भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक कमेटी ने रेपो रेट की दर अपरिवर्तित रखी है। सीपीआई इनफ्लेशन का अनुमान संशोधित कर 5.4% किया गया है। जीडीपी वृद्धि का अनुमान 6.5% पर बरकरार रखा है। मुद्रास्फीति की बढ़ती चिंताओं के बीच रिजर्व बैंक ने लगातार तीसरी बार रेपो दर को 6.5% पर अपरिवर्तित रखा है।
एक वित्तीय वर्ष में आरबीआई कुल छः द्विमासिक बैठकें आयोजित करता है, जहां मुख्य रूप से धन आपूर्ति, इनफ्लेशन आउटलुक, ब्याज दरें, और विभिन्न प्रकार के व्यापक आर्थिक संकेतक तय करता है। चल रही तीन दिवसीय बैठक मंगलवार को शुरू हुई थी।
जून माह की शुरुआत में भी अपनी पिछली बैठक में केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने सर्वसम्मति से रेपो दर को 6.5% पर अपरिवर्तित रखने का निर्णय लिया था जिसकी अधिकांश विश्लेषकों को उम्मीद थी। आरबीआई ने भी अपनी अप्रैल की बैठक में भी रेपो रेट पर रोक लगा दी थी। और इस बार भी अपरिवर्तित रखा। देखा जाए तो तीन बार से लगातार रेपो रेट अपरिवर्तित रहा है।
आरबीआई ने पिछली तीन बैठकों में ब्याज दरों को अपरिवर्तित क्यों रखा?
बढ़ी हुई मुद्रास्फीति
खुदरा इनफ्लेशन कई महीनों से आरबीआई के लगभग 6% टॉलेरेंस लिमिट से ऊपर बनी हुई है। हालाँकि, इनफ्लेशन का एक बड़ा हिस्सा मजबूत मांग के बजाय खाद्यपदार्थ और ईंधन की कीमतों जैसी आपूर्ति पक्ष की बाधाओं के लिए जिम्मेदार है।
यदि आरबीआई द्वारा ब्याज दरें कम की जाती हैं तो इससे कम समय में ही इनफ्लेशन बढ़ सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कम उधारी लागत ऐसे समय में अर्थव्यवस्था में मजबूत मांग को बढ़ावा दे सकती है, जब वैश्विक मुद्दों के कारण आपूर्ति बाधाएं पहले से ही मौजूद हैं। सीमित आपूर्ति की तुलना में यह डिमांड–पुल इनफ्लेशन को बढ़ावा दे सकती है। इसके अलावा बैंकों द्वारा नीतिगत दरों को कम उधार दरों में स्थानांतरित करने में देरी हो सकती है, जिससे निकट भविष्य में इनफ्लेशन को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा।
इसके विपरीत अगर केंद्रीय बैंक द्वारा ब्याज दरें ज्यादा की जाती है, तो इससे मध्यम अवधि में इनफ्लेशन पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है। ब्याज दर की वृद्धि से उधार लेना महंगा हो जाता है, जिससे वित्तीय प्रणाली के भीतर अतिरिक्त मांग कम हो जाती है। इससे डिमांड–पुल इनफ्लेशन को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है।
इसके अतिरिक्त, जैसे-जैसे बैंक अपनी उधार दरों को नीतिगत दर में वृद्धि के अनुरूप समायोजित करते हैं, यह मौद्रिक नीति संचरण को मजबूत करता है और मुद्रास्फीति पर लगाम लगाना आसान बनाता है। यही वजह है कि आरबीआई का मुख्य लक्ष्य रेट्स को संतुलित कर एक व्यापक दृष्टिकोण रखना है।
विकास में सुधार अभी भी नाजुक है
हालांकि महामारी के बाद आर्थिक विकास में तेजी आई है लेकिन सुधार अभी भी असमान है और इसे समर्थन की जरूरत है। दरों को कम रखने से मांग को बढ़ावा देने और चल रही रिकवरी का समर्थन करने में मदद मिलती है। अब दरें बढ़ाने से विकास को नुकसान पहुंच सकता है।
वैश्विक अनिश्चितताएँ बनी हुई हैं
रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे भू-राजनीतिक तनाव और बढ़ती कमोडिटी कीमतों ने वैश्विक स्तर पर इनफ्लेशन के दबाव को बढ़ा दिया है। वैश्विक माहौल में यह अनिश्चितता दरों पर सतर्क रुख अपनाने की मांग करती है।
इनफ्लेशन को बढ़ाने वाले आपूर्ति पक्ष के कारक
वर्तमान में मुद्रास्फीति का एक बड़ा हिस्सा मजबूत मांग के बजाय आपूर्ति पक्ष की बाधाओं और कमोडिटी की बढ़ी हुई कीमतों के कारण है। ब्याज दरों को अचानक और जल्दी से बढ़ाने के कारण ऐसी आपूर्ति आधारित मुद्रास्फीति पर प्रभावी ढंग से अंकुश नहीं लगाया जा सकता।
निर्यातकों के लिए सकारात्मक: स्थिर दरें निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता बनाए रखती हैं। जैसे-जैसे वैश्विक सुधार गति पकड़ता है, निर्यात मांग में लाभ होता है।
निवेश की मांग को बढ़ावा देता है
अपरिवर्तित दरें उद्योग को कम लागत पर उधार लेने और पूंजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए सहायक वित्तीय स्थिति प्रदान करेंगी। इससे औद्योगिक सुधार को गति देने में मदद मिलती है।
हालांकि आरबीआई ने फिलहाल के लिए ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया है, लेकिन इनफ्लेशन चिंता का एक प्रमुख कारण बना हुआ है। जुलाई महीने में इन्फ़्लेशन केंद्रीय बैंक के टॉलरेंस लिमिट से ऊपर जा चुका है। ऐसे में आर बी आई ब्याज की दरों में बदलाव पर विचार कर सकता है। वैसे हर वित्त वर्ष में मानसून के दौरान फ़ूड इन्फ़्लेशन के चलते इन्फ़्लेशन बढ़ता ही है पर इस वर्ष इसके कारण आवश्यक वस्तुओं के दाम देर तक ऊपर रहने की उम्मीद जताई जा रही है।
आगे की चाल इस बात पर निर्भर करेगी कि आने वाले महीनों में कीमतें, विशेष रूप से खाद्य–पदार्थ की इनफ्लेशन, कैसे बढ़ती हैं। सख्त लिक्विडिटी की स्थिति से संकेत मिलता है कि मौद्रिक नीति का सामान्यीकरण आरबीआई के लिए प्राथमिकता बनी हुई है।
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