कई शैक्षणिक संस्थानों को चलाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र में सकारात्मक सुधार करने के गुरु गोलवलकर के स्वप्न को पूरा करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में पांच नए विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की है।
विद्या भारती के राष्ट्रीय सह-संगठन सचिव यतींद्र शर्मा ने गत सप्ताहांत में हरिद्वार स्थित सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज में आयोजित एक समारोह के दौरान यह जानकारी दी है। शर्मा ने कहा, “इसका उद्देश्य शिक्षा में सकारात्मक बदलाव लाना है। आरएसएस द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थान सभी छात्रों के लिए खुले हैं, चाहे उनकी जाति, वर्ग या पंथ कुछ भी हो।”
संघ के ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ और ‘आदर्श विद्या मंदिर’ पहले से चल रहे
संघ पहले से ही प्राथमिक शिक्षा में ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ और उच्च माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में ‘आदर्श विद्या मंदिर’ जैसे स्कूलों के माध्यम से संलग्न रहा है और अब विश्वविद्यालय स्तर की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाना चाहता है।
वर्तमान में संघ द्वारा संचालित 29,000 स्कूलों में 31 लाख छात्र पढ़ रहे हैं और इनमें लगभग 1,50,000 शिक्षक कार्यरत हैं। इन शिक्षण संस्थानों में मुस्लिम और ईसाई समुदायों के छात्रों की भी अच्छी संख्या है।
उच्च शिक्षा संस्थान पिछले साल ही बेंगलुरु में 125 एकड़ के विशाल परिसर में चाणक्य विश्वविद्यालय खोल चुका है, जबकि गुवाहाटी में दूसरे परिसर का निर्माणकार्य चल रहा है। बेंगलुरु स्थित विश्वविद्यालय के पहले बैच में कुल 200 छात्रों ने दाखिला भी ले लिया है। आरएसएस ने विद्या भारती स्कूलों से पढ़े हुए 50 मेधावी छात्रों को बेंगलुरु के चाणक्य विश्वविद्यालय में निशुल्क शिक्षा प्रदान करने की भी घोषणा की है।
इसके सिवाय विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा बनाए जा रहे पहले विश्वविद्यालय ‘अशोक सिंघल वेदविज्ञान एवं प्रद्योगिकी विश्वविद्यालय’ का निर्माण गुरुग्राम, हरयाणा में जारी है।
विद्या भारती नई शिक्षा नीति को बढ़ावा देने उत्तराखंड में बनाएगी मॉडल स्कूल
5 नए विश्वविद्यालय बनाने की घोषणा के सिवाय विद्या भारती उत्तराखंड के प्रत्येक जिले में एक मॉडल स्कूल शुरू करने की योजना भी बना रही है। संघ नई राष्ट्रिय शिक्षा नीति के शैक्षिक और सांस्कृतिक पक्ष को उभारने की दिशा में जुटा है।
उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने इस मौके पर कहा, “उत्तराखंड प्लेस्कूल स्तर पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने वाला पहला भारतीय राज्य है। इसने उच्च शिक्षा में NEP(राष्ट्रीय शिक्षा नीति) शुरू करने का भी फैसला किया है और इस उद्देश्य के लिए 57 बैठकें की हैं।”
अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था के प्रति गुरु गोलवलकर के विचार
ब्रिटिश शासन के 75 वर्ष बीतने के बाद भी भारत में अब तक अंग्रेजों द्वारा लाई गई शिक्षा व्यवस्था ही चल रही है, जिसका खाका आजादी के सौ सालों से भी ज्यादा पहले 1835 में मैकॉले ने रखा था। इस व्यवस्था के लक्ष्य और प्रभाव को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने प्रभावी रूप से रेखांकित करते हुए चिन्ता जताई थी।
उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ कहा था,
“अंग्रेज, जो बाद में आए, अधिक कुटिल, मगर शिष्ट थे। उन्होंने खुलेआम तोड़फोड़ एवं भ्रष्ट करने का रास्ता नहीं अपनाया। उन्होंने अपने धूर्ततापूर्ण प्रचार द्वारा परंपरागत चली आई श्रद्धा तथा राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने की चेष्टा की। उन्होंने एक विशेष शिक्षा पद्धति आरंभ की, जिसका लक्ष्य हमारे लोगों की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक तथा पौरुष की भावनाओं का उन्मूलन कर अपने साम्राज्य को पुष्ट करना मात्र था। अपने शिक्षित कहलाए जाने वाले लोग उनके कपट के शिकार हो गए तथा गोरे लोगों के रीति – रिवाजों तथा विचारों की नकल कर जो कुछ अपना था, उसका उपहास करने लगे।” (पृष्ठ 210)
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में हिन्दू विरोध के बारे में गुरु गोलवलकर
आजादी के बाद भी सेकुलरिज्म के नाम पर शिक्षा से भारतीयता के तत्वों को हटाने में कांग्रेस सरकार जोरशोर से लगा रहा है। इस बारे में गुरु गोलवलकर एक जगह कहते हैं, “यदि कोई हिंदू शिक्षा संस्था हिंदू प्रार्थनाएं तथा गीता के श्लोकों का पाठ आरंभ करती है, तो सरकार तुरंत हस्तक्षेप कर वित्तीय सहायता बंद करने की धमकी देती है।” (पृष्ठ 109) 2018 में ऐसी ही एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी जिसमें केन्द्रीय विद्यालयों की प्रार्थना से “असतो मा सद्गमय” हटाने की माँग की गई थी।
इतिहास के साथ खिलवाड़
यदि कोई विषय व्यक्ति को संस्कृति से जोड़कर रखने में सक्षम है तो वह इतिहास ही है, और भारतीय शिक्षा व्यवस्था में यदि किसी विषय के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ हुआ है तो वह इतिहास ही है, जिसमें कांग्रेस पोषित इतिहासकारों द्वारा पश्चिमी लेखकों की अप्रमाणिक थ्योरियों पर आधारित गुलामी का इतिहास ही पढ़ाया जाता रहा है। इसे गुरु गोलवलकर ने बहुत पहले बता दिया था, उन्होंने लिखा था,
“सत्य इतिहास के पाठन से प्रारंभ होगा। हमें अपने बच्चों को सिखाना होगा के जिस धरती पर वे जन्मे हैं, उसकी विरासत महान् है और उनके पूर्वजों ने भौतिक व आध्यात्मिक उपलब्धियों के उच्चतम मानदंड स्थापित किए हैं। तभी उन्हें इनसे भी उच्चतर आदर्शों को प्राप्त करने के पुरजोर प्रयास हेतु उत्साह से भरपूर किया जा सकेगा। किंतु हम इसके विपरीत अपने विद्यालयों में बिल्कुल उल्टी शिक्षा दे रहे हैं। हमारे इतिहास के सबसे गौरवशाली काल को ‘अंधकार युग’ कहा जाता है।
दासता के कालखंडों को महिमान्वित किया जाता है, पर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के प्रेरक योगदान को नहीं। हमारे इतिहास काअधिकांश भाग ‘मुगल काल’ और ‘ब्रिटिश काल’ है। यदि हमारे बच्चों को यही शिक्षा दी जाती है कि भूतकाल में हमारा कुछ महान् नहीं था, हम सदैव पराजित राष्ट्र रहे हैं, केवलमुगलों व अंग्रेजों के आगमन के बाद हमारे राष्ट्र का विकास हुआ है, अर्थात् हमारा अतीत किसी गर्व के योग्य नहीं है तथा हमारे पूर्वज किसी प्रतिस्पर्धा के योग्य नहीं थे, तो क्या हम उनसे किसी सार्थक वस्तु की अपेक्षा कर सकते हैं?
हाँ, यदि आप हिंदुओं की अतीतकालीन उपलब्धियों का, आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष में उनके आत्मबलिदानी उत्साह और वीरता का उल्लेख ओजस्वीरूप में करेंगे फिर आक्रांता ग्रीक, मुस्लिम अथवा अंग्रेज कोई भी हो, तो आप तुरंत ‘सांप्रदायिक’ घोषित कर दिए जाएंगे। यही है असली अड़चन और समस्या का मूलमर्म। इस आत्म-धिक्कारमयी और मूर्ख बनाने वाली शिक्षा का परिणाम क्या है ? (पृष्ठ 248)
वर्तमान शिक्षा केवल सूचनात्मक है, इसे ध्येयोन्मुख बनाना होगा
शिक्षा के स्वरुप को लेकर भी शीर्ष संघ विचारक गुरु गोलवलकर ने अपने विचार रखे थे और उद्देश्य भी जाहिर किए थे। केन्द्र सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति लागू करने और वैदिक शिक्षा बोर्ड की घोषणा के बाद संघ द्वारा 5 नए विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा में इन विचारों का प्रतिबिम्ब नजर आता है। गुरु गोलवलकर ने लिखा है कि,
“हमारी वर्तमान शिक्षा केवल वृत्तात्मक (इन्फॉरमेटिव) है, संस्कारात्मक (फॉरमेटिव) नहीं। इसका जोर इसी पर है कि देश का युवक किसी प्रकार डिग्री प्राप्त कर ले। हमारे युवकों का व्यक्तित्व उभरे, इस ओर इसका ध्यान नहीं है। इस विषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि आज की शिक्षा प्रणाली में आमूलाग्र परिवर्तन आवश्यक है।
प्रत्येक विद्यार्थी को धर्म के आधारभूत तत्व अवश्यमेव पढ़ाए जाने चाहिए। उन्हें अपना विशुद्ध एवं सत्य इतिहास पढ़ाना चाहिए तथा अपनी राष्ट्रीय विरासत के भव्यतम पहलुओं को उनके सम्मुख रखना चाहिए। प्राथमिक यौगिक क्रियाओं के द्वारा उन्हें मनः संयम का शास्त्र अवश्य सिखाना चाहिए।
शिक्षा का शेष भाग परिस्थिति, दैनिक जीवन के तथ्य, व्यक्तिमात्र की अभिरुचि आदि बातों पर निर्भर रहना चाहिए। वह जीवन की सब परीक्षाएं उत्तीर्ण कर सके और सब संकटों से जूझ सके, ऐसा पाथेय बिल्कुल प्रारंभ से ही हमें इसके लिए जुटाना चाहिए। किसी भी विषय के संबंध में क्यों न हो, कर्तव्यभावना पर जोर रहना चाहिए। उत्कृष्ट कर्तव्यदक्षता सर्वोपरि महत्व की बात है।
हो सकता है कि आजकल के स्वार्थपोषक वातावरण में वह अव्यवहार्य दिखाई दे। ध्येयोन्मुख शिक्षा प्रणाली इसके लिए एक ही उपाय है। विद्यार्थियों की ग्रहणशील आयु में, उनके मन पर सतत संस्कारों से यह सत्य अंकित कर देना चाहिए कि कर्तव्य सर्वोपरि है और सब अधिकार, चाहे व्यक्ति के हों, चाहे समूह के, कर्तव्य सापेक्ष हैं और कर्तव्य की तुलना में गौण हैं। विद्यार्थियों में समुचित कर्तव्य भावना जागृत करने के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली ध्येयोन्मुख होनी चाहिए।” (पृष्ठ 380)
शिक्षा का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य
“आधुनिक संदर्भ में ‘शिक्षा’ का अर्थ – संकेत क्या है? यह मानव की अंतर्निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण है। सूचनाओं का मस्तिष्क में ठूंसना भर शिक्षा नहीं है। इसका लक्ष्य मानव-मस्तिष्क को कबाड़ी का गोदाम बनाना नहीं है। शिक्षा को सर्वत्र मानव में निहित विविध प्रतिभाओं तथा क्षमताओं की पहचान एवं प्रकटीकरण के आधारस्तंभ के रूप में ग्रहण किया गया है और इसके महत्त्वपूर्ण परिणाम भी सामने आए हैं।
कला और विज्ञान के विविध क्षेत्रों में महान उपलब्धियों से अलंकृत व्यक्ति तो अन्य अनेक देशों में भी विद्यमान हैं, परंतु हम हिंदू और भी आगे गए हैं। हमारे लिए शिक्षा का सार है व्यक्ति के अंतःव्यक्तित्व का प्रकटीकरण अथवा प्रस्फुटीकरण। जीवन मनोविकारों का पुंज मात्र नहीं है।
हमारी मान्यता है कि हमारे भीतर चरम सत्य विद्यमान है। उसी परम सत्य की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति हमारी शिक्षाप्रणाली का मूल उद्देश्य है। हमारे महान संतों तथा तपस्वियों ने उसकी प्राप्ति की प्रक्रिया के संबंध में विस्तृत दिशानिर्देश दिए हैं, जिन्हें कार्यान्वित करने में शिक्षक की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।” (पृष्ठ 244)
राष्ट्रीय स्तर पर इन विषयों पर ध्यान देकर विसंगतियाँ दूर की जा सकें, इसके लिए संघ वर्षों से आवाज उठाता रहा है और काम करता रहा है, पर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने के बाद संघ की सक्रियता बढ़ गई है।
कांग्रेस के बाप-दादा भी नहीं रोक पाए संघ को, राहुल गाँधी कहाँ से रोकेंगे- मनमोहन वैद्य