ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में ऋषि सुनक के चयन से भारतीय खुश और दुखी हैं। खुश होने वालों की खुशी के पीछे ऋषि सुनक का भारतीय होना एक कारण है। दुखी होने वालों के दुख के पीछे ऋषि का हिंदू होना एक कारण है। खुश होने वालों को लग रहा है कि जिन अंग्रेजों ने भारतीयों पर सैकड़ों वर्ष राज किया, उन अंग्रेजों पर एक भारतीय कम से कम साल छः महीने तो राज कर ही लेगा। दुखी होने वाले वैसे तो अपने दुख का कारण वर्तमान भारत में मल्टी कल्चरलिज़्म की तथाकथित कमी बता रहे हैं पर उनके दुखी होने कारण शायद यह है कि ब्रिटेन में सालभर में तीन प्रधानमंत्री बदल गए पर भारत में आठ वर्षों में एक भी नहीं बदला और आने वाले कुछ वर्षों तक कोई आशा दिखाई नहीं दे रही है।
ये दुखी लोग अपने इस विचार को भारत में मल्टी कलचरिज्म की तथाकथित कमी की चर्चा करके नहीं ढक पा रहे हैं इसलिए यह प्रश्न उठा रहे हैं कि ब्रिटेन ने एक हिंदू को प्रधानमंत्री बना दिया पर भारत कब किसी अल्पसंख्यक (मुस्लिम पढ़ें) को प्रधानमंत्री बनाएगा? एक तरह से प्रधानमंत्री पद के लिए ऋषि सुनक के चयन के पीछे उनका अल्पसंख्यक समुदाय का होना एकमात्र कारण बताया जा रहा है।
ऐसा कह कर इस तथ्य को ढकने का प्रयास किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री जैसे उच्च पदों पर पहुँचने का एक मात्र मापदंड व्यक्तिगत योग्यता होती है। चारों ओर से शोर मचाकर तर्क और तथ्य पर काबू करने का विकट प्रयास हो रहा है। राजनीतिक दल के नेता, तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार और कलाकार, सब इस शोर फैक्ट्री में ओवर टाइम कर रहे हैं।
तर्क का मुकाबला कुतर्क से किया जा रहा है। यह झुठलाने का प्रयास हो रहा है कि ब्रिटेन के सत्ताधारी दल और उसके नेताओं ने ऋषि सुनक का चुनाव इसलिए किया क्योंकि उन्हें लगता है कि वर्तमान अभूतपूर्व आर्थिक संकट से उन्हें और उनके देश को ऋषि सुनक ही निकाल सकते हैं।
अभी कुछ महीने पहले ही इसी सत्ताधारी दल और उनके नेताओं को लगता था कि इस आर्थिक संकट से निकालने का काम लिज ट्रस कर सकती हैं। वे नहीं कर पाईं तो अब यह दाँव ऋषि सुनक पर खेला जा रहा है। यदि अल्पसंख्यक समुदाय से आना ही ऋषि सुनक की एकमात्र योग्यता होती तो उन्हें जुलाई महीने में ही प्रधानमंत्री पद के लिए चुन लिया गया होता क्योंकि वे जुलाई में भी अल्संख्यक समुदाय के ही थे।
भारत में अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम पढ़ें) का व्यक्ति प्रधानमंत्री कब बनेगा? यह प्रश्न यदि केवल प्रधानमंत्री के पद के लिए है तो फिर इसका उत्तर बहुत सरल है। उत्तर यह है कि हमारे देश में प्रधानमंत्री के चुनाव की एक प्रक्रिया है जो संविधान द्वारा निर्धारित होती है। जिस दिन किसी सत्ताधारी दल के 272 संसद सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय के किसी नेता के प्रति अपना विश्वास मत समर्पित कर देंगे, देश को अल्पसंख्यक समुदाय का प्रधानमंत्री मिल जाएगा।
हाँ, यदि यह प्रश्न और उच्च पदों के लिए है तो उसका उत्तर प्रश्न करने वालों को भी पता है। ऐसा नहीं कि उन्हें पता नहीं है। वे जानते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भारतवर्ष के राष्ट्रपति, गृहमंत्री, सेनाध्यक्ष और उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश तक रह चुके हैं।
जहाँ तक मल्टी कलचरिज्म की बात है तो यही कहना है कि मल्टी कलचरिज्म के जिस पहलू को आज आगे रख कर राजनीतिक रूप से घुटे हुए ये लोग भारत को लजवाना चाहते हैं, वह पश्चिमी देशों के लिए साठ-सत्तर वर्ष पुराना दर्शन है और भारत और भारतीयों के लिए दो हज़ार वर्ष पुराना।
ऐसे में यह सब कहकर न तो भारतवर्ष को मोमबत्ती दिखाई जा सकती है और न ही उसे लजवाया जा सकता है। ऐसा कर के सोशल मीडिया पर रीट्वीट और लाइक्स वगैरह बटोरे जा सकते हैं पर उस पर कोई गंभीर बहस नहीं छेड़ी जा सकती। हाँ, यह करके अपने मन को संतोष दिया जा सकता है ताकि आज से कुछ वर्षों बात जब अपने प्रयासों का हिसाब-किताब करें तो यह सोचते हुए कोई पछतावा न हो कि यूँ होता तो क्या होता!
हाँ, एक बात और। पिछले आठ वर्षों में बात-बात पर वैश्विक पटल पर घटने वाली साधारण और रद्दी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक या भौगोलिक घटनाओं को आगे रखकर भारत से कहा जाता रहा है कि उसे फलाँ घटना से सीख लेने की आवश्यकता है। इस पर यह प्रश्न उठता है कि केवल भारत को ही इन घटनाओं से सीख लेने की आवश्यकता क्यों है? कई विषयों और मोर्चों पर लगातार असफल होने वाली विदेशी सरकारें और नेता भारत में घटने वाली घटनाओं से सीख क्यों नहीं ले सकते? क्या भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया कि ये देश और उनकी सरकारें हमसे से कुछ सीख सकें? यदि आपका विश्वास भारतीय लोकतंत्र में नहीं है, वही सही। आप अपने ‘वोकतंत्र’ पर विश्वास करते रहें।