रूस में एक वक्त एक कहावत बहुत प्रचलित थी, वहां पर सिर्फ दो ही लोग ताकतवर हैं – पहला वहां का शासक जार निकोलस और दूसरा वो जिसने उस से अभी अभी बात की हो। यानी एक कान के कच्चे आदमी को कैसे ३०० साल पुराने साम्राज्य के पतन का ज़िम्मेदार माना जाता है, ये कहावत उसी ओर इशारा करती है। आज हम बात करेंगे दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण मानी जाने वाली रुस की क्रांति के बारे में।
नैरेटिव, प्रॉपगैंडा और डिसइनफार्मेशन
आपने अक्सर क्रांति के नाम पर शायरी, जार्गन्स सुने होंगे – ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।’ ‘हम ले के रहेंगे आज़ादी‘ आदि आदि । यानी सिंहासन पर राजा के बदले प्रजा का क़ब्ज़ा। आप इन शब्दों पर ध्यान अवश्य दें । यहाँ पर जो एक चीज हम अक्सर अनदेखी कर देते हैं वो ये है कि अगर भीड़ यानी मास से ही शासन चलता और नेतृत्व की ज़रूरत ही ना होती तो फिर लेनिन और स्टालिन की भी ज़रूरत लोगों को क्यों पड़ी? उन्होंने क्यों ख़ुद को लीडर घोषित किया? ये एक क़िस्म का रोमांटीसाइज़ करने वाले कहानियाँ हमें बहुत प्रभावित करती हैं, साम्यवाद और युद्धरत साम्यवाद, या अगर मैं कहूँ तो फ़ॉलिंग फॉर दी अंडरडॉग्स। यानी अच्छे और बुरे की चिंता किए बिना, जो कमजोर है उस से सहानुभूति हो जाना।
इसका उदाहरण हम अगर लें तो अगर ब्राज़ील की फुटबॉल टीम को किसी गरीब अफ़्रीकी देश से लड़वाया जाए तो हम कहीं न कहीं ये चाहने लगते हैं कि अगर एक प्रतिशत संभावना भी है तो ब्राजील की जगह वो गरीब देश जीत जाए। क्या इसका अर्थ ये होता है कि यहाँ पर ब्राजील आवश्यक रूप से गलत है? नहीं, लेकिन यहाँ पर रोल होता है नैरेटिव, प्रॉपगैंडा और डिसइनफार्मेशन का कि किस तरह से आप किसी कहानी के विरुद्ध लोगों को किस हद तक तैयार कर सकते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ रूस में।
1870 का दशक आते आते सोशलिस्ट विचार पूरे यूरोप पर दबदबा बनाने लगे थे। ये विचार निजी संपत्ति का विरोध करता था, यानी प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं बल्कि सार्वजानिक संपत्ति का समर्थन करता था। उन्नीसवीं सदी तक समाजवाद एक जानी पहचानी अवधारणा बन गई। इन समाजवादियों का मानना था कि निजी संपत्ति वाले उन लोगों की परवाह नहीं करते जो उनकी पूँजी बढ़ाने में उनकी मदद करते हैं। वो चाहते थे कि अगर स्वामित्व को बाँट दिया जाए तो थोड़ा थोड़ा फायदा सभी का होगा।
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जनता या लीडर
इसी तरह के कुछ विचार आधार बने रूस की क्रांति का, जिसे अक्टूबर क्रांति का भी नाम देते हैं। इसमें कुछ किरदार बहुत महत्वपूर्ण हैं – जैसे जार निकोलस, उसकी पत्नी जारीना एलेग्जांद्रा , ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया, लेनिन और एक सबसे रहस्यमई किरदार रास्पुतीन।
अगर किसी देश को मजबूती से चलना आसान होता तो कोई भी साम्राज्य अपने राज्य में विद्वानों को, रखता, सैनिकों को आश्रय देता? यानी अगर एक रथ को चलाना है तो उसके कई पुर्जे होते हैं और वो सभी जब मजबूत होते हैं तब उस पर सवारी करने वाला भी पूरे आत्मविश्वास के साथ सवारी करता है, युद्ध में उतरता है।
रूस की क्रांति के बारे में कम्युनिस्ट अक्सर कहते हैं कि वहां राजा क्रूर हो गया था, लेनिन के संवाद लोगों की जुबान पर रहते हैं और इस सबके बीच आप ये भी देखिये कि रास्पुतिन की भूमिका को किस तरह से कुछ लोगों ने राजतंत्र को गिराने के लिए इस्तेमाल किया।
ये पूरी कहानी घूमती है एक 300 साल पुरानी राजशाही के आसपास। यहाँ एक पांच फ़ुट पांच इंच का क्रांतिकारी है, एक अय्याश किस्म का ‘संत’, प्रेम में डूबे हुए राजा-रानी, एक बड़ा हत्याकांड, एक साम्राज्य का पतन और फिर उन सबके बीच गृहयुद्ध, जिसके सहारे लोग समाजवाद या साम्यवाद के लिए जार को सत्ता से बेदखल करने का ख्वाब देख रहे थे। पूंजीवाद और साम्यवाद की इसी जंग को रूसी क्रांति नाम दिया जाता है, जो सेंट पीटर्सबर्ग से गंगा ढाबा के विमर्श और टाइमपास का सबसे पसंदीदा विषय भी है।
क्रान्ति की ये कहानी है रूस की, जो किसी ज़माने में एक साम्राज्य था, फिर कम्युनिस्ट क्रांति के बाद कई देशों के एक संघ का हिस्सा बना और अब इक्कीसवीं सदी में वो फिर से एक देश है जो कुछ राष्ट्रों की नजरों में चुभ रहा है।
अक्टूबर क्रांति के फलस्वरूप 1917 में विश्व में पहली बार लाशों के ढेर पर एक ऐसी शासन व्यवस्था का सृजन हुआ, जो पूर्ण रूप से नास्तिक प्रकृति की और कार्ल मार्क्स के विचारों के विचारों की ही परिणति थी। इसके पीछे प्रमुख व्यक्ति था सोवियत समाजवादी गणराज्य का वास्तुकार, रूसी साम्यवादी पार्टी का संस्थापक, बोल्शेविक क्रांति का प्रमुख नेता और महान नरसंहारक साम्यवादी व्लादिमीर लेनिन!
इस क्रांति का सबसे स्याह पक्ष यह है कि एक ओर जहाँ समाज का बड़ा वर्ग लेनिन-वाद (Leninism) से सदियों से अनुप्राणित रहा, वहीं वह लेनिन के उस ऐतिहासिक विप्लव (Revolution) के सच को नकारता ही आया है, जो लाखों बेगुनाहों की मौत की विभीषिका का आधार बनी।
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रूस की क्रांति: पृष्ठभूमि
क्रांति की पृष्ठभूमि में है साल 1547, जब रूस में ज़ारशाही की शुरुआत हुई। पहले ज़ार ने अपने ही बेटे और पोते ही हत्या कर डाली थी। फिर आया रूस में रोमनोव राजवंश जिसने 300 साल तक रूस पर राज किया। साल 1894 में इस परिवार से निकोलस द्वितीय ज़ार बने। निकोलस एकदम लाडला क़िस्म का बेटा था उसने राज पाठ का काम कभी नहीं सीखा, मौज मस्ती में ज़िंदगी गुजरी, और एक दिन उसे जर्मन राजवंश की लड़की से मोहब्बत हो गई। मोहब्बत हुई तो जार निकोलस द्वितीय और उनकी प्रेमिका जारीना एलेग्जांद्रा अपनी ही दुनिया में मस्त हो गए। चार बेटियां थीं और एक दिन एलेक्सी नाम का एक राजकुमार भी आ गया। 1905 से पहले की दुनिया को भी अगर देखें तो सरे साम्राज्य आपस में किसी न किसी तरह से जुड़े होते थे। ऐसे ही ब्रिटेन और रूस की भी कई रिश्तेदारियां थीं, सारे रजवाड़े रिश्तेदार या दोस्त हुआ करते थे।
कुछ सवाल हैं कि आख़िर रूस के साम्राज्य का अंत कैसे हुआ? रुस का आख़िरी जार कैसे मारा गया और इस कहानी में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया और किंग जॉर्ज का क्या संबंध है।
साम्राज्य की उन्नति और पतन के कारण
किसी भी देश के विकास के लिए कुछ महत्वपूर्ण कारण होते हैं और वैसे ही उस साम्राज्य के पतन के पीछे भी कुछ वजह होती हैं, जैसे चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में बताया था, जैसे मनुस्मृति में वर्णन किया गया है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण हैं कि राजा का अपनी प्रजा से कितना जुड़ाव है। वो जनता के मुद्दों से कितना परिचित है। दूसरा, वहां की अर्थव्यवस्था की स्थिति क्या है। तीसरा किसी भी साम्राज्य पर बाहरी ताकतों का कितना प्रभाव है जिन्हें हम एक्सटर्नल इन्फ़्लुएंस कहते हैं। चौथा है किसी भी साम्राज्य में अगर दूरदर्शिता या विज़न की कमी है तो यह भी उसके पतन का कारण बनता है, फिर आते हैं साम्राज्य के युद्ध से लड़ने को लेकर तैयारियां और आखिर में गृहयुद्ध की संभावनाएं।
1905 के आसपास ये सब कुछ घटित हो रहा था। ये वो समय था जो हमें याद दिलाता है कि राजा या लीडर या नेतृत्व का मजबूत होना कितना आवश्यक होता है। मात्र दस दिन लगे थे रोमनोव साम्राज्य को तबाह होने में। इसी समय रूस जापान से भी युद्ध झेल रहा था, गलत मार्गदर्शन के चलते रूस ने खुद को पहले विश्व युद्ध में भी झोंका और रूस में जैसे ही अस्थिरता आने लगी वहां पर गृहयुद्ध शुरू हो गए। इस क्रांति के क़िस्से के बाद Polar Bear Expedition के बारे में आपने सुना होगा। रूस जब कमजोर हो गया तो रूसी गृहयुद्ध के दौरान उत्तरी रूस में अमेरिका द्वारा एक सैन्य हस्तक्षेप किया गया। यह बोल्शेविक क्रांति और सोवियत संघ की स्थापना के तुरंत बाद 1918 से 1919 तक चला।
यहाँ पर संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जापान सहित कई देशों ने रूस में बोल्शेविक विरोधी ‘व्हाइट फोर्सेज’ का समर्थन करने के लिए सेनाएँ भेजी थीं। इनका लक्ष्य बोल्शेविक लाल सेना (रेड आर्मी) के खिलाफ उनकी लड़ाई में व्हाइट रूसी सेनाओं की सहायता करना था।
रूस के पतन में इन सब चीजों की भूमिका आप देखेंगे। डिसइन्फॉर्मेशन किसी भी राज्य के लिए कितनी खतरनाक हो सकती हैं ये रूस के इस दौर के इतिहास से पता चलता है। जिन ताकतों का लक्ष्य निकोलस को गद्दी से उतारना था, उन्होंने निकोलस और उसके परिवार का जमकर चरित्र हनन किया, उनके ख़िलाफ जमकर दुष्प्रचार किया। रानी के चरित्र के बारे में अफवाह फैलाकर लोगों को भड़काया गया। पहले युद्ध में राजा को जाने या न जाने की सलाह देना कितना खतरनाक था। और आखिर में आप देखिये कि जब जार निकोलस को कैद कर लिया था तो फिर उसे उसके परिवार समेत मार दिया गया। वो उसे बंदी भी बनाकर रख सकते थे लेकिन आखिर इस स्तर की हिंसा क्यों चुनी गई?
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रोमानोव राजवंश और रास्पुतीन
अब थोड़ी सी रूस की कहानी भी जान लेते हैं। रूस की आख़िरी ज़ारीना एलेग्जांद्रा ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की नातिन थी। विक्टोरिया के ख़ानदान से हीमोफ़िलिया जार निकोलस के बेटे अलेक्सी तक पहुँच गया था, अलेक्सी की इस बीमारी से दोनों बहुत परेशान थे। 1905 में यहाँ से कहानी में एंट्री होती है एक रहस्यमयी किरदार की – ग्रिगोरी रास्पुतिन।
रास्पुतीन की भूमिका रूस के साम्राज्य के पतन में देखने पर संदेह नहीं होता कि कहीं ये कोई ट्रेन किया गया आदमी तो नहीं था? उसका किरदार इतना रहस्य से भरा हुआ है कि आप इस किस्म की संभावना पर विचार करने लगते हैं। अब सवाल ये है कि आखिर कौन था रास्पुतिन और वो इस राजशाही के खात्मे का जिम्मेदार कैसे बना?
ये रहस्यमई आदमी रास्पुतीन कई कारणों से रूस में चर्चा का विषय था। पहला – साढ़े छह फुट का एक जोगी जैसा दिखने वाला वो आदमी भविष्य देखने का दावा करता था। उसकी बनावट और उसके तरीकों से लोग हैरान हो जाते और उस से प्रभावित भी होते। उसके शरीर से बकरे की बदबू भी आती थी। वो ऐय्याश, व्यभिचारी, शराबी और ठग था। पूरे सेंट पीटरसबर्ग में उसके चर्चे थे और क्योंकि इस किस्म के लोग निकोलस को बड़े पसंद आते थे इसलिए राजा के आसपास के लोग राजा से उसे मिलवाकर अपने नंबर बढ़वाना चाहते थे। कहा जाता है कि उसने अपनी हरकतों से पूरे रूस को अपनी अंगुलियों पर नचाया। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि वही लोग उसे मारने की योजना बनाने लगे?
जब निकोलस को उसके दरबारियों ने रास्पुतिन से मिलवाया तो निकोलस ने उसे अपने बेटे की बीमारी के बारे में बताया। रास्पुतिन ने वादा किया कि वो जादुई ताकत से उनके बेटे की बीमारी ठीक कर देगा। निकोलस ने रास्पुतिन की बातों पर विश्वास कर लिया, अलेक्सी की तबीयत में सुधार भी आने लगा। कहते तो यह भी हैं कि दवाओं में एस्पिरिन जैसी कोई चीज थी। यहाँ से ज़ार और ज़ारीना रास्पुतिन पर आँख बंद कर यकीन करने लगे। यह कभी स्पष्ट नहीं हो सका कि असल में किस चीज ने असर दिखाया। जो चीज साफ थी, वह यह कि उसके बाद महल में रास्पुतीन का दबदबा बढ़ गया। जाहिर है कि जारीना भी उनकी मुरीद हो गईं। यहां तक कि राजकाज के मामलों में उनसे सलाहें भी ली जाने लगीं। एक साइबेरियाई, रूसी साम्राज्य का ख़ास बन गया ये बात ध्यान देने की है।
साम्राज्य के ख़िलाफ़ साज़िशें
यहाँ से दौर शुरू होता है साम्राज्य के खिलाफ अफवाह और प्रॉपगैंडा का। अब नगर में खबर फैला दी गई कि राजा और रानी, दोनों पर रास्पुतिन का कब्ज़ा हो गया। रास्पुतीन के बारे में कहा गया कि वो सेक्स को दुनियावी चीजों से मुक्ति का रास्ता बताता है और इसलिए वो शराब और सेक्स में लिप्त रहता है। वो जार निकोलस का खासमखास बन गया था, तो उस पर कोई बंदिश भी नहीं थी। सरकारी कामकाज में मदद के बदले में रास्पुतीन ने वहां के अमीरों की बीवियों से भी नजदीकियां बढ़ाई।
कहा जाता है कि उस वक्त रूस के कई मंत्रियों की बीवियां भी रास्पुतीन से प्रभावित थीं। अब ये जादुई किस्म का आदमी उन मंत्रियों को भी खटकने लगा था जो कभी इसे राजा से मिलवाना चाहते थे। उनकी समस्या ये थी कि एक मामूली घर-गाँव का रहने वाला, किसान परिवार का आदमी और राजा-रानी का ख़ास कैसे हो सकता है। आख़िरकार एक बार राजा ने भी उसे एक बार साइबेरिया भेज दिया लेकिन कहा जाता है कि उसका बेटा फिर बीमार पड़ा तो रास्पुतीन ने वहीं से अपनी जादुई ताक़तों से उसे ठीक कर दिया और इस घटना ने रास्पुतीन को महल के साथ हमेशा के लिए जोड़ दिया। रास्पुतीन को वापस बुला लिया गया।
रास्पुतीन का सम्मोहन ऐसा था कि लोग उसके नाखून की कतरन से ताबीज बनाने लगे थे। आम लोग अपनी बीमारियों के इलाज के लिए उनके पास आते, वहीं सरकारी काम कराने वाले जानते थे कि जारीना पर रास्पुतीन का कितना असर है। जब राजमहल इस सबमें व्यस्त था तब रूस की सड़कों पर रहने वाले लोगों में आक्रोश भरने लगा।
रुस में अस्थिरता: ब्लडी सन्डे
अब बारी थी रूस की क्रांति की – अब तक रुस में लोग आर्थिक परेशानियों के चलते सड़क पर उतरने लगे थे। साल 1905 में रूस में पहली क्रांति हुई। व्लादिमिर लेनिन जैसे नेता इस क्रांति के लीडर थे। किसान और मजदूरों की माँग थी कि उन्हें बेहतर वेतन दिया जाए। उन्होंने जार निकोलस से मिलने की कोशिश भी की, लोगों की भीड़ विंटर पैलेस की तरफ रवाना हुई लेकिन निकोलस ने इन लोगों से मिलने की बजाय, उनपर पुलिस छोड़ दी। इस इतिहास को ‘ब्लडी सन्डे’ कहा जाता है, उस दिन हज़ारों लोग पुलिसिया कार्रवाई में मारे गए । इस हत्याकांड ने लोगों को और भड़का दिया। मजदूर स्ट्राइक पर चले गए और किसानों ने हथियार उठा लिए ।
आख़िरकार जार निकोलस को क्रांति के आगे झुकना पड़ा, इस क्रांति का परिणाम ये हुआ कि रूस में ड्यूमा यानी संसद का गठन हुआ, चुनाव भी हुए और प्रधानमंत्री भी बना। लेकिन जार ने अभी भी सारी ताक़त अपने पास रखी थी। यानी राजा अभी भी जब मन चाहे तब अपनी मर्ज़ी से संसद को भंग कर सकता था। ऐसा ही हुआ भी । एक ही साल के अंदर ज़ार निकोलस ने संसद भंग कर दी और अपने मनपसंद आदमी को प्रधानमंत्री बनवा दिया। लोग फिर नाराज़ हो गए। इस बार का विद्रोह हल्का नहीं था, ये आगे चलकर दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति में बदल गया। इसी क्रांति को इतिहास में बोल्शेविक क्रांति (Bolshevik Revolution) के नाम से जाना जाता है।
रूस की ये क्रांति कम्युनिस्ट शासन का पहला एक्सपेरिमेंट था। इस क्रांति के नायक को देखिये लेनिन, स्टालिन, ट्रॉटस्की इनमें से अधिकतर नाम तो ब्रिटेन में रह रहे थे या फिर जर्मनी में। ये लोग सिर्फ तख्ता पलट (Regime Change Operation) करने ही रूस पहुंचे? और तख्तापलट के लिए इन्होंने कैसे तरीक़े इस्तेमाल किए वो भी देखने लायक़ थे। तानाशाही तरीक़ों से अपने राजनीतिक विरोधियों की हत्या।
First World War: The Great War
रुस की क्रांति को भी एक और झटके की ज़रूरत थी और ये कमी पूरी की थी पहले विश्व युद्ध ने, जिसे तब ग्रेट वॉर कहा जाता था। पहला विश्व युद्ध – 1914 में रूस विश्व युद्ध में दाखिल हुआ और अब महंगाई से लोगों का जीना मुश्किल होने लगा था। राशन की कमी थी सेना के पास लड़ने के लिए गोलियां तक नहीं बची, उधर राजमहल से हर रोज़ अलग-अलग कांड बाहर आ रहे थे । ख़बरें फैला दी गईं कि रास्पुतिन के ज़ारीना से नाजायज रिश्ते हैं और उसने राजकुमारियों को भी नहीं छोड़ा है। कहा गया कि ये सब देखकर जार निकोलस भी मौन है। पूरे रूस में ज़ारशाही के खिलाफ गुस्सा चरम पर पहुंच गया, सैनिक हथियार डालकर विद्रोहियों के साथ मिल गए।
पहले विश्व युद्ध तक समाज में वामपंथी रुझान उभर रहा था। इस बीच पहला विश्व युद्ध भी छिड़ गया। पहले तो सेनापति ने मोर्चा संभाला, लेकिन एक दिन जरीना के करीबी रास्पुतीन के कहने पर जार निकोलस 1915 में युद्ध में उतर गये। अब सारा राजकाज निकोलस की पत्नी जारीना के हाथों में था। और वो पूरी तरह से निर्भर थी रास्पुतीन पर। रास्पुतीन अपने दबदबे का पूरा इस्तेमाल कर रहा था। वो अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक की तैनाती और बर्खास्तगी अपनी मर्ज़ी से करने लगा।
रास्पुतिन की हत्या
अब राजशाही के कुछ लोग सक्रिय हो गए और वो रास्पुतिन को ठिकाने लगाने की योजना बनाने लगे। उन्हें लगा कि शराब और सेक्स में डूबा यह आदमी जारशाही को इतना बदनाम कर देगा कि यह पूरा तंत्र ढह जाएगा। तब तक यह चर्चा भी फैल चुकी थी कि जारीना और रास्पुतीन के रिश्ते बेहद अंतरंग हो चुके हैं।
ये योजना बेहद दिलचस्प है, ग्रेगोरी रास्पुतिन को एक घर में बुलाया गया। उसे सायनाइड वाली पेस्ट्री और शराब ऑफर की गई लेकिन वो सायनाइड से भी नहीं मरा। राजकुमार फेलिक्स युसुपोव ने उसे ठंडे पानी में डुबोया, आख़िर में एक रिवॉल्वर से रास्पुतीन के सीने में गोली उतार दी गई। वो तब भी नहीं मरा और फिर दो-चार और गोलियाँ दागी गईं। रास्पुतीन धरती पर गिर गया, और फिर कभी नहीं उठा। उसके हाथ-पैर बांधकर उसे नदी में फेक दिया गया। लेकिन ये राज खुल गया कि रास्पूतिन को किसने मारा है। जिन लोगों को सजा के तौर पर देशनिकाला दे दिया गया उनकी सजा ने उनकी जान ही बचाई, क्योंकि जब 1917 की रूसी क्रांति में जार निकोलस सहित पूरी जारशाही का खात्मा कर दिया गया तब वो राजमहल में मौजूद नहीं थे।
रास्पुतिन की मौत ने विद्रोहियों का हौंसला और बढ़ा दिया । साल 1917 आते-आते हालात इतने ख़राब हो गए कि लोग दुकानों में लूटपाट मचाने लगे। मजबूरन निकोलस को युद्ध से बाहर निकलने का ऐलान करना पड़ा , हालात इससे भी नहीं सुधरे। युद्ध में लाखों रूसी सैनिक मारे गए थे ।रूस के लोग अब किसी भी तरह ज़ारशाही का अंत चाहते थे ।
जारशाही का अंत – 15 मार्च 1917 के रोज़ ज़ार ने सत्ता छोड़ दी। इसी के साथ रूस के 300 साल पुराने साम्राज्य का अंत हो गया। निकोलस ने ज़ारशाही बचाने के लिए कई तरीक़े अपनाए , अपने भाई मिखाईल को अगला ज़ार नियुक्त किया लेकिन वो भी पीछे हैट गया। ब्रिटेन के किंग जॉर्ज, जो रिश्ते में ज़ार के चचेरे भाई लगते थे, उन्होंने निकोलस को ब्रिटेन में शरण देने का प्रस्ताव दिया, किसी ने उसे सलाह दी कि ऐसा करने पर ब्रिटेन में भी विद्रोह भड़क सकता है, इसलिए उन्होंने अपना ऑफर वापस ले लिया और किंग जॉर्ज भी वायलेंट होकर साइलेंट हो गया।
बोल्शेविक बनाम मेन्शेविक
अब रूस में ज़ारशाही ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन क्रांतिकारी इससे भी शांत नहीं हुए। असल में अब क्रांतिकारियों का बोल्श्विक धड़ा रूस में कम्युनिस्ट शासन लाना चाहता था और इसका नेतृत्व लेनिन कर रहा था। जबकि दूसरा धड़ा इसके खिलाफ था, इसे मेन्शेविक कहा जाता था। 1917 में लेनिन के वापस लौटने के बाद रूस तीन साल तक गृहयुद्ध की आग में जला। क्रांति के बाद रूस में गृह युद्ध एक बड़ी समस्या बनकर उभरा। सिविल वॉर वहाँ की ‘रेड आर्मी’ और ‘व्हाइट आर्मी’ के बीच था। यही वो घटना है जिसकी बात मैंने शुरुआत में की थी कि अमेरिका जैसे देश रुस में पोलर बियर एक्सपीडिशन से अस्थिरता बढ़ाना चाह रहे थे।
रेड आर्मी बोल्शेविक तर्ज के समाजवाद के लिए लड़ रही थी, जबकि व्हाइट आर्मी समाजवाद के विकल्प के रूप में पूँजीवाद, राजशाही के लिए लड़ रही थी। 1920 में बोल्शेविकों ने लेनिन के नेतृत्व में विरोधियों को हरा दिया और 1922 में यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स (यूएसएसआर) की स्थापना हुई।
यहाँ पर कुछ हिंट हैं जो ध्यान रखने की ज़रूरत है और समकालीन राजनीति से इसे जोड़कर देखा जा सकता है। जब कोई भी राष्ट्र कमजोर होता है तो पड़ोसी राष्ट्रों के लिए ये आपदा में अवसर जैसा होता है। कोई सभ्यता जब उन्नति करती है, तो यही पड़ोसी देश उसके कमजोर होने का भी इंतज़ार करते हैं।
साम्राज्य की अस्थिरता से किसे होता है फ़ायदा
इसके उदाहरण आप मॉडर्न इंडिया की हिस्ट्री में भी देख सकते हैं। आप आज के कुछ साल बाद भारत में राजनीतिक उठा पटक का माहौल देखिए, दूसरा ये भी कि जो सरकार हमेशा सहयोगियों के समर्थन से चली , जिसके पास पूर्ण बहुमत नहीं रहा, उन्हें एक विधायक या एक सांसद ने भी किस तरह से नचाया। कभी कोई नाराज़ हो रहा है तो कभी किसी को मानना पड़ता है और शासन की सारी ताक़त इन्हीं सब कामों में बँटी रहती है ।
रुस की क्रांति में और क्या हुआ? क्या इस क्रांति से रुस का कोई फ़ायदा हुआ ? नहीं, आसपास के देशों को ज़रूर रुस के पतन से फ़ायदा हुआ । दुनिया से रुस को आइसोलेट कर दिया गया। राज घराने के लोगों की सिर्फ़ हत्या नहीं हुई बल्कि राज घराने की इसारी संपत्ति भी लूट ली गई । जिस युसुपोव ने रास्पूतिन की हत्या की, वो भी वहाँ से भाग निकला और आख़िरी समय में राजा के साथ नहीं था। तो कहीं वो रेजिम चेंज वालों का कोई हथियार तो नहीं था?
झूठ और प्रपंच के सहारे सत्ता परिवर्तन
डिसइन्फ़ॉर्मेशन के द्वारा सत्ता के विरुद्ध लोगों को भड़काया गया। उसके ख़िलाफ़ कहा गया कि ये दढ़ियल उसका आदमी है और वो उसकी औरत है, वो आत्ममुग्ध शराबी है, वो अपने लोगों को फ़ायदा पहुँचाता है, उसने शासन छोड़कर सारा ध्यान बेटे और बीवी पर झोंक दिया है, आदि आदि। क्यों ? क्योंकि कुछ रेजिम चेंज ऑपरेशन वालों को रुस में कम्युनिस्ट शासन स्थापित करना था।
जब रूस में छिड़े गृहयुद्ध के दौरान लेनिन के सामने शासन और सर्वहारा में से किसी एक को चुनने का समय आया, तब उसने सर्वहारा में ही जार निकोलस को देखा। कहा गया कि दूसरी क्रांति पहली क्रांति की रक्षा के लिए हुई। लेनिन ने किसानों को अपनी सेना में शामिल होने के लिए मजबूर किया और उसके सैनिक भूखे ना रहें, इसके लिए उसने किसानों से उनका ख़ाना पीना भी हड़प लिया।
रूस में गृह युद्ध की शुरुआत हो गई। निकोलस जार को उनके महल में नजरबंद किया गया था, लेकिन लेनिन चाहता था कि निकोलस को बंदी बनाकर सजा दी जाए जल्द ही निकोलस और उनका परिवार बोल्श्विक विद्रोहियों के कब्ज़े में आ गए और अब उसके आख़िरी दिन शुरू हो गये थे।
ऑपरेशन ‘चिमनी स्वीप’
ये 17 जुलाई, 1918 की बात है जब निकोलस और उनका परिवार साइबेरिया के पास एक घर में नजरबन्द था। रात के दो बजे कुछ लोग वहां घुसे, ज़ार के पूरे परिवार को घर के नीचे बने एक तहखाने में ले गये। इस ऑपरेशन का नाम था ‘चिमनी स्वीप’।
बोल्श्विक क्रांतिकारियों को खबर मिली थी कि ज़ार के समर्थक अपने राजा को छुड़ाने आ रहे हैं, इसलिए रातों रात ही उन्होंने ज़ार को परिवार सहित ठिकाने लगाने की योजना बना ली। पूरे परिवार को महल के तहखाने में ले जाकर गोलियों से भून दिया गया । मरने वालों में 13 साल का अलेक्सी निकोलाविच भी था, जिसे बचाने के लिए जार ने रास्पूतिन के हाथ रुस का भाग्य सौंप दिया था।
लेनिन का अत्याचार: Dekulakization
इसके बाद 1917-1922 के बीच कम्युनिस्ट लेनिन की सरकार ने रूसी गृहयुद्ध में दक्षिणपंथी और वामपंथी बोल्शेविक-विरोधी सेनाओं का भी निर्मम दमन किया। इसे आप लाल आतंक नाम दे सकते हैं – रेड टेरर के दौरान 2,00,000 लोग मारे गए। अकाल और कुलकों के नरसंहार, जिसे Dekulakization भी कहते हैं, इससे 11 मिलियन लोग मारे गए।
Dekulakization राजनीतिक दमन का सोवियत अभियान था, जिसमें समृद्ध किसान और उनके परिवारों के लाखों लोगों की गिरफ्तारी, निर्वासन सहित फाँसी दी गई। ये वो कृषक थे जिन्होंने बोल्शेविकों को जबरन अनाज देने से मना कर दिया था। लेनिन ने इन किसानों को रक्त चूसने वाले प्रेतों की संज्ञा दी थी।
सन 1920 तक बोल्शेविकों का रेड-टेरर भयावह शक्ल ले चुका था। लेनिन ने एक ख़ुफ़िया एजेंसी ‘चेका’ में लगभग 2 लाख बोल्शेविक भर्ती किए थे, जिन्होंने विरोधियों का सामूहिक नरसंहार किया। विरोधियों को यातना दी और सरेआम फाँसी पर लटकाया जाने लगा। लेनिन के शासन ने ‘चेका’ को खुली छुट दी थी, ये पूर्ण रूप से लाल आतंकी थे । ये चेका लेनिन की पर्सनल पुलिस थी।
ज़ार की मौत के बाद रूस में कम्युनिस्ट शासन की शुरुआत हुई, इस सरकार ने ज़ार के परिवार की मौत की जांच करवाई। रूस में गृहयुद्ध के समाप्त होने और उसके कई दशक बाद तक इस हत्या को लेकर सवाल उठते रहे। तब कहा गया था कि ज़ार के पूरे परिवार के शव जला दिए गए हैं, लेकिन साल 1991 में उनके अवशेष अचानक प्रकट हो गए, इन अवशेषों को 1979 में ही ढूँढ लिया गया था लेकिन कुछ लोग नहीं चाहते थे कि सोवियत क्रांति के इस घटिया इतिहास को सामने लाया जाए।
आख़िरकार 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद निकोलस और उनके परिवार को राजकीय सम्मान के साथ दफना दिया गया। सोवियत संघ के रहते ज़ारशाही का नाम लेना भी गुनाह था, लेकिन 21 वीं सदी में वो कई लोगों के नायक हैं और यहाँ तक कि रशियन चर्च ने उन्हें संत का दर्ज़ा दिया है। अब वापस लौटकर इस पूरे घटनाक्रम को समझने का प्रयास अवश्य करें और निकोलस और लेनिन की भूमिकाओं को समझने की भी कोशिश करें ।