संसद के एक सत्र में बोलते हुए वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “सरदार पटेल को कॉन्ग्रेस ने गृहमंत्री बनाया था, वो सरदार ही थे जो जीवनभर कॉन्ग्रेस के लिए जिए, कॉन्ग्रेस के लिए जूझे और कॉन्ग्रेस के लिए ही उन्होंने अपना जीवन खत्म किया, वे शुद्ध कॉन्ग्रेसी थे….लेकिन, मैं हैरान हूँ मात्र गुजरात चुनाव के दौरान सरदार साहब पोस्टर में दिखते हैं लेकिन, देश में कहीं नहीं दिखते…वो आप ही के पार्टी की थे आपको क्या तकलीफ है, उनको own कीजिए”।
अब यहाँ शुद्ध कॉन्ग्रेसी सरदार पटेल को अपना मानने से उनकी ही पार्टी क्यों पीछे हटती है, इसके पीछे एक कारण अंग्रेजी की कहावत भी हो सकती है, “The past will always come back to haunt you unless you find a way to work out the problems and let them go” अर्थात, जब तक आप अपनी समस्याओं का हल करके उन्हें सुलझाने का कोई तरीका नहीं ढूँढ लेते, तब तक आपका अतीत आपको परेशान करने के लिए वापस आता रहेगा।
आज जब देश चीन के साथ सीमा विवाद के मसले पर संवेदनशील स्थिति से दो चार हो रहा है तो सरदार वल्लभभाई पटेल की कही बातें याद आती है। बातें जो उन्होंने एक पत्र के जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कही थी और उन्होंने बड़े इत्मीनान के साथ उन्हें नजरअंदाज कर दिया था।
भारत और चीन के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जब संबंध बढ़ा रहे थे तो सरदार पटेल ने कहा था, “साम्राज्यवाद के विरुद्ध, कम्युनिज्म कोई ढाल नहीं है बल्कि, ये उतना ही बुरा होता है जितना की एक साम्राज्यवादी। चीन का कम्यूनिस्ट साम्राज्यवाद, पश्चिम के विस्तारवाद और साम्राज्यवाद से बिलकुल अलग है क्योंकि वो एक विचारधारा के छद्म भेष छुपा हुआ है। ये अपने राष्ट्रीय, नस्लीय और ऐतिहासिक दावों को छिपा रहा है जो कि दस गुना ज्यादा खतरनाक है”।
पंडित नेहरू ने कश्मीर मसले की तरह ही यहाँ भी सरदार पटेल की बात नहीं सुनी
यह वो समय था जब देश को आजाद हुए कुछ ही वर्ष बीते थे। देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल राज्य, प्रांतों में जाकर रियासतों के एकीकरण के कार्यों में जुटे हुए थे। उसी समय चीन में नियुक्त भारत के राजदूत कावलम माधव पणिक्कर की डिप्लोमेटिक डाक आई थी।
उस समय चीनी सरकार ने पणिक्कर की मुलाकात चीन के सर्वोच्च नेता माओत्से तुंग से करवाई थी। इस मुलाकात की जानकारी भारत सरकार को देने के लिए भारतीय राजदूत ने पत्र भेजा था जिसमें चीनी नेता माओ के शानदार व्यक्तित्व का बखान किया गया था।
पत्र में लिखा था, “मिस्टर चैयरमेन (माओत्से तुंग) का चेहरा बहुत दयालु है, उनकी आँखों से तो जैसे उदारता टपकती है….वह भी आप ही की तरह गहरे अर्थों में मानवतावादी हैं”।
पणिक्कर का ये पत्र नेहरू को चीन के साथ भविष्य की मित्रता की शुरुआत लगी थी लेकिन, सरदार पटेल ने जब ये पत्र पढ़ा तो उनकी चिंताओं की कोई सीमा नहीं रही। सरदार पटेल चीन की साम्रज्यवादी सोच को समझ चुके थे और देख भी चुके थे कि कैसे वर्ष 1949 में ही तिब्बत पर चीन के कब्जे की शुरूआत हो चुकी थी।
हालाँकि, नेहरू ने इस पर कोई कदम उठाने के बजाए चीन के साथ पंचशील के सिद्धांतों की नींव रखकर आँखे बंद कर ली थी। पटेल ने परिस्थितियों का आकलन किया तो वो उनके दूरगामी परिणामों से चिंतित हो उठे और उन्होंने 7 नवंबर, 1950 को पंडित जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने चीन, भारत और तिब्बत की समस्याओं का जिक्र कर तत्कालीन प्रधानमंत्री को भविष्य के लिए चेतावनी दी थी।
पत्र में सरदार ने भारत के साम्यवादी दलों पर चीन के प्रभाव का भी जिक्र किया था। वो चाहते थे कि भारत के दलों और चीन को लेकर स्पष्ट नीति बनाई जाए। हालाँकि, उनके लिए उस वक्त सबसे बड़ी चिंता का विषय चीन था।
उन्होंने लिखा,
“तिब्बत हमारे मित्र के रूप में था, इसलिए हमें कभी कोई समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ स्वतंत्र संधि कर हमेशा उसकी स्वायत्ता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।”
“चीन की कुदृष्टि हमारे हिमालयी इलाकों तक ही सीमित नहीं है। वह असम के कुछ महत्वरपूर्ण हिस्सों पर भी अपनी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा के साथ और भी समस्या है क्योंकि उसकी सीमा का निर्धारण करने वाली कोई रेखा नहीं है, जिसके आधार पर वो कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिकिम्म, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं।”
“चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्वासघात जैसी ही है। तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है। हम उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम उन्हें चीनी कूटनीति और दुर्भावना के जाल से बचाने में असमर्थ है। यह दुखद बात है। ताजा प्राप्त सुचनाओं से लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे।”
सरदार पटेल जैसे राजनेता से इतनी स्पष्ट चेतावनी पर देश को त्वरित कदम उठाने चाहिए थे, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ने चीन के साथ संबंधों के बिगड़ जाने के डर से कोई कदम नहीं उठाया और वो मसले पर तटस्थ भी नहीं रह पाए। जब वर्ष 1950 में चीन ने तिब्बत को अपना हिस्सा बताया तो नेहरू ने इसको सैद्धांतिक मान्यता भी दे दी।
पटेल निराश थे, और इससे ज्यादा चिंतित थे इसलिए उन्होंने राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी को भी पत्र लिखकर कहा था, “तिब्बत में चीनी अग्रिम हमारी सभी सुरक्षा समीकरण की चिंताओं को बढ़ाता है। मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ कि हमारी सैन्य स्थिति पर पुनर्विचार और हमारी सेनाओं का पुनर्विचार अपरिहार्य है।”
पटेल ने अपने पत्र में पणिक्कर के खिलाफ नाराजगी भी जाहिर की थी। उनका मानना था कि राजदूत को चीनी सरकार ने बड़ी आसानी से मूर्ख बनाया है। सरदार पटेल ने कहा था कि हम तो चीन को अपना मित्र मानते हैं लेकिन, वह (चीन) हमें अपना मित्र नहीं मानता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू जिनके आजादी से पहले चीन से संबंध थे, वो वर्ष 1939 में चीन की यात्रा पर गए थे और चीनी नेता चियांग काई शेक के साथ पत्राचार करते रहते थे, पटेल के स्पष्ट निर्देशों का न समझ सके।
तिब्बत पर आक्रमण, चीन की दोहरी नीतियों के बाद भी उन्हें हमेशा चीन में मित्र ही दिखाई दिया। सरदार वल्लभ भाई पटेल की ओर से नेहरू को ये आखिरी चेतावनी थी क्योंकि इसके सवा महीने बाद 15 दिसंबर, 1950 को ही उनका स्वर्गवास हो गया।
सरदार पटेल के निधन के बाद नेहरू को चेतावनी देने वाला या उनके निर्णयों का विरोध करने वाला कोई मजबूत नेता नहीं बचा। चीन में नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित भारत की नई राजदूत बनी और उन्होंने भी माओ को लेकर वही बखान किए जो पणिक्कर ने किए थे।
इससे नेहरू के चीन के साथ मित्रता के काल्पनिक संसार को पंख लग गए थे और अब उनको रोकने वाले पटेल भी नहीं रहे थे। ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ का नारे के साथ पंचशील का समझौता हुआ, 1959 में दलाई लामा को निर्वासित कर दिया गया और 3 वर्ष बाद ही 1962 में भारत पर हमला कर दिया, जिसमें देश ने अपना एक बड़ा हिस्सा चीन के हाथों गंवा दिया।
इसी विस्तारवादी नीति के प्रति सरदार पटेल ने नेहरू को आगाह किया था और कहा था, “चीन शत्रुता की भाषा बोल रहा है और तुम मित्रता निभाए जा रहे हो” लेकिन, अब देर हो चुकी थी।
सरदार पटेल ने रियासतों के एकीकरण का कार्य जो उन्हें मिला था, बखूबी निभाया। 560 रियासतों को उन्होंने अपनी रणनीतियों से भारत में मिला लिया था। हालाँकि, नेहरू के हठ के कारण कश्मीर में ऐसा हो न सका। कश्मीर के बाद चीन के मसले पर भी सरदार पटेल की चेतावनी को नेहरू ने नहीं सुना। वर्तमान परिस्थितियों की बात करें तो, गलवान, तवांग या चीन के साथ सीमा क्षेत्रों पर संबंध संवेदनशील ही बनें हुए हैं।
आज भारत अपनी कूटनीति और सेना के दम पर हर मोर्चे पर चीन और उसकी नीतियों का डटकर सामना कर रहा है। इन्हीं प्रयासों के बीच सरदार वल्लभ भाई पटेल की बात आज भी प्रासंगिक है, “अब तक हमारी प्रतिरक्षा का मापदंड, पाकिस्तान से हमारी सैन्य बल में श्रेष्ठता पर आधारित है लेकिन, अब हमको इस आधार पर मूल्याकंन करना होगा कि हमारी उत्तर-पूर्वोत्तर सीमाओं पर कम्यूनिस्ट चीन आ गया है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं एवं उद्देश्य, हमारे प्रति मित्रवत नहीं है”।