समलैंगिक संबंधों को अपनाने में विश्व ने काफी समय लिया है। यह भी कह सकते हैं कि अभी भी समय लिया जा रहा है। समलैंगिक संबंधों को लंबे समय तक स्वीकार न करने के लिए भारत को रूढ़िवादी संस्कृति और पंरपराओं के अधीन माना जाता रहा। हालाँकि विश्व के अधिकतर देश इन संबंधों और लिंग-भेद को लेकर असमंजस में रहे हैं। ब्रिटेन ने लंबे संघर्ष के बाद वर्ष, 2013 और अमेरिका ने वर्ष 2015 में समलैंगिक शादियों को मान्यता प्रदान की थी।
बहरहाल, भारत में समलैंगिक संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं आते हैं पर समलैंगिक विवाह को अभी भी देश में मान्यता प्राप्त नहीं है। हाल ही में कोर्ट के आदेश पर निर्मित संवैधानिक पीठ एवं सरकार के हलफनामे पर बहस जारी है। केंद्र सरकार द्वारा कोर्ट में समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता नहीं देने के कई तर्क दिए गए हैं जिसे शीर्ष अदालत ने स्वीकार करते हुए मामले पर फैसला संवैधानिक पीठ के हवाले कर दिया है। अगर आने वाले समय में संवेधानिक पीठ द्वारा समलैंगिक जोड़ों के पक्ष में फैसला आता है तो यह ऐतिहासिक निर्णय तो होगा ही, साथ ही देश की सामाजिक संगठन में बड़ा परिवर्तन भी लाने वाला होगा।
परिवर्तन संसार का नियम है पर इसके लिए लंबा संघर्ष, नियम और नीतियों पर कार्य करना होता है। देश में फिलहाल होमोफोबिया, गे-फोबिया, एंटी-गे भेदभाव जैसे शब्द चलन में हैं। समलैंगिक समुदाय का मानना है कि उन्हें विवाह का अधिकार न देना उनके संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध है। यह आर्टिकल 14,15,19 एवं 21 का उल्लंघन है। साथ ही वे सभी जो समलैंगिक विवाह का विरोध करते हैं, होमोफोबिक (समलैंगिक संबंधों से डरने वाले) हैं। उन्हें जो बात समझ नहीं आ रही है वो यह है कि परिवर्तन एक दिन में नहीं होते। परिवर्तन लंबे संघर्ष का परिणाम होता है। कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी उन्हें इसके लिए लंबी लड़ाई करनी पड़ सकती है जिसका जिक्र सरकार द्वारा हलफनामे में भी किया गया है।
LGBTQ: अधिकार तो मिले, समाज में परिवर्तन का इंतजार
सर्वप्रथम संवैधानिक अधिकारों की बात करें तो समलैंगिक विवाह को मान्यता न देना कहीं से भी अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं है। समानता के अधिकार के बाद भी अगर समाज और नागरिकों के लिए यह प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला कोई निर्णय हो तो सरकार के पास स्वतंत्रता है कि वो इसमें परिवर्तन कर सके। यह अनुच्छेद 15 का भी उल्लंघन नहीं है। सरकार किसी एक लिंग के विवाह को मान्यता देकर अन्य के लिए मना नहीं कर रही है। लिंग के मामले में यहाँ कोई भेदभाव नहीं किया गया है। साथ ही अनुच्छेद 21 (जीवन जीने की स्वतंत्रता) भी इसमें मान्य नहीं है। विवाह को मान्यता न देना उनके दैहिक अधिकारों के विरुद्ध नहीं है।
दूसरे देशों का उदाहरण देकर जो लोग समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करवाना चाहते हैं उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि दुनिया के मात्र 30 देशों ने अभी तक समलैंगिक विवाह को मान्यता दी है। इनमें से अधिकतर ने जनमत संग्रह यानि जनता की सहमति के बाद इसे अनुमति दी है। यानि की संबंधित देशों की सरकारें भी जनता के विरुद्ध कानून बनाने में असक्षम रहीं है तो भारत तो बहुसंस्कृति वाला देश है। जब तक समलैंगिक समुदाय भारत में समाज द्वारा मान्यता प्रदान नहीं कर लेता तब तक कानूनी मान्यता उनकी सामाजिक स्वीकार्यता की गांरटी नहीं बन सकती।
बहुसंस्कृति वाले भारत में हिंदुओं में विवाह को पवित्र संस्कार माना गया है। मुस्लिम में यह अनुबंध होता है। विवाह के लिए देश में हिंदू मैरिज एक्ट और मुस्लिम एवं ईसाइयों के लिए उनके पर्सनल लॉ हैं। साथ ही विशेष विवाह अधिनियम भी है और इनमें से किसी में भी समलैंगिक विवाह के पक्ष में बात नहीं की गई है। विवाह को पारंपरिक रूप से हर धर्म और समुदाय एवं कानून में पति-पत्नी का गठबंधन ही माना गया है। तो जब तक कि समलैंगिक समुदाय अपने-अपने धर्म समाज की परंपराओं में बदलाव न कर पाए तब तक कानूनी मान्यता का रास्ता देखना सही विकल्प नहीं होगा।
हाँ, मान भी लें कानूनी संरक्षण उन्हें वैवाहिक जीवन जीने का अधिकार तो देगा पर वैवाहिक अधिकारों के लिए कड़ा संघर्ष उत्पन्न हो जाएगा। जैसा कि बताया गया है देश में विवाह के लिए अलग-अलग कानून बनाए गए हैं और इनमें वैवाहिक अधिकारों, घरेलू हिंसा, गोद लेने, विरासत और रखरखाव जैसे प्रावधान भी सुनिश्चित किए गए हैं। अब समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए सरकार को इन सभी धर्मों के वैवाहिक कानूनों एवं नियमों में बदलाव करने पड़ेंगे। कानूनी बदलाव का जिम्मा सरकार ले भी ले तो पर्सनल कानूनों में बदलाव कौन करेगा? क्या अदालत या कोई समुदाय यह मानकर चल रहा है कि सरकार किसी के धर्म के मामले में हस्तक्षेप करेगी?
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मान भी लें कि सरकार ने इस दिशा में कानून बना भी दिया तो आप देश की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। क्या अपने-अपने धर्मों के खिलाफ कानून बनाने के लिए लोग सरकार के खिलाफ मोर्चा नहीं खोल देंगे। क्या इससे देश में सामाजिक असंतुलन की स्थिति नहीं बन जाएगी?
सामान्य बात है कि देश में विवाह संस्था कोई निजी संस्था नहीं है इसमें कानूनी प्रावधान और सामाजिक बंधन है। ऐसे में समलैंगिक विवाह किसी का निजी निर्णय नहीं हो सकता है। देश में समलैंगिक रिश्तों को अपराध की श्रेणी से बाहर करना ही क्रांतिकारी कदम था। अब बात अगर विवाह की है तो समलैंगिक समुदाय को सरकार और कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बजाय समाज की स्वीकार्यता पर जोर देना चाहिए। यह याद रखा जाना चाहिए कि समाज है जो नियमों में परिवर्तन लाने की ताकत रखता है और अगर उसे इससे अलग रखा जाए तो विद्रोह की संभावनाएं बढ़ जाती है।