राजस्थान में इस वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कॉन्ग्रेस सरकार अपने कार्यकाल में सत्ता विरोधी लहर और आतंरिक कलह से जूझती रही है। ऐसे में अगला कार्यकाल सुनिश्चित करने के लिए अशोक गहलोत ने सरकारी खजाने को सार्वजनिक करने का निर्णय ले लिया है। चुनाव निकट आते हैं तो सरकारें चुनावी घोषणाएं भी करती हैं और कई नई योजनाएँ लेकर आती हैं। इन सबके पीछे उद्देश्य एक ही होता है, वापस सत्ता पाना। राइट टू हेल्थ (RTH), गहलोत सरकार की ऐसी ही योजना है या कहें तो एक ऐसा ही चुनावी बिल है जिसकी मदद से अशोक गहलोत फिर से प्रदेश की सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं।
प्रदेश में निजी अस्पतालों के चिकित्सक इस बिल का भारी विरोध दर्ज करवा रहे हैं। राजस्थान की सड़कें हजारों डॉक्टरों से अटी पड़ी है जो सरकार से बिल वापस लेने की मांग कर रहे हैं। चिकित्सकों का विरोध समाप्त करने के लिए सरकार अखबारों में विज्ञापन दे रही है पर बिल में सुधार या निजी अस्पतालों के अधिकारों के उल्लंघन का कोई जिक्र प्रदेश सरकार द्वारा नहीं किया जा रहा है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने कार्यकाल के करीब 4 वर्ष मुख्यमंत्री पद के लिए लड़ाई और बाड़ेबंदियों में गुज़ार दिए और चुनावी वर्ष में जनसमर्थन पाने के लिए पारंपरिक चलन को अपनाते हुए रेवड़ियों का सहारा ले रहे हैं। इस वर्ष बजट की बात करें, विधानसभा सत्र की या चुनावी रैलियों में मुख्यमंत्री द्वारा कई रेवड़ियों की घोषणा की गई है। भारतीय रिजर्व बैंक की चेतावनी को दरकिनार करते हुए रेवड़ी कल्चर के चलते अशोक गहलोत के कार्यकाल में राजस्थान पर 200 फीसदी कर्ज बढ़ा है। किसान कर्ज माफी, मुफ्त बिजली और सवा करोड़ महिलाओं को निशुल्क मोबाइल देने जैसी लोक-लुभावनी योजनाओं ने राजस्थानवासियों को कर्ज के तले दबा दिया है। पंजाब के बाद आज देश में राजस्थान के नागरिकों पर सबसे अधिक कर्ज है।
इस रेवड़ी कल्चर को बढ़ाते हुए कॉन्ग्रेस सरकार ने इसे सरकारी खजाने तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि ‘राइट टू हेल्थ’ से अब सरकार की मंशा निजी क्षेत्र का इस्तेमाल कर अपने वोट बैंक को फायदा पहुँचाने की है। सरकार को इससे चुनावी फायदा जो भी हो, राजस्थान के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र इस नई व्यवस्था से चरमराने की कगार पर पहुँच गया है।
राजस्थान: RTH विधेयक की वापसी पर सरकार और डॉक्टर्स के बीच तनातनी
निजी अस्पताल 45 से अधिक तरीके के लाइसेंस मिलने के उपरांत संचालित होते हैं। यह बिल लाइसेंस राज को एक बार फिर से स्थापित करने में ही योगदान देने वाला है। इसके बाद निजी अस्पताल स्टाफ, संसाधन एवं दवाईयों का खर्च अलग से वहन करते हैं। ऐसे में वह किसी मरीज को किस तरह मुफ्त इलाज उपलब्ध करवा पाएँगे? सरकार पुनर्भरण इलाज के बाद करेगी तो अस्पतालों के पास बजट आएगा कहाँ से? साथ ही पुनर्भरण के क्या नियम हैं? सरकारी बोर्ड द्वारा पुनर्भरण के नियम एवं जुर्माने का विजीलेंस करने पर क्या भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने की संभावना नहीं है? संभवतः सरकार ने इन तथ्यों पर विचार नहीं किया है।
राइट टू हेल्थ (RTH) एक लोक-लुभावनी चुनावी योजना है जिसमें राजस्थान के प्रत्येक नागरिक को मुफ्त इलाज देने का प्रावधान किया गया है। बिल के अनुसार, इमरजेंसी के दौरान निजी अस्पताल मरीजों को इलाज देने से इंकार नहीं कर सकते। साथ ही, अगर मरीज बिल भरने में असमर्थ हो तो वे निजी अस्पताल को साफ इंकार कर सकते हैं। यहाँ तक की उनकी स्वास्थ्य जांचों, दवाईयों और वाहन का खर्च भी निजी अस्पताल को ही भुगतना पड़ेगा। एक अन्य प्रावधान के अनुसार, दुर्घटना होने पर किसी अनजान की सहायता करने वाले को अस्पताल द्वारा 5000 रूपए की प्रोत्साहन राशि भी दी जाएगी। बड़े अस्पतालों को छोड़ दें तो कौन सा निजी अस्पताल इस प्रकार के खर्च वहन कर पाएगा। विंडबना यह है कि सरकार ने बिल बनाने से पूर्व इसके लिए अलग से किसी बजट की भी चर्चा नहीं की है। बहरहाल बिल के विषय में ऐसे बहुते से प्रावधान हैं जो स्पष्ट नहीं है और निजी अस्पतालों के अस्तित्व के लिए खतरा साबित हो रहे हैं।
सरकार ने बिल के जरिए निजी क्षेत्र पर मुफ्त इलाज देने का दबाव तो बना दिया है पर बजट की कमी में वे किस प्रकार गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करवाएंगे इसकी व्याख्या नहीं की गई है।
गहलोत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री का कहना है कि बिल किसी स्थिति में वापस नहीं लिया जाएगा पर वो इसपर चर्चा करने को तैयार हैं। अब यहाँ देखने वाली बात यह है कि चर्चाएं करने के लिए सरकार भले ही तैयार है पर बदलाव करने के लिए नहीं। RTH बिल वर्ष, 2022 में लाया गया था तब भी इसका विरोध दर्ज किया गया था। सरकार और निजी अस्पतालों और चिकित्सकों की बीच हुई बैठकों में इसके प्रावधानों पर प्रश्न उठाए थे। हालाँकि बिना किसी बदलाव और अस्पतालों की समस्या को सुलझाए बिना सरकार ने बिल पारित कर दिया।
निजी अस्पताल में कार्यरत चिकित्सक निर्मल मनीष का कहना है कि सरकार ने इमरजेंसी मामलों की समस्या को परिभाषित नहींं किया है। इससे न सिर्फ चिकित्सक बल्की मरीजों को भी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। साथ ही यह मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल पर ही लागू होना चाहिए। हालाँकि सरकारी प्रावधान के अनुसार यह सभी अस्पतालों में लागू है और इसे न मानने पर जुर्माने का प्रावधान तक किया गया है। यह सब चिकित्सकों और निजी अस्पतालों के लिए आर्थिक दबाव को तो बढ़ा ही देगा। साथ ही इससे चिकित्सक मानसिक दबाव भी महसूस कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में किस प्रकार सरकार सुदृढ़ एवं गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सेवा की गारंटी दे सकती है?
राइट टू हेल्थ के प्रावधान सुनने में लुभावने और कल्याणकारी प्रतीत होते हैं। हालाँकि यह मात्र इसका एक ही पक्ष है। स्वास्थ्य योजना के जरिए सरकार निजी क्षेत्र पर एकाधिकार स्थापित करना चाह रही है। योजना की शुरुआत सरकारी अस्पतालों से की जा सकती है पर सरकार पहले से ही सरकारी अस्पतालों में हर संभव स्वास्थ्य सुविधा को मुफ्त कर चुकी है। राइट टू हेल्थ में सर्वप्रथम सरकारी अस्पतालों में सुविधाएं एवं संसाधन बढ़ाने पर जोर देना चाहिए था। चिरंजीवी योजना के तहत सरकार पहले ही प्रदेशवासियों को ही 25 लाख तक का इलाज मुफ्त उपलब्ध करवा रही है। ऐसे में राइट-टू-हेल्थ के जरिए निजी अस्पतालों की आजिविका एवं अस्तित्व पर प्रहार क्यों किया जा रहा है?
गहलोत सरकार ने आवश्यक सुधार के बिना बिल पारित कर दिया। निजी अस्पतालों पर मुफ्त इलाज थोप दिया गया है ताकि इसका फायदा सरकार को मिल सके। सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए अगर सरकार निजी क्षेत्र को साथ देने को कह रही हैं तो क्या समाज सेवा के कार्य के लिए उन्हें कर में किसी प्रकार की छूट जैसी कोई सुविधाएं मिलने वाली हैं?
गहलोत सरकार ने फ्रीबीज को बढ़ावा देने के लिए निजी क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने का काम किया है। इसके स्थान पर सरकार को सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता बढ़ाने पर जोर देना चाहिए था। चिरंजीवी योजना के जरिए सरकार बीमारियों के 1576 प्रकार के पैकेज और प्रोसीजर उपलब्ध करवाती है। 7.69 लाख लोगों को अब तक इसका फायदा मिल चुका है साथ ही 70 प्रतिशत लोग योजना में अपना नाम जुड़वा चुके हैं। अभी आवश्यकता थी कि सरकार योजना से जुड़ी सुविधाओं की गुणवत्ता बढ़ाने में निवेश करती। साथ ही चिकित्सकों की संख्या बढ़ाने की दिशा में काम करती।
राजस्थान के कई क्षेत्रों में आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सक उपलब्ध नहीं रहते हैं। सरकारी स्वास्थ्य केंद्र खराब मशीनों, चिकित्सकों एवं दवाईयों की कमी से जूझ रहे हैं। पर प्राथमिक क्षेत्र को सुदृढ़ करने के स्थान पर सरकार ने फ्रीबीज को बढ़ावा देने का काम किया है।
RTH बिल को एक नजर में देखें तो सर्वप्रथम इसमें निजी अस्पतालों को क्यों सम्मिलित किया गया है इसपर ही संशय है। इमरजेंसी मामलों की व्याख्या नहीं की गई है, पुनर्भरण के नियमों को स्पष्ट नहीं किया गया है, सभी निजी अस्पतालों में समान नियम थोपे गए हैं, जुर्माने की व्यवस्था भी की गई है। साथ ही मरीज के इलाज के साथ ही वाहन का खर्च भी निजी अस्पताल पर थोप दिया गया है। बिल के प्रावधानों और इसकी कमियों को देखते हुए इतना ही लगता है कि सरकार यह बिल हड़बड़ी में लेकर आई है। सरकार को बिल पारित करने की इतनी जल्दी थी कि इसके प्रावधानों की सही व्याख्या करने का समय ही नहीं मिला। अब सरकार निजी क्षेत्र से इसका समर्थन करने की अपेक्षा कर रही है। स्पष्ट है कि, यह बिल इस बात को ही दर्शा रहा है कि चुनावी वर्ष का दबाव मुख्यमंत्री गहलोत झेल नहीं पा रहे हैं।
‘सेंस ऑफ एंटाइटलमेंट’ को कब पीछे छोड़ेंगे राहुल गांधी
चिरंजीवी योजना, मुफ्त मोबाइल देना, मुफ्त बिजली, राशन एवं अन्य फ्रीबीज के साथ सरकार हर संभव प्रयास कर रही है सरकारी खजाने से चुनाव साध लिया जाए। हालाँकि राइट टू हेल्थ इसमें सफलता के झंडे गाड़ने की बजाए विफलता की कील साबित हो सकता है। लोक लुभावनी योजना का प्रलोभन देकर निजी क्षेत्र पर मुफ्त सेवाएं देने का दबाव सरकार के विरुद्ध काम करता प्रतीत हो रहा है। संभव है कि गहलोत सरकार चुनावी भाषण में वोट लेने के लिए RTH कि जिक्र करे पर विपक्षी पार्टी RTH हटाने का वादा कर के ही सत्ता में आने का अपना प्रतिशत बढ़ा ले।
इस वर्ष देश के 9 राज्यों में चुनाव होना है और अगले वर्ष लोकसभा चुनाव देश के सामने है। ऐसे में जरूरी है कि सरकारें कल्याणकारी योजनाओं और रेवड़ियों में अंतर करना सीखें। जितना जरूरी जनमानस के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाना है उतना ही जरूरी उनकी गुणवत्ता का ध्यान रखना एवं आर्थिक क्षेत्रों को बढ़ावा देना है।