ग्रीष्म का ताप बीत चला था और शीत की गलन आरम्भ होने में अभी समय था। इंद्र के मेघ भी अपना पूरा सामर्थ्य दिखा कर विश्राम करने चले गए थे। वातावरण शुद्ध था। पवनदेव अपने साथ शीत-ताप हीन ऊष्मा लिए चलायमान थे। वनदेवी प्रसन्न प्रतीत हो रही थीं।
कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी पर नगर के हाट सजे हुए थे। विशिष्ट दिन था, अतः आचार्य ने अपने छात्रों को विद्याध्ययन से अवकाश दे दिया था। कुछ छात्र इस अवसर पर विश्राम करने चले गए, तो कुछ क्रीड़ांगन में अपने बल एवं सामर्थ्य की परीक्षा करने लगे। परन्तु अधिकांश हाट की ओर चल पड़े।
हाट में खाने-पीने की अनेकानेक दुकानें खुली थी। पुरुष अस्त्रों-शस्त्रों की दुकानों पर थे, तो वहीं महिलाएँ शृंगार-प्रसाधनों की दुकानों पर शस्त्र-सज्जित होने के लिए मोलभाव में लगी थीं। परन्तु सबसे अधिक क्रय-विक्रय कुछ हो रहा था तो वह पात्र थे। गृहोपयोगी मिट्टी, काष्ठ, लौह, रजत, स्वर्ण अथवा पंचधातु के पात्र।
सँध्यासमय भोजनोपरांत आचार्य को टहलने की आदत थी। कुछ छात्र भी उनके साथ हो लेते। एक छात्र ने चलते-चलते प्रश्न किया, “आचार्य, आज हाट में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे लोग मानकर चल रहे हों कि आज अंतिम दिन है, संसार के सारे पात्र विलुप्त होने वाले हैं, शीघ्र क्रय कर लो, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा।”
आचार्य को हँसी आ गई। उन्हें प्रसन्न देख छात्र तनिक आश्वस्त हुआ और पुनः बोला, “आचार्य, सनातन में तो प्रायः प्रत्येक दिन ही कोई न कोई त्योहार होता है। हर दिन का अपना एक अलग इतिहास है। फिर यह त्रयोदशी में ऐसी क्या विशेषता है कि इसमें पात्र लेना आवश्यक हो?”
नदी किनारे एक वृक्ष की भूमि से ऊपर उठ आई जड़ पर बैठते हुए आचार्य ने सबको बैठने का संकेत किया, और सभी शिष्यों के भूमि पर बैठ जाने के पश्चात प्रतिप्रश्न किया, “क्या तुम्हें इस दिवस-विशेष की कथा ज्ञात है?”
“हाँ आचार्य। देवों और असुरों ने समुद्र मंथन किया, जिससे चौदह रत्नों की उत्पत्ति हुई। अंतिम रत्न अमृत था, जिसे धन्वंतरि लेकर प्रकट हुए थे। वैसे आचार्य, मुझे तो यह कथा भी संदेहास्पद लगती है। वासुकी नाग की रस्सी, मदरांचल पर्वत की मथनी, समुद्र को मथने से एक-एक कर निकलते रत्न। कभी घोड़ा, तो कभी हाथी, कभी विष तो कभी अमृत। ये सारे चमत्कार तार्किक दृष्टि से अविश्वसनीय लगते हैं।”
“अब यह तुम दूसरा प्रश्न करने लगे हो पुत्र। इस प्रश्न का उत्तर फिर कभी। अभी बस इतने से संतोष करो कि चमत्कार जैसा कुछ नहीं होता। सर्वशक्तिशाली ईश्वर भी चमत्कार नहीं करता, अपितु ऐसे यंत्रों का निर्माण करता है जिनसे प्राप्त परिणाम हमें अपनी सीमित विचारशक्ति के कारण चमत्कार प्रतीत होते हैं। अस्तु, तुम्हारा मूल प्रश्न यह था कि आज के दिन पात्र क्यों क्रय किए जाते हैं।
“पुत्र, यह समुद्र मंथन हमारा इतिहास है। इतिहास सदैव ही स्मरणीय है। यह हमें शिक्षित करता है। साथ ही, क्या तुम मुझसे सहमत नहीं होंगे कि निरा इतिहास इतना बड़ा बोझिल सा लगता है। मैं देखता हूँ कि जब कोई आचार्य इतिहास पढ़ाता है तो आधे से अधिक छात्रों को नींद आने लगती है। अतः इतिहास को स्मरण रखने के लिए उसे रोचक बनाया जाता है, उसके साथ परंपराएँ जोड़ दी जाती हैं। जैसे समुद्र मंथन इतिहास है, धन्वंतरि एक पात्र में अमृत लेकर उत्पन्न हुए। तो परम्परा बना दी गई कि आज के दिन पात्र क्रय करना चाहिए।”
“परन्तु आचार्य, माना कि पात्र क्रय करने से यह इतिहास हमें स्मरण हो आता है, परन्तु इस इतिहास को हमें स्मरण करना ही क्यों है? क्या है इसकी उपयोगिता?”
आचार्य मुस्कुरा उठे और बोले, “पुत्र, कथा है कि देव और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। अमृत की प्राप्ति हुई, पर देवों ने छल किया और असुरों को अमृत नहीं दिया। इस कथा की पहली शिक्षा तो यही है कि बिना कर्म किए, बिना परिश्रम किए कुछ भी प्राप्त नहीं होता। कथा में देवाधिदेव शिव भी है, परमपिता ब्रह्मा भी हैं और भगवतवत्सल नारायण भी। साक्षात ईश्वर भी यदि साथ है, तब भी वह बिना तुम्हारे प्रयास किए कुछ नहीं देने वाला।
“कथा में दो चिरशत्रु मिलकर कार्य करते हैं। अर्थात तुम यह शिक्षा ले सकते हो कि यदि आपका सामर्थ्य पर्याप्त न हो तो आप दूसरों की सहायता ले सकते हैं। यदि मित्रों की सहायता भी पर्याप्त न हो, कुछ कमी रह जाए तो अपने चिरशत्रु से भी हाथ मिलाया जा सकता है। जब अपना, अपने समाज का, धर्म और राष्ट्र का भला करना हो, तो अहम का त्याग कर देना चाहिए और सहायता मांगने में संकोच नहीं करना चाहिए।
“तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यह है कि दृष्टि सदैव आने वाले भविष्य पर होनी चाहिए तथा अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारनी चाहिए। यदि आपको भलीभाँति ज्ञात हो कि शत्रु, सदैव शत्रु ही रहने वाला है, भले ही अभी वह आपका सहायक हो, परन्तु भविष्य में आपका निश्चित अहित करने वाला है तो उसके साथ प्राप्य फल को बाँटने की कोई आवश्यकता नहीं। उसे वह शक्ति न प्राप्त करने दो, जिस पर न्यायतः उसका भी अधिकार हो। आप भले ही उत्तम व्यक्ति हों, पर आपकी न्यायप्रियता यदि आपका, आपके समाज अथवा राष्ट्र का अहित करती हो तो ऐसी न्यायप्रियता को त्याग देना ही उचित है। आपके सद्गुण का लाभ शत्रुओं को मिले, और आपके मित्रों को हानि उठानी पड़े, ऐसे सद्गुण का तदनुकूल परिस्थिति में त्याग करना उचित है। भले व्यक्तियों को भी समाज एवं राष्ट्रहित में छल का प्रयोग करना आना चाहिए।”
यह लेख अजीत प्रताप सिंह द्वारा लिखा गया है