“मैं पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है”
ये गाना हिंदी फ़िल्मी गानों के शौक़ीन लोगों ने अवश्य सुना होगा। आज भी यह लोकप्रिय गाना कहीं न कहीं सुनाई दे जाता है। इस गाने में हिंदी सिनेमा के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अभिनय ज़रूर किया, लेकिन इसके बोल लिखे थे उस समय के सबसे मशहूर शायर अब्दुल हई उर्फ साहिर लुधियानवी ने। साहिर लुधियानवी उन चंद नामी लेखकों में से एक थे, जो 1947 में विभाजन के बाद भारत से पाकिस्तान चले गए थे।
साहिर हिंदी और उर्दू में शायरी और गीत लिखा करते थे। उनकी शायरी और गीतों का जादू कुछ इस तरह था की सभी उनके शब्दों को सुनना पसंद करते थे। हिंदी फिल्मों के गीतों को लिखते हुए साहिर ने अपने लेखन के दम पर कई फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किए। 1971 में उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।
हिंदी सिनेमा में गुलजार से भी पहले अगर किसी को उर्दू की ग़ज़लों में महारत हासिल थी तो साहिर लुधियानवी को। ता उम्र तन्हा रहने वाले साहिर ने प्यार पर बहुत सी गज़लें और नज़्में लिखी। कहते हैं साहिर पाकिस्तान के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद से काफी प्रभवित थे। फ़ैज़ की तरह साहिर ने उर्दू शायरी को एक बौद्धिक तत्व दिया।
साहिर की एक पहचान प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के प्रेमी की भी है। दोनों एक दूसरे को पसंद करते लेकिन साहिर के मुस्लिम होने की वजह से अमृता के घरवाले इस रिश्ते के सख्त खिलाफ थे और उनका प्यार कभी मुकम्मल ना हो सका। साहिर का जीवन हमेशा से ही उतार-चढ़ाव के बीच रहा।
साहिर का जन्म लुधियाना में हुआ था लेकिन 1943 में वह लुधियाना छोड़ लाहौर चले गए, और वहां उन्होंने दयाल सिंह कॉलेज में दाखिला ले लिया जहाँ वे छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। हालांकि, उन्होंने कॉलेज बीच में ही छोड़ दिया। महज 23 साल की उम्र में 1945 में उन्होंने उर्दू में अपनी शायरी की पहली किताब ‘तल्खियां’ प्रकाशित की और उस समय की कुछ प्रमुख उर्दू पत्रिकाओं जैसे अदब-ए-लतीफ, शाहकार और सवेरा के संपादकीय स्टाफ में शामिल हो गए।
यह साहिर के जीवन का ऐसा समय था जब उन्होंने साम्यवाद को बढ़ावा देने वाले विवादास्पद बयान दिए और उसके चलते तत्कालीन सरकार द्वारा उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया गया था।
1949 में साहिर लाहौर से दिल्ली भाग आए। कुछ समय बाद वो बंबई चले गए। जिसके बाद उन्होंने फिल्मों में अपनी ग़ज़लों और लेखन के दम पर काम करना शुरू किया।
साहिर के बारे में कहा जाता है कि जितनी क्रांति वो अपनी नज़्म में दिखाते थे, असल जीवन में वो उसका एकदम उलट थे। अपने साथ एक बॉडीगार्ड ले कर चलने वाले साहिर ने अपनी आत्मकथा ‘मैं साहिर हूँ’ में लिखा था, “मुझे पता चला है कि हमीद को कराची में गिरफ़्तार कर लिया गया है। अब मैं ख़ुद को असुरक्षित और अकेला महसूस कर रहा था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जून, 1948 की तपती गर्मी में, शेरलॉक होम्स (जासूस, मफ़लर और ओवरकोट ओढ़े और एक अंग्रेज़ी टोपी पहने) के वेश में, मैं भारत आने के लिए निकल पड़ा।”
हिंदी सिनेमा में गीत तब फिल्मों की कहानियों पर आधारित होते थे, लेकिन साहिर का बेढंगा स्वभाव ऐसा था कि वे इस बात पर ज़ोर देते की फिल्म उनके बनाए गए गानों पर आधारित हो। उनके ग़ुस्सैल स्वभाव को लेकर वो अक्सर ही विवादों में बने रहते। लता मंगेशकर संग एक किस्से को लेकर वह चर्चा में आए जब उन्होंने एक रुपए के लिए लता मंगेशकर से लड़ाई क़र ली थी।
साहिर का विवाद ‘आल इंडिया रेडियो’ को लेकर भी सामने आया। जब ख्वाजा अहमद अब्बास फिल्म राइटर एसोसिएशन के प्रेसिडेंट थे तब साहिद लुधियानवी फिल्म राइटर एसोसिएशन के वाइस प्रेसिडेंट चुने गए थे। दोनों ने मिलकर ये निर्णय लिया की वे लेखकों और कवियों को फिल्मों में उन्हें न मिलने वाली इज़्ज़त दिला कर रहेंगे।
इन दोनों का मानना था की जितना श्रेय संगीत निर्देशक और संगीतकारों को मिलता है उतना ही लेखकों और कवियों को भी मिलना चाहिए। उन्होंने आल इंडिया रेडियो से ये गुजारिश की, कि जब वह रेडियो में गाना बजाते है तब गायक और निर्देशक के साथ लेखकों और कवियों का नाम लिया जाए। जिसने गीत पर इतनी मेहनत की है उस को श्रेय मिलना चाहिए। चूँकि उन दिनों रेडियो का घर-घर चल चलन हुआ करता था इसलिए वह चाहते थे की कवियों और लेखकों को भी उतनी ही पहचान मिले जितनी गायकों को मिलती है।
हिंदी सिनेमा में साहिर का लंबे समय का करियर रहा। 25 अक्टूबर, 1980 को महज़ 59 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। जब शहिर का उनका निधन उनके दोस्त जावेद अख्तर की मौजूदगी में हुआ। हिंदी सिनेमा में जावेद अख्तर संग उनकी दोस्ती काफी मशहूर रही।