भारत को स्वतंत्र हुए आज 75 वर्ष पूरे हो गए। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से देशवासियों को सम्बोधित किया और अमृतकाल के लिए प्रेरित भी किया। ऐसे क्षण विरले ही आते हैं, जब आपको राष्ट्र की दिशा और दशा तय करने का एक स्वर्णिम अवसर मिले।
प्रधानमंत्री मोदी को आज यह अवसर मिला तो उन्होंने इसका भरपूर लाभ लेकर देश की एक नई दिशा और दशा, दोनों ही तय कर दी। उनके भाषण में कई बार सदियों से अनवरत चली आई सनातन संस्कृति से साक्षात्कार साफ़-साफ़ देखने को मिला।
हिंदी भाषा में दिए इस असाधारण भाषण के दौरान प्रधानमंत्री मोदी भारत को विकसित राष्ट्र बनाने और विश्व पटल पर देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए दृढ़ एवं कृत-संकल्पित दिखे। भारत की आजादी के 100 वर्ष पूर्ण होने पर, आगामी 25 वर्षों के लिए अपने दृष्टिकोण को, उद्देश्य को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया और इसकी प्राप्ति के तरीके और साधन भी बताए।
प्रधानमंत्री मोदी ने वृहद पैमाने पर भारतीय युवाओं और महिलाओं के साथ साक्षात्कार कर नए भारत के नए उद्देश्यों को प्राप्त करने में उनका सहयोग मांगा। नरेन्द्र मोदी के सपने का भारत कैसा होगा और किस प्रकार नए विकास पथ पर चलेगा, उसकी भी एक छवि उनके भाषण में दिखाई दी।
यह भाषण सुनकर मुझे यह महसूस हो रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी मानो मुझसे संवाद कर रहे हों, मुझे एक जिम्मेदार नागरिक होने का एहसास दिला रहे हों।
मैंने अपने विचार साझा करने के लिए ट्विटर अभी खोला ही था कि इतने में देखता हूं, कॉन्ग्रेस के नेता जयराम रमेश ने अपने ट्विटर पर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री जवाहर लाल नेहरू जी के द्वारा 1947 में स्वतन्त्रता दिवस पर देश को पहली बार सम्बोधित किए भाषण को साझा किया है।
अब तो मन में एक विचार कौंधने लगा कि क्यों न इस भाषण को पुन: समझा जाए, इसके शब्द और अर्थ को खंगाला जाए। बोलचाल की भाषा में कहें तो इस भाषण को एक बार फिर समझने-समझाने का प्रयास किया जाए और देखा जाए कि देश ने इस बीच क्या खोया, क्या पाया, और क्या वास्तव में पहले स्वतन्त्रता दिवस के पहले भाषण में भारत की ही नींव रखी गई थी?
‘नियति के साथ साक्षात्कार’ नाम से मशहूर यह भाषण दशकों से नेहरू जी की अंग्रेजी वाकपटुता और इस भाषा की उनकी समझ का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। अपने इस भाषण में नेहरू जी ने कहा था “कई सालों पहले, हमने नियति के साथ एक वादा किया था, और अब समय आ गया है कि हम अपना वादा निभाएं, पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभाएं।”
अब आप कल्पना कीजिए, जो देश सदियों के दमन के बाद फिर उठ खड़ा हो रहा है, उस देश के नेता के यह शब्द ‘वादा पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभाएं’ क्या वास्तव में भारत की नींव और भारत को सकारात्मक दिशा देने के लिए काफी थे या फिर यह कहें कि नेहरू जी को देश की जनता के सामर्थ्य पर भरोसा ही नहीं था?
नेहरू जी युगद्रष्टा थे, इसमें कोई संदेह नहीं। वे इस बात को बखूबी जानते थे कि उनका पहला भाषण देश की नई दिशा और दशा तय करेगा। कब तक करेगा इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं था और आज की कॉन्ग्रेस को भी नहीं है। अगर होता तो ये सांप की तरह सड़को पर नहीं रेंग रहे होते। युगद्रष्टा नेहरू जी की इन उम्मीदों के बावजूद, उनकी मध्य रात्रि की लफ्फाजी, उस वक्त जबकि इस ‘चपटी’ वसुन्धरा पर सारा विश्व सो रहा था, तब भी उतनी ही खोखली थी जितनी आज कॉन्ग्रेस कार्यालय और उसके युवा नेता की जेब है।
देश के नाम पहले ही भाषण में यह खोखलापन मुझे आज भी मन ही मन खलता है।
नेहरू जी के ‘नियति से साक्षात्कार’ भाषण पर उस समय बारीकी से कभी चर्चा नहीं हुई। चर्चा क्यों नहीं हुई? इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि भाषण अंग्रेजी में दिया गया था और भारत का जनमानस उस समय कितनी अंग्रेजी जानता या बोलता था, इसका अन्दाजा आप और हम लगा ही सकते हैं।
‘मैं तो आज भी अंग्रेजी नहीं बोल पाता। जैसे कॉन्ग्रेस के नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी हिन्दी नहीं बोल पाते।’
नेहरू जी अपने भाषण में आगे कहते हैं – “भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, और अवसर की असमानता मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आँख से आंसू मिटे। संभवतः ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों की आंखों में आंसू हैं, तब तक हमारा कार्य समाप्त नहीं होगा।”
आखिरी पंक्ति पर जरा गौर कीजिए, कैसे नेहरू जी के भाषण में फलता फूलता आशावाद, अनायास ही निराशावाद की दिशा में चला जाता है। चार पंक्तियों में ही दो बार ऐसा हो रहा है तो यह उनकी इस सोच का परिचायक है कि शायद नेहरू जी को देश के सामर्थ्य पर उतना विश्वास था ही नहीं।
कहीं न कहीं अपने अंतर्मन में नेहरू जी ने उसी दिन यह मान लिया था कि देश की समस्याओं से पार पाना एक अन्तहीन कार्य है। अब अगर आप कॉन्ग्रेस के लगभग 6 दशक के कार्यकाल को देखें तो पाएंगे कि यह पार्टी हमेशा से कमजोरियों से लड़ने-जूझने में कम और उन कमजोरियों को मैनेज करने में ज्यादा लगी रही।
भारत सदियों तक आक्रांताओं से लड़ता रहा, जिस एक क्षण के लिए करोड़ों हिन्दुस्तानियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया, उस विरले क्षण को कॉन्ग्रेस ने अपने लिए ही भुनाया। अंग्रेजों से सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले तो ली लेकिन देश की न चाल बदली न ही उसका चरित्र, और तो और सत्ता की अमिट लालसा में कॉन्ग्रेस ने देश के एक बड़े भाग को न केवल तिलांजलि देकर नीलाम कर दिया बल्कि करोड़ों भारतीयों के जीवन को भी ताक पर रख दिया।
नियति के साथ साक्षात्कार के दौरान जिस भारत की सेवा का अर्थ नेहरू जी ने लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा कर उनकी निर्धनता, अज्ञानता, और अवसर की असमानता मिटाना से समझाया था, वो मात्र एक नारा बनकर रह गया।
वैसे संजय की दृष्टि से देखें (महाभारत वाले) तो हम ये ज़रूर पाएंगे कि 15 अगस्त की उस रात नेहरू जी असल में “गरीबी हटाओ” शब्द पर कॉन्ग्रेस के लिए एक कॉपीराइट ले रहे थे, ठीक उसी तरह जैसे देश की सत्ता पर लिया गया।
नेहरूकाल में ईजाद हुआ गरीबी हटाओ का नारा, बाद में इंदिरा, राजीव, औक सोनिया काल के दौरान भी कॉन्ग्रेस के सर्वेसर्वा नेहरू-गांधी परिवार की सत्ता की लालसा को पोषित करता रहा और सत्ता की बागडोर सिमटकर, सिकुड़कर एक ही परिवार के हाथ में चली गई।
कम शब्दों में समेटना चाहें तो, जाने-अनजाने में नेहरू जी भारत की सेवा, आने वाले कई दशकों तक नेहरू-गांधी परिवार की सेवा बन जाएगा, इसकी मजबूत नींव डाल रहे थे। हुआ भी कुछ वैसा ही। देश को किया वादा निभाना तो बहुत दूर की बात, कॉन्ग्रेस ने आजादी के असल नायकों को भुलाकर, पूरे देश में ऐसा तंत्र खड़ा किया, जो यह साबित करने में लगा रहा कि नेहरू-गांधी परिवार ही इस देश का सर्वेसर्वा है।
सत्ता में रहते हुए कॉन्ग्रेस ने अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति का विस्तार कर उसका प्रयोग किया। अपने वोट की भूख मिटाने के लिए, समाज को बांटने और भारतीय जनमानस के भीतर अपनी ही संस्कृति और सभ्यता के प्रति हीन भावना को बढ़ाने वाली व्यवस्थाओं का निर्माण किया। इस कार्य में कांग्रेस का साथ गांधी-वध के बाद उपजे अवसर ने बखूबी दिया और नेहरू जी ने उस अवसर को पूरी शिद्दत के साथ भुनाया, इससे कॉन्ग्रेस की इस नीति को और बल मिल गया।
कॉन्ग्रेस लगभग छ: दशकों तक सत्ता में रही, बावजूद, नेहरू जी के नियति से साक्षात्कार भाषण में उल्लिखित वो संघर्ष, जो भारत के समक्ष वो देख रहे थे, आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं।
किसी देश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि नेहरू जी के नाती जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने वो यह कहते हुए पाए जाते हैं कि “अगर हम 1 रुपए भेजते हैं तो जनता तक 15 पैसा ही पहुंचता है।” आखिर इस व्यवस्था के निर्माण और उसे पोषण करने का दोष इस परिवार के माथे न मढ़ा जाए तो फिर किसके माथे मढ़ा जाए?
नेहरू जी अपने भाषण में आगे कहते हैं कि “कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं।” नेहरू जी के यह शब्द जितने गम्भीर हैं, आज उतने ही हास्यास्पद लगते हैं।
आइए आपको बताते हैं कि नेहरू जी ने जिस संकीर्ण मानसिकता की बात की है, उसी मानसिकता का परिचायक वे कैसे स्वयं बनकर रह गए।
यहां संविधान के प्रथम संशोधन का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है। कहानी यह है कि नेहरू जी ने अंग्रेजी की 2 पत्रिकाओं ORGANISER और CROSSROADS पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, क्योंकि इनमें नेहरू जी की आलोचना में व्यंग्य और लेख लिखे गए।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देते हुए, नेहरू जी के फैसले पर रोक लगा दी। इस फैसले से नेहरू जी का Ego Hurt हुआ और तत्कालीन नेहरू सरकार ने संविधान लागू होने के 1 वर्ष के भीतर ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का दायरा सीमित कर दिया था।
नेहरू जी यहीं नहीं रुके, इसके बाद जब लेखक धर्मपाल और रूप नारायण ने साल 1962 में भारत की हार के बाद नेहरू से इस्तीफे की मांग करते हुए लेख लिखा तो उनको जेल में ही डाल दिया।
आज यही संकीर्णता कॉन्ग्रेस में गहरी पैठ बना चुकी है। लोकतंत्र जैसा पवित्र शब्द कॉन्ग्रेस की शब्दावली से साल 1975 आते-आते गायब हो चला था, जब सत्ता की भूख में नेहरू जी की पुत्री इन्दिरा गांधी ने भारत में आन्तरिक आपातकाल लगा दिया था।
कॉन्ग्रेस भारत को गांधी परिवार से बाहर देख ही नहीं पाती है। भारत में हजारों संस्थानों के नाम, पुरस्कारों के नाम, योजनाओं के नाम, नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर मौजूद हैं। भला, संकीर्ण मानसिकता के इतने बड़े उदाहरण और कहां मिल सकते हैं।
अब आप सोचिए कि अगर आज भी लाल किले की उसी प्राचीर से प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार, गरीबी उन्मूलन, स्वच्छता, दासता और अपनी विरासत पर गर्व करने के लिए कहना पड़ रहा है तो इसका दोषी क्यों न नेहरू जी को माना जाए?
सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्यों ऐसी व्यवस्थाओं का निर्माण किया गया जिसमें, भारत गौण हो गया और नेहरू-गांधी परिवार और उसका हित सर्वोपरि हो गया?
नेहरू-गांधी परिवार द्वारा देशभर में फैलाया हुआ परिवारवाद कैसे एक व्यापक बीमारी बन गया, इसकी झलक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 76वें स्वतंत्रता दिवस के भाषण में साफ दिखाई दी, जब उन्होंने देश में भाई-भतीजावाद और परिवारवाद के खिलाफ आवाज़ उठाकर भ्रष्टाचार उन्मूलन की लड़ाई में जनता का साथ मांगा।
प्रधानमंत्री मोदी ने भारत में आमूलचूल परिवर्तन लाने के लिए देश के युवाओं से पांच प्रण भी मांगे जिनमें देश में दासता के एक-एक अंश को मिटाना, अपनी विरासत पर गर्व करना, एक भारत श्रेष्ठ भारत के सपने को साकार करने के लिए एकजुटता लाना, अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया गया।
अपने भाषण में उन्होंने देश की जनता के सामर्थ्य को देश की सबसे बड़ी शक्ति बताया और उसको राष्ट्र व उसके चरित्र निर्माण में लगाने के लिए आह्वान किया।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लाल क़िले से दिया यह भाषण सही मायने में ‘भारत की नियति’ से भारत का पहला साक्षात्कार है।