियों की तरह तीन-चार लोगों ने उन्हें घेर लिया। “ओ बब्बा कहाँ जइहो?” “पइसा बोलो?” “अरे जइहो कहाँ?” “भविस मा!” “पइसा हैं गांठ मा जाय कय खातिर?” “बारा सवारी हय, बारा। पइसा बोलो!” “दस रुपिया सवारी।” “छह मे चलब?” “इत्ते सस्ते में कोई न ले जहिये।” तभी एक और आवाज़ लगाने वाला वहाँ पहुँच गया। “अरे ऊ गाड़ी अभी न जहिये बाबा। ऊका नम्बर नाहीं है। हमरी में बइठो। आठ रुपिया लेब।” “अरे ऊ घूम के जहिये बाबा, हमरी में बइठो। चला आठ दे देब।” “अरे हट! हम बात कर लिहिन। हमरी सवारी है।” यह कह कर उसने बाबा की बाँह पकड़ ली। “ऐसे कयसे? नम्बर तो हमरा है।” दूसरे ने भी बाबा की दूसरी बाँह पकड़ ली। दोनों में बाबा को लेकर खींचतान होने लगी। बाबा चीखे, “परमोद नेताजी को बुलावा तनि।” नेता जी वहाँ पहुँच गए।

नेताजी पहुँचते ही बाबा पर भड़क गए ,”अच्छा, हमरे बिना ही भविस में चले जहियो? अरे सरऊ, नेता के बिना कब्बो भविस में न पहुँचिहो। कहे रहे पहुँच कय चुपचाप खड़े रहिना, हम आ रहे हैं। तुमई कर लिहो सब नेतानगरी?” नेताजी की बात सुन कर सब सहम गए। नेताजी आवाज़ लगाने वालों को एक कोने में ले गए। कुछ आवाज़ें सुनाई आती रहीं, “हमसे दस की बात किहिन, फिर डिरेक्ट पार्टी से आठ की बात करत हौ?” “अरे इसको पता नहीं था आपका पार्टी है।” बात खतम करके नेताजी ने गांव वालों से कहा, “चलो आठ-आठ रुपिया जमा करो, और ऊ गाड़ी मा जा कय बइठो।” वे सब गाड़ी में जाकर बैठ गए। “बड़ा अलगै टाइप का गाड़ी है। इंजन नहीं दिया है।” मुन्ना ने कहा। “अरे बिदेसी होगा। इंजन पीछे रहता है इसका।” हरखू ने अपने शहर के अनुभव से बताया, फिर बाबा से बोला, “यार दद्दा, आठ रुपया तो तुमी करा लिहिन। फिर ऊ नेतवा का करिस?” “अरे ऊ ससुरा तो छौ रुपिया ही दिया रहा होगा। दो अपना जेब मे डाला होगा।” बाबा की जगह चिल्लू बिहारी ने खैनी मलते हुए बताया।

बात चल ही रही थी कि कुछ खुबसूरत से, खुशबूदार लोग हाथ में पानी की बोतल, चिप्स के पैकेट लिए चढ़े। पुरुष -जीन्स, टी-शर्ट, स्पोर्ट-शू, खादी कुर्ता आदि और महिलाएं भी जीन्स, टी-शर्ट, स्पोर्ट-शू, कुर्ता आदि पहने थीं। कुछ के साथ छोटे बच्चे थे, वे भी ब्रांडेड कपड़े पहने थे। और पहने क्या थे, वे सब कपड़ों, जूतों, घड़ी, पर्स के चलते-फिरते इश्तेहार थे। वे ज़ोर-ज़ोर से उफ़्फ़-उफ़्फ़ की आवाज़ निकाल रहे थे। जिससे पता चलता था कि वे भारत की गर्मी से परेशान भारत के मिडिल-क्लास लोग हैं। उनकी सीटें पीछे की ओर आरक्षित थीं, जो हिस्सा काँच की दीवार लगा कर वातानुकूलित बनाया गया था।

“दद्दा स्टीरींग नाहीं हेरा रहा। डिरेवर कहाँ बैठिहे?” मुनेस ने प्रश्न किया। “अरे ओटिकमेटिक गाड़ी हय। बहुत बिकास कीस है देस। फुचरवा में देखय का-का मिली!” बाबा ने उत्तर दिया। “सब लोग आ गए?” पीछे से आवाज़ आई। “अरी साला, डिरेवर का सीट पीछे दिहिन है। एकदम्मे उल्टा। उल्टा मुँह किये बैठा है।” मुनेस बोला। तभी गाड़ी चल पड़ी।

“ये लोग भी हमारे साथ भविष्य में जायेंगे?” वातानुकूलित कक्ष में बैठे एक हाई-मीडिल-क्लास ने आगे काँच के पार बैठे गाँव के लोगों की ओर देख कर थोड़ा घृणा से पूछा। “क्यों, क्या उनका हक नहीं है भविष्य में जाने का? तुम मिडिल क्लास वाले हमेशा उनसे घृणा करते हो।” जीन्स पर कुर्ता पहने एक दढ़ियल बोला, और फिर ज़ोर से चीखा,” अरे ऐसी बढाओ यार, बहुत गर्मी लग रही है।”

“नेहरू नगर, देखो नेहरू नगर!” ड्राइवर ने आवाज़ लगाई। लोग कौतूहल से चारों ओर देखने लगे। बड़ी-बड़ी फैक्ट्री लग रही थीं, उनके लिए टाउनशिप बन रही थीं। बांध बन रहे थे। एक जगह चीनी लोग अपने खम्बे गाड़ रहे थे। तभी अचानक गाड़ी झटके खा कर रुक गई। गांव वाले नीचे उतर आए। शहर के लोग अंदर ही बैठे रहे। “नेहरू नगर आ गए, अब गाड़ी ख़राब होनी ही है।” एक शहरी ने कहा। “मतलब तुम क्या कहना चाहते हो, गाड़ी में कोई खराबी नहीं है, खराबी नेहरू नगर में है?” दढ़ियल ने क्रोध से प्रतिवाद किया। “हाँ, यही बात है।” शहरी भी खड़ा हो गया। “पहले अपनी गाड़ी को देखो, नेहरू नगर से क्या मतलब? क्या जितनी भी गाड़ी ख़राब होती हैं, सब नेहरू नगर में ही होती हैं?” दढ़ियल का पारा चढ़ा हुआ था, “और ये ऐसी बढाओ यार, कब से कह रहे हैं।”

दो-तीन गाँव वाले, गाड़ी से उतर कर इंजन का मुआयना कर रहे ड्राइवर के बगल में खड़े हो गए। इंजन से तेल टपक रहा था। “सबेरे गाड़ी कय हँगाइस-मुताइस नाहीं रहे का ?” टपकते तेल को देख कर बाबा ने कहा। ड्राइवर ने खराबी ठीक कर के कहा ,”धक्का लगाना पड़ेगा।” “अरे फिर तुहरी गाड़ी ‘लीके’, उससे पहिले हम तो कहिते हैं डैपर पहिना दीजिये। पीछे सहरी लोगो का डाइपर वाला बच्चा बैठा है, कहिये तो माँग लाएँ एक ठो।” चिल्लू बिहारी ने चुटकी ली और खिड़की के शीशे से झांक रहे मिडिल क्लास लोगों की ओर देखा। सब मिडिल- क्लास वाले झटके से यूँ पीछे हटे, मानो कहीं उनको भी धक्का लगाने न बुला लिया जाय। “अरे ऐ तुलसी, ऐ लखनवा, मुरारी, घन्सू, आवा तनि, धक्का लगावा तो गाड़ी मा!” बाबा ने कहा। सब फटाफट नीचे उतरे और मिलकर धक्का लगाने लगे। गाड़ी चालू हो गई। सब प्रसन्न हो कर फिर गाड़ी में बैठ गए। मिडिल-क्लास ने भी राहत की साँस ली। गाड़ी फिर चलने लगी।

“इस चिलचिलाती धूप में गरीबों ने गाड़ी में धक्का लगाया और सब चुपचाप देखते रहे। किसी की आत्मा न तड़पी, किसी का दिल न रोया।” दढ़ियल ने एक कागज़ को पढ़ते हुए कहा, जो शायद उसने वहीं लिखा था। “क्यों, क्या तुमने देखा नहीं, हम लोग दुःख से -च्च, च्च, च्च- कर, सम्वेदना व्यक्त कर रहे थे। और हमारी ‘लेडीज़’ भी -बेचारे कितनी धूप में धक्का लगा रहे हैं, हाय-हाय- कह कर शोक व्यक्त कर रही थीं। और हमारे बच्चे भी -पुअर पीपुल, मम्मा लुक, पुअर पीपुल- कह कर सहानुभूति व्यक्त रहे थे।” एक शहरी मिडिल-क्लास ने प्रतिवाद किया। “साले मिडिलक्लासी नव-बुर्जुआ, खिड़की से कमेंट करते हैं। क्या उनके श्रम का मूल्य, उनको देख कर भरी गई तुम्हारी आहें हैं?” दढ़ियल गरजा,”और ये ऐसी बढाओ यार, कब से कह रहे हैं।”

“गांधी नगर आ गया, गांधी नगर। किसी को उतरना है?” ड्राइवर चीखा। “ऐ लखन, गन्ही नगर उतरिबो?” तुलसी ने लखन से कहा। “चलब, तनि उतर के देखा जाई।” लखन ने घन्सू से कहा और उतर गया। घन्सू और उसके साथ चार-पाँच लोग और भी पीछे-पीछे उतर गए। मिडिल- क्लास वाले खिड़की से देख रहे थे। नीचे उतरने वाले, जिस तेजी से गये थे, उससे दुगनी तेजी से उल्टे पैर भाग कर लौट आये। “दंगा हुई रहा गांधी नगर मा।” लखन चीखा। यह सुन कर मिडिल- क्लास सेक्शन से ‘ओ शिट-ओ शिट’ की ध्वनि आने लगी। पूरा मिडिल क्लास अपनी सीटों के नीचे छिप गया। “पुलिस को कॉल करो!” एक ने सीट के नीचे से कहा। “ड्यूड, ये उन्नीस सौ सैंतालीस है, मोबाइल फोन में कोई सिग्नल नहीं है।” दूसरे ने अपनी सीट के नीचे से उत्तर दिया। दंगाई गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे। “ऐ तुलसी, लखन, मुरारी, घन्सू, मुनेस, हरखू, मुन्ना, चिल्लू, आवा तनि, दंगाईयन का ठोका जाई।” बाबा ने आवाज़ दी। सब ‘हर-हर महादेव’ का नारा लगाते दंगाइयों से भिड़ने पहुँच गए। दंगाइयों को भगा कर वे सब उत्साहपूर्वक वापस लौटे। “अरे ऊ जिन्ना कौन्हु डिरेक्ट एक्सन मनावा रहा।” लौट कर हरखू ने बताया। सब ने राहत की साँस ली। गाड़ी फिर चलने लगी।

“पूरी अवधी-भोजपुरी पब्लिक भरी है। सब गंदगी फैला रहे हैं।” कांच के उस पार बैठे लोगों को देख कर एक शहरी ने कहा। “ऐ मुनेस, ये लाल चमचम पहिने हय, ई तो सिद्धेस्वर का नाती हय न, ऊ गोंडा वाले?” उसी शहरी की ओर देख कर कांच के इस पार बैठे बाबा ने कहा। “हाँ वहिये है। बम्बई जाय कय अब अंग्रेज हुई गये है।” मुनेस ने बताया। “का अब धोवत नाही हैं, पौंछत हैं?” बाबा ने पूछा। सब ठहाका मार कर हँस दिये। “ऐ सुना सब, आलमगीर का इलाका अइ गवा है, चुप्पा बइठो। हरखू, भोलेबाबा कय पाछे झोला में छिपा देब!” हरखू ने सामने रखी पोटली में से पारद शिवलिंग निकाल कर पीछे रखे झोले में छिपा दिया।

“आलमगीर कॉलोनी!” ड्राइवर ने आवाज़ लगाई। “आलमगीर तो कहीं बैठ कर क़ुरान की नकल लिखते होंगे या टोपी सिल रहे होंगे।” दढ़ियल ने कहा। “नहीं, वो सामने मंदिर पर छैनी-हथौड़ा चला रहे हैं।” एक शहरी बोला। “अच्छा-अच्छा, लगता है मंदिर के जीर्णोद्धार में सहयोग कर रहे हैं।” “तुम तो ऐसा ही मान लो। काऐ से कि अब ऐसी तो चलने से रहा।” ड्राइवर ने कहा। यह सुनते ही दढ़ियल भड़क गया , “ऐसी नहीं चलेगा? आप कौन होते हैं ऐसी बन्द करने वाले? हमारा अधिकार है ऐसी। हम लेके रहेंगे ऐसी। रुक, अभी मैं अपनी ढपली निकालता हूँ! ढपली कहाँ है? अरे सामान कहाँ है मेरा?” “ऊ तो सबका आलमगीर जजिया में ले लिहिन।” इस पार से झगड़ा सुन रहे बाबा चिल्ला कर बोले। काँच की दीवार  अब नीचे कर दी गई थी। “जजिया?” दढ़ियल बोला, “मैं क्यों दूँगा जजिया? मैं क्या हिन्दू हूँ? अरे मैं तो ईश्वर को ही नहीं मानता।” “अरे ऐ डिरेवर बाबू,” बाबा ने कहा, ” तनि जल्दी गाड़ी आगे बढ़ावा। मुल्हिद की त मुंडी ही कलम हुई जाई आलमगीर के राज मा।” बाबा ने कहा। ड्राइवर ने जल्दी से गाड़ी आगे बढ़ाई। बाबा ने अपने साथ वालों से धीरे से पूछा, “और ई ढपली-ढपली का करत रहा?” “अरे रूस से मिसाइल-बम ले के चले रहे, चीन मा बन्दूक से हुई के, हिंदुस्तान मा ढपली पै आई गए हैं।” चिल्लू बिहारी ने बाबा को उत्तर दिया।

“उफ़्फ़, कितनी लू चल रही है। ये आगे जो गरीब बैठे हैं, कैसे बैठे हैं?” रुमाल से मुँह ढकते हुए एक महिला बोली।  “अरे इन लोगों को तो सब प्रैक्टिस हो जाती है।” उसका पति बोला। “धोखा हुआ है,” दढ़ियल ने फिर बोलना शुरू किया, “हमारे साथ धोखा हुआ है। ऐसी का वादा किया गया था हमसे। ढपली होती तो बताता।” “हाँ, सही कहा। नेताजी को बुलाओ।” “कहाँ है नेताजी?” “कहाँ हैं?” सब एक दूसरे से पूछने लगे। पूरा शहरी मध्यमवर्ग अपने नेता को खोजने लगा। “नेतवा तो वहिय्यें गोल हुई गवा। गाड़ी मालिक ऊका दोस्त रहिन। कहिन, तुम सब चलव, हम अपनी गाड़ी से आवत हय।” बाबा ने बताया। बातचीत के बीच गाड़ी चलती रही।

मिडिल-क्लास में मम्मी की चुन्नी में लिपटे एक बच्चे ने कहा- “मम्मा पानी।”  मम्मी ने पीछे बैठे ड्राइवर की ओर मुड़ कर कहा,” बैया! कहीं मिनरल वाटर मिले तो रोकियेगा। गुड्डू को प्यास लगी है।” “मिन्नल वाटर-आटर अब नहीं मिलेगा भैंजी। पन्द्रहवी सदी चल रही है।” “ऐ बहिनी,” आगे बैठी एक महिला बोली, “हमरे पास जल हय, ई लोटा से बचवा को पिलाय देव, न रोवय रे बिटुआ!” महिला ने लोटे में थोड़ा जल भरकर मम्मा की ओर बढ़ा दिया। गुड्डू बहुत प्यासा था, गटागट पानी पी गया। ड्राइवर ने आवाज़ लगाई , “हल्दीघाटी!”

“जंग हुई रही, महाराना और मान सींग मा।” हरखू ने खिड़की से बाहर देख कर कहा। सब जंग देखने लगे। पर  मम्मा का गुड्डू कुछ और देख रहा था। गुड्डू ने देखा कि आगे बैठे एक बच्चे के हाथ में कुछ है। वो रोने लगा ,”मम्मा पिज़्ज़ा, आई वांट पिज़्ज़ा!” “बैया! कहीं कोई रेस्टोरेंट दिखे तो रोकियेगा।” गुड्डू की मम्मा ने फिर ड्राइवर से कहा। “जी भैंजी, ज़रूर रोकूंगा, और रोक कर आपके चरणों की धूल भी माथे से लगाऊँगा।”  गुड्डू की मम्मा को याद आया कि ड्राइवर ने कहा था पन्द्रहवीं सदी चल रही है। “बैया! वो लोग क्या खा रहे हैं?” “घास की रोटी है!” “ओ शिट! घास की रोटी?” “हाँ!” इधर गुड्डू का क्रंदन अब विलाप में बदल गया।

मम्मा पीज़्ज़ा-मम्मा पिज़्ज़ा करते हुए, वह गाड़ी के फर्श पर चित्त हो गया। पीठ से घिसटते हुए उसने गाड़ी के फर्श पर ऐसी कलाकृति बनाई जिससे देख कर लगता था जैसे कोई अजगर वहाँ से निकला कर गया हो। फिर वो चित्त से पट्ट हुआ और यही क्रिया दोहराई। अब गाड़ी के फर्श पर डीएनए जैसी घुमावदार रचना बन गई जिसकी खोज वाटसन और क्रिक ने की थी। अपने सुपुत्र की इस गतिविधि से अपमानित गुड्डू की मम्मा ने आख़िरी मध्यमवर्गीय दाँव चला , “वो पिज़्ज़ा नहीं है, घास की रोटी है। छी! कितनी गन्दी है। आक्! पापा गंदी है न?” पापा ने अपने वसा वाले गुलगुले चेहरे के सभी अंगों को संकुचित कर उन्हें नाक के चारों ओर एकत्र कर, उसे और विकृत बनाते हुए कहा ,”छी, डर्टी! गुड्डू नो, डर्टी! गुड्डू गुड-बॉय है न।” देर से ये सब देख रहे दढ़ियल का धैर्य अब जवाब दे गया, “साले, सर्वहारा के भोजन को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। छी-छी करते हैं।” “तो तुम खालो न, ग़र इतनी ही मोहब्बत है।” गुड्डू के पापा ने कहा। “हाँ, मैं खा लूँगा। लाओ मुझे दो रोटी!” यह कह कर दढ़ियल ने घास की रोटी ली और उस का एक टुकड़ा मुँह में डाल लिया।

उसको चबाना शुरू करते ही दढ़ियल की आँखों में पानी आने लगा, रोंगटे खड़े होने लगे। दढ़ियल को देख कर लग रहा था कि उसका सम्पूर्ण शरीर उस रोटी के टुकड़े को बाहर धकेलने की कोशिश कर रहा है, और दढ़ियल उसको अंदर धकेलना चाहता है। फिर उसके शरीर में फुरफुरी सी हुई और लगा जैसे उसका शरीर हवा से हल्का हो गया हो। वह जब तक गश खाकर गिरता, लोगों ने उसे सम्भाल लिया। “नहीं, नहीं, खाओ, खाओ!” गुड्डू के पापा ने तंज किया। “हाँ, खाऊँगा मैं। मैं खाऊँगा। मैं ये भोजन करूँगा।” दढ़ियल ने सम्भलते हुए कहा और बाबा से पूछा, ” त..त..तुम लोग ऐसा खाना क्यों खा रहे हो?” “हुजूर हम तो यहिय्ये भोजन खावत हैं।” बाबा ने कहा। “ड्राइवर, इन लोगों के लिए अच्छे खाने का इंतज़ाम करना है, किसी अच्छी बेकरी पर गाड़ी रोको!” ” जी भैया, ज़रूर रोकूँगा, और रोक कर आपके चरणों की धूल भी मस्तक से लगाऊँगा। ..बात करते हैं।” “तो क्या इन्हें यूँ ही घास की रोटी खाने दें?” “अरे इन्हें, उन्हें, मुझे, तुम्हें, सबको घास की रोटी ही मिलेगी। ये हल्दीघाटी है। जब महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खाई थीं, तो तुम नहीं खा सकते?” ड्राइवर की यह बात सुनते ही दढ़ियल की आँखों में चमक आ गई। उसकी खोई हुई जवानी वापस लौट आई।

“क्या कहा, फिर से कहो ज़रा!” दढ़ियल ने मुदित होकर ड्राइवर से कहा। फिर वो ज़ोर से बोला ,”लो सुन लो भाई लोगों, महाराणा ने घास की रोटी खाई, और ये लोग घास की रोटी देख कर छी-छी कर रहे हैं। यही है इनका राष्ट्र-प्रेम, यही है इनकी देशभक्ती।” बाजी पलट चुकी थी। पूरा मिडिल-क्लास शांत था। गुड्डू के पापा आगे बढ़े , “राष्ट्र के लिये हम कुछ भी कर सकते हैं। जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि राखे करतार।” मेवाड़ के इस उद्घोष के साथ गुड्डू के पापा ने घास की रोटी ली और चबाने लगे। उनकी माथे की नसें तन गईं, चेहरा लाल हो गया। वे पूरा ग्रास समूचा निगल जाने के फेर में थे, पर लगता था उनका गला जाम हो गया हो। उन्होंने दो-तीन बार उसे निगलने की कोशिश की, पर ग्रास हलक में जाने को तैयार नहीं हुआ। बाबा ने लोटा देते हुए कहा ,” पानी से गटक लेव बचुआ।” गुड्डू के पापा ने आधा लोटा पानी हलक में उतार दिया ताकि ग्रास अटकने की कोई सम्भावना ही न बचे। फिर सम्भलते हुए बोले ,”लो खा लिया मैंने। अब अगर तुम्हें इन मजदूरों से मोहब्बत है तो तुम पूरी रोटी खा कर बताओ। वरना हम समझेंगे कि तुम्हारी बातें झूठी हैं।” “अरे एक कौर से ही राष्ट्रभक्ति साबित करोगे अपनी? पूरी रोटी खाओ!” “तो तुम भी तो एक कौर से अपना सर्वहारा प्रेम साबित कर रहे हो। पहले तुम खा कर दिखाओ।” “पहले तुम!” “तुम!” “हट!” “भग!” “बताऊँ?” “बता!”

“ऐ भयवा, ऐसे सूखे-सूखे लड़ब का? झोंटा-ओंटा न पकड़िहो?” घन्सू ने कहा। “अरे सहरी लोग हय, बस बकर-बकर करिहें। यो नाही कि यक-आध कंटापई धरि दें।” हरखू ने उत्तर दिया। “अरे लड़ो मत, बाबर के आरामबाग़ में सबको बढ़िया फल मिलेंगे। मजे से खाना।” ड्राइवर ने कहा। “अल्ले-ले-ले, बाबर के लगाए बाग़ में राष्ट्रवादी कैसे खायेगा? उसकी तो आत्मा धिक्कारेगी। नहीं?” दढ़ियल ने चुटकी ली। “अल्ले-ले-ले, सर्वहारा अंकिल को क्या पता कि बाबर का बाग़ हमारी धरती पर लगा है। हमारे खून-पसीने से बना है। नहीं?” गुड्डू के पापा ने उत्तर दिया। झगड़ा जारी रहा।

“ऐ हरखू, यक बात तो बुझावा तनि। नेतवा बोलय रहा कि भविस में ले जहियें, अउर ये गाड़ी ऊ आगे-आगे जावत है। पर ई ससुरा भूत-काल कइसे आ रहा है? दूर-दूर भविस नहीं हेरावत।” बाबा ने प्रश्न किया। चिल्लू बिहारी ने हस्तक्षेप किया ,”हम शुरू में नोटिस किये, जब मुनेस बोला रहा कि डिरेवर उल्टा, पीछे बैठा है। नेतवा बहुत होसियारी किया है। नेतवा, पबलीक को उल्टा बिठा के गाड़ी बैक गियर में चला रहा है। पबलीक को लग रहा है कि गाड़ी आगे, फूचर में ले जा रहा है, पर गाड़ी पीछे जा रहा है, उल्टे।” “ई त धोखा हुई गवा। अरे ओ डिरेवर, उल्टा-उल्टा काहे ले जात रहिन गाड़ी कय, रोका तनि!”

“क्यों क्या हुआ, गाड़ी काहे रुकवाई?” ड्राइवर ने गाड़ी रोक कर पूछा। “अरे जावत कहाँ हो?” “सिंधु घाटी!” “हैं… सिंधु घाटी? नेतवा तो बोलय रहा कि भविस में ले जइहें, हुआँ मकान मिलय, रोजी-रोटी मिलय। सब एक बराबर हुइहें।” “अरे तबही तो ले जा रहे हैं, वहाँ पहुँच के सब एक बराबर हुई जावा।” ड्राइवर ने कहा। “और हुआँ बराबर न हुए, तो का बनमानुस बना कय छोड़िहो?” बाबा ने प्रश्न किया। सब गाड़ी से नीचे उतर आए।

“एक मिनट, एक मिनट,” गुड्डू के पापा बोले, “गाड़ी वापस नहीं होगी, हमें गुप्त काल पर उतरना है। अपना स्वर्णकाल- गुप्तकाल।” गुड्डू के पापा सपनों में खो गए, “और फिर वहाँ से हम वैदिक काल में जायेंगे। उत्तर वैदिक काल में।”  “मनुस्मृति वाला वैदिक काल, वर्णव्यवस्था वाला वैदिक काल,” दढ़ियल ने हस्तक्षेप किया ,”मुझे ग़ुलाम वंश मे ड्राप करना। मुझे और पीछे नहीं जाना। वैसे तो मैं मुग़ल काल में काफ़ी कम्फ़र्टेबल हूँ।” “अरे नहीं, आप तो आदिम युग में जाइये, जब निजी सम्पत्ति नहीं थी।” गुड्डू के पापा ने कहा। झगड़ा फिर शुरू हो गया।

“वाह रे नेतवा! क्या पट्टी पढाईस है पढ़े-लिखे लोगन कय। ससुरा मोटा-मोटा पोथन्ना पढ़े मनई, नेतवा की पट्टी बाँच कय, बैक गियर में जाय ख़ातिर तैयार हय।” लड़ते हुए शहरियों को देख कर बाबा बोले। फिर पूछा “अरे हुजूर फैसला हुई गवा हो तो गाड़ी हाँका जाई?”

“हाँका जाई? व्हाट? ये बैलगाडियां कहाँ से आईं? अरे अपनी बस कहाँ है? ड्राइवर कहाँ गया?” “ऊ त गवा हुजूर। बोलिस- ईसे आगे बैलगाड़ी हाँकि के जावा पड़ी, हमका दूसरा चक्कर करना हय।”

“अरे तो हम वापिस कैसे जायेंगे?” गुड्डू के पापा चीखे,” बैलगाड़ी से तो सालों लगेंगे लौटने में। “गुड्डू का होमवर्क भी इंकम्प्लीट है। और मैं तो इसके चार ही डाइपर लाई थी।” गुड्डू की मम्मा ने भी चिंता जाहिर की। “काहे, अपना वैदिक काल में न जहियो अब?” “अरे तो रहने थोड़े ही न जाना था।” “जब नेतवा बस में बिठावा रहा तब मना काहे नाही कीस? जब भविस में न गई गाड़ी, तो रुकवाए? हम तो अनपढ़ मानुस हैं। पर तुम सब तो डिग्री लिए हो ऊनिवस्टी से। फिर?” “आई कांट इविन ड्राइव दिस व्हीकल।” बैलगाड़ी को देख कर दढ़ियल ने कहा। “बैया! कैब मिल जाएगी क्या?” गुड्डू की मम्मा ने पूछा। “कब क्या बहिनी! अभी चलो! बईठो गाड़ी मा। ऐ लखन, घन्सू, चिल्लू, मुनेस, हरखू, मुन्ना, चलव, बैलगाड़ी कय हाँका जाई!” सब बैलगाड़ी में बैठ कर वापस चलने लगे।

“बैया! कितनी देर लगेगी वापस पहुँचने में?” “बहुत देर बहिनी, पीछे लौटे कय आसान है, पर हुआँ से वापस आवा कठिन।”बाबा ने बताया। “बैया खाना-पानी कैसे मिलेगा अब?” “तू चिंता न करय बहिनी, तोका पता नाहीं हय, सहर मा तुम लोगन का हमई खिलात रहे। यहाँ भी खिलइहें।

“बैया! ये कुशन है?” “हाँ बहिनी, ई पटसन ही हय, जूट, जूट का बोरा। अब तू गुड्डू के लय कय सो जा। दिमाग चट लिहिन पूरा, बैया-बैया करिके।”

(यह व्यंग्य अभिषेक प्रिय ने लिखा है)

                            

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