हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कावेरी नदी के जल बंटवारे की समस्या को हल करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा है। पत्र में स्टालिन द्वारा कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (सीडब्ल्यूएमए) को निर्देश देने का अनुरोध किया गया है कि वह कर्नाटक सरकार को कावेरी जल छोड़ने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मासिक कार्यक्रम का पालन करने के निर्देश जारी करें।
एमके स्टालिन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी पूरी कर ली है। यही जिम्मेदारी वे कर्नाटक की कांग्रेस सरकार से बात करके बेहतर तरीके से निभा सकते थे क्योंकि दोनों पार्टियां विपक्षी गठबंधन का हिस्सा हैं। राष्ट्रीय स्तर पर एकता दर्शाने वाले यह दल आपसी विवाद क्यों नहीं सुलझा पा रहे हैं, इसका जवाब कर्नाटक या तमिलनाडु सरकार में से किसी को देना चाहिए।
देश में अंतर्राज्यीय नदी विवाद की जड़ें राजनीतिक ही नहीं ऐतिहासिक रूप से भी पुरानी हैं। वर्षों ऐसे मामले खींचने से भी इनके हल निकालने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। नदियों के जल के बंटवारे की समस्या को राजनीतिक रूप से नहीं बल्कि इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। कृष्णा जल विवाद, कावेरी जल विवाद और सतलुज यमुना लिंक नहर जैसे अंतर्राज्यीय विवाद के कारण कई राज्यों के बीच विवाद की स्थिति बनी रहती है। नदी विवाद हल नहीं होने में पर्यावरण, आर्थिक और राजनीतिक कई कारण शामिल होते हैं। हालांकि तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच यह 125 वर्षों से चला आ रहा संघर्ष है। इसके कारण बेंगलुरु दंगों का सामना भी कर चुका है।
तमिलनाडु मुख्य रूप से कावेरी नदी के पानी पर निर्भर रहता है। अगर कर्नाटक से पानी की आवक कम होती है तो इसका असर चावल औऱ गन्ने की खेती पर सबसे अधिक पड़ेगा। पानी की समस्या किसानों के लिए ही नहीं बल्कि मछली पालन से जुड़े लोगों के लिए भी संघर्ष लेकर आती है। सामान्य रूप से राजनीतिक डिस्कोर्स में नदी का बंटवारा रीसोर्स के आधार पर न होकर अधिकार या इतिहास पर लड़ा जाता है। न्यायिक रूप से नदी पर निर्भर लोगों के जीवन का उद्देश्य उससे पूरा हो यह सोच कर निर्णय लिया जाना चाहिए।
दैनिक आवश्यकताओं के साथ ही आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण के आधार पर तमिलनाडु और कर्नाटक दोनों ही कावेरी नदी पर निर्भर हैं। इसके लिए लंबे संघर्ष में सुप्रीम कोर्ट तक बात भी पहुंची है और कई महत्वपूर्ण फैसले सामने आए हैं। यह फैसले महत्वपूर्ण जरूर रहे होंगे पर इन्हें सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों राज्य अभी भी संघर्ष कर रहे हैं।
इनका हल आना चाहिए। सरकार से इस पहल की उम्मीद की भी जाए तो वो वोट बैंक की राजनीति को बढ़ाना देने की तरह होगा। नदी विवाद हो या भूमि विवाद इनका सुलझना राजनीतिक लाभ को तोट पहुँचा सकता है। कर्नाटक औऱ तमिलनाडु में भी यही हो रहा है। किसानों के नाम पर कावेरी के जल पर अधिकार पाना चाहर रही कर्नाटक सरकार सबसे अधिक पानी की सप्लाई टेक हब बेंगलुरु में करती है। वहीं तमिलनाडु सरकार ने पानी की कमी के चलते अपने बुनियादी सुविधा या जल संरक्षण के प्रति कौनसे कदम आगे बढ़ाए हैं?
नदी जल बंटवारे का हल न्यायपालिका से आना चाहिए। लंबे समय तक मामला खींचने का असर राजनीतिक स्थितियों पर कम और सामाजिक जीवन अधिक हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि नदियां राष्ट्रीय संपत्ति हैं। इस लिहाज से कर्नाटक इसपर एकाधिकार नहीं कर सकता। कोर्ट ने कावेरी के पानी में तमिलनाडु की हिस्सेदारी को 192 टीएमसी फीट (अरब क्यूबिक फीट) से घटाकर 177.25 टीएमसी फीट कर दिया था और कर्नाटक को 14.75 टीएमसी फीट पानी ज़्यादा दिया था।
कर्नाटक बेंगलुरु की जरूरतों को पूरा करने के लिए किसानों के संसाधन में कमी करता है और उनकी जरूरत पूरी करने के लिए अतिरिक्त पानी की मांग करता है। तमिलनाडु को भी अपनी कृषि के विकास के लिए कावेरी पर निर्भरता है। न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र में यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि पानी का उपयोग सबसे पहले वहां हो जहां इसकी अत्याधिक आवश्यकता है।
राजनीतिक निर्भरता मामले के हल में मदद नहीं करेगी। इसलिए जरूरी है कि कर्नाटक में ड्रेनेज सिस्टम, व्यापारिक अपशिष्ट और बुनियादी सुविधाएं मजबूत की जाएं, जिससे पहले से मौजूद जल संसाधनों का उपयोग हो और कावेरी पर निर्भरता कम हो सके। वहीं तमिलनाडु को अपनी निर्भरता कम करने के लिए कम पानी लेने वाली फसलों पर जोर देना चाहिए। साथ ही वर्षा जल संचयन भी कावेरी पर निर्भरता कम करने में मदद कर सकता है। यह सभी उपाय न्यायपालिका से आए तो बेहतर है जिससे संबंधित सरकारें बिना किसी राजनीतिक लाभ के कदम उठा सकें।
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