इतिहास को तोड़–मरोड़ कर प्रस्तुत करना आसान काम है। वामपंथी इतिहासकारों ने इसे साकार करने की दिशा में अनन्य काम भी किया है। हालांकि साक्ष्यों को अगर झुठलाया जा रहा है तो वो इतिहास पर कब्जा करने के समान है। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर कुछ ऐसा ही मामला सामने आ रहा है।
हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि ज्ञानवापी को मस्जिद कहना सही नहीं है, मस्जिद कहेंगे तो विवाद होगा। उनका कहना है कि जिसे सब मस्जिद कह रहे हैं वहां की दीवारें, त्रिशूल और ऐतिहासिक तथ्य इस बात का प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं कि यहां पर मूल रूप से शिवालय विद्यमान था। इस इंटरव्यू में मुख्यमंत्री योगी ने सबसे महत्वपूर्ण अपील मुस्लिम समुदाय से की। उन्होंने कहा कि ज्ञानवापी को लेकर पहला प्रस्ताव मुस्लिम समुदाय से आना चाहिए। वो ऐतिहासिक गलती को स्वीकार करके समाधान पर बात करें।
ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की दिशा में किसी ने आजतक कदम आगे नहीं बढ़ाए हैं। फिर भी जरूरत है कि लोकहित के कल्याण और इतिहास के साथ न्याय के लिए ऐसे कदम आगे आएं और उनका स्वागत भी किया जाए। हालांकि आज के परिप्रेक्ष्य में क्या मुस्लिम समुदाय इसके लिए तैयार है?
ज्ञानवापी के सर्वे और मथुरा में श्रीकृष्णजन्मभूमि की मांग के बीच मुस्लिम समुदाय द्वारा सहयोगी रवैया सामने आना चाहिए। धार्मिक सौहार्द की बात करने वाले यह तय करें कि अधिकार तथ्य और सर्वसम्मति पर बनें, कब्जे पर नहीं। एक समय मुस्लिम समुदाय से अपील की गई थी कि वो काशी और मथुरा पर कब्जा छोड़ दें तो फिर अन्य स्थानों पर अधिकार लेने की बात नहीं होगी। क्या इसे स्वीकार किया गया था?
समुदाय का कहना है कि मस्जिद 500-600 वर्ष पुरानी है। बिलकुल होगी, पर उससे पहले वहां क्या था? काशी, मथुरा या ज्ञानवापी हिंदू समाज की आस्था का केंद्र हैं। यह कोई 500-600 वर्ष नहीं बल्कि हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता है। धर्मशास्त्र से लेकर दीवारें इस बात की गवाही देते हैं। जो प्रमाणित रूप से हिंदू समुदाय का स्थान है उसपर दावा करना उनकी सभ्यता पर कुठाराघात है, यह मुस्लिम समुदाय को स्वीकार करना चाहिए।
आक्रांताओं के आक्रमण के चिह्नों को हम 600 वर्ष बाद भी इसलिए बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि इससे समुदाय विशेष को परेशानी है। कथित सामाजिक शांति के समर्थक कहते हैं कि आक्रांताओं की गलतियां ठीक करने पर एक समुदाय भड़क जाता है इसलिए उनपर बात ही न की जाए। यही कारण है कि यह पहल मुस्लिम समुदाय करे और कहे कि गलती 600 वर्ष पहले हुई थी, हमें स्वीकार है और उसे बनाए रखने की आवशयकता नहीं है।
मंदिर दिखने वाले भवन में नमाज पढ़कर भाईचारा स्थापित करने का प्रयास करने वाले या तो धर्मनिरपेक्ष राजनेता हैं जिन्हें निजी लाभ के लिए वोट चाहिए या कट्टरपंथ समर्थक हैं जिसे सामाजिक शांति दबाव के आधार पर चाहिए।
मुस्लिम समुदाय अपने आपको इनमें से किस पक्ष में देखता है, यह उसे तय करना है।
गाहे-बगाहे देश में धार्मिक सौहार्द की चादर और गंगा-जमुनी तहजीब की नजीरें रखी गई हैं। इनका आधार धार्मिक संतुलन बनाए रखने से अधिक राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक अन्याय को दबाए रखने के लिए किया गया है। इस आधार ने समाज को कुंठित करने का काम किया है। जाहिर है एक कुंठित समाज में आप सामाजिक सौहार्द और भाईचारे की बात नहीं कर सकते और अगर कर रहे हैं तो यह एक राजनीतिक स्टंट है।
इतिहास को मिटाना या उसे मूल रूप में स्वीकार न करना राजनीतिक लाभ के लिए संभव है। पर इससे हानि तो सामाजिक न्याय की ही होती है। याद करिए कि किस प्रकार सेंगोल को व्यक्तिगत छड़ी बना देने के साथ ही उसके पीछे छिपा वर्षों का इतिहास दबा दिया गया था। यह राजनीतिक नफरत देश के सांस्कृतिक औऱ धार्मिक इतिहास के लिए किस प्रकार घातक रही, यह देख चुके हैं।
यही कारण है कि ऐतिहासिक भूलों को सुधारा जाना चाहिए और इसका प्रस्ताव समाज के उस हिस्से से आना चाहिए जिसने अपने विशेष अधिकारों का उपयोग लंबे समय तक किया है।
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