शोषण, ग़रीबी, कठिनाई, मौजूदा दौर में कठिन हालात, अमीर द्वारा गरीब का शोषण, बोलने की आज़ादी, ये सारे एकदम क्लासिकल शब्द हैं। गोदी मीडिया के अलावा अगर आज रवीश कुमार (Ravish Kumar) के शब्दकोष में कुछ बचा है तो वो सिर्फ़ यही शब्द हैं।
रवीश कुमार आख़िरकार सड़क पर हैं और स्टूडियो छोड़कर दिन-रात, सुबह शाम पर कविता करने लगे हैं, कभी धूप के नाम प्रेम पत्र लिख रहे हैं तो कभी दिन के नाम। इसी बहाने वो बीबीसी के स्टूडियो भी पहुँचे और पुणे में एक स्कूल की हालत पर भी उन्होंने अपना दर्द प्रकट किया है। ज़मीन पर रहने की आदत तो अब शायद ही रवीश कुमार को रह गई हो लेकिन वो अब सड़क पर हैं।
आज कल ये नया ट्रेंड चला है, लोग बड़ी बड़ी कंपनी से रिज़ाइन कर रहे है क्यूंकि उन्हें वी-लॉगिंग में Career बनाना है। अब इंजीनियर और MBA वाली वेव को ओवरटेक वी- लॉगिंग ने कर लिया है, ठीक उसी तरह जैसे पूँजीपति अडानी ने रविश कुमार के लाल माइक वाले का ओवरटेक किया।
एक दौर था जब हर घर से एक इंजीनियर और MBA निकलने की लहर चली थी और अब पूरा भारत वी-ब्लॉगर्स की लहर की चपेट में है। इस लहर ने अपनी चपेट में रवीश चचा को भी ले लिया है। रवीश जी अपनी घिसी-पिटी लाइंस को ऐसे हर बार बदल बदल कर आगे ले आते हैं जैसे कोविड के वेरिएंट आते रहते हैं। या ये कहो कि उस से भी चार कदम आगे। लेकिन वो एक कॉमन फैक्टर है न रविश जी की भाषा में कहें तोह “गोदी मीडिया” और “गोदी सेठ”, रवीश कुमार उसको अपनी वैक्सीन बनाए हुए हैं। असल में रवीश कुमार गोदी मीडिया पर वैसे ही चिपक गए हैं जैसे गुड़ पर मक्खी चिपक जाती है।
NDTV के साथ अब रवीश जी का रिलेशनशिप था ही ऐसा कि इतनी जल्दी वो मूव ऑन भी नहीं कर पाएंगे। वो करण थापर को ये तक कह रहे थे कि उन्हें ख़रीदने के लिए अड़ानी ने NDTV ही ख़रीद लिया। मतलब सर्दियों में पहाड़ पर धूप की ओर पीठ लगाए इंसान के दिमाग़ में भी ऐसे वीभत्स विचार नहीं आते होंगे, जैसे रवीश कुमार के दिमाग़ में आने लगे हैं। वो दिसंबर की सर्दियों में इतने साहित्यिक हो रखे हैं कि दुनिया को वो बता रहे हैं कि गोदी सेठ उन्हें नहीं खरीद पाए लेकिन चिट्ठी छांटते छांटते वो कब अपने रेज़िग्नेशन लेटर छाप गये उन्हें पता भी नहीं चला। अलकेमिस्ट किताब के पहाड़ी संस्करण की एक लाइन मैं आपको सुनाती हूँ कि जब आप गोदी मीडिया को दिन-रात पुकारते रहो तो सारी कायनात आपको सड़क पर लाने में लग जाती है।
सुपरमैन के बाद दूसरे सबसे बड़े विक्टिम हैं रवीश कुमार
असल में रवीश कुमार का ये NDTV से निकलना, निकालने के बाद ये विक्टिम खेलते रहना और फिर दुनिया जहान के आगे वो कुटिल मुस्कान निकाल कर कहना कि क्या मैं लोकसभा नहीं जा सकता?
तो कहीं सारी प्लानिंग ही यही तो नहीं है? रवीश कुमार कहीं सुपर मैन के किरदार से तो प्रभावित नहीं हैं? कहीं रवीश कुमार को ये तो नहीं लग रहा कि सुपरमैन की ही तरह उन्हें भी उनके ग्रह से निकाल दिया गया है और अब दुनिया की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी अब सिर्फ़ उनकी है?
जैसे क्लार्क कैंट के साथ हुआ कहीं रवीश कुमार कुछ ऐसे ही किरदार को तो नहीं जीने लगे हैं? हर वक्त, हर चीज में वो निगेटिविटी झोंकते दिखते हैं, समाज में मानो कहीं कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा है, क्यों? क्योंकि रवीश कुमार ने अच्छा देखना बंद कर दिया है। रवीश कुमार को अनजान चीजों का भय सता रहा है, वो कह रहे हैं कि लोकतंत्र कहाँ है, मीडिया की आज़ादी कहाँ है, लोग कहाँ खो गये, हर तरफ़ कितना अंधेरा है। ये सब और कुछ नहीं बल्कि रवीश कुमार को एक सुपर मैन जैसा ऐसा मसीहा बनाने की तैयारियाँ चल रही हैं, जो अब इस पूरी सभ्यता को साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पहले बचाने वाला है।
अभी तो इस नाटकबाज़ी की शुरुआत ही हुई है, अभी रवीश कुमार से बड़ा विक्टिम इस पृथ्वी पर शायद सिर्फ़ चीन ही हो सकता है। आज के दौर में इन दोनों से बड़ा पीड़ित कोई नहीं है। रवीश कुमार को आज ही ख़ुद को सुपर मैन declare कर देना चाहिए लेकिन उसके लिए उन्हें सबसे पहले पैंट के ऊपर अंडरवियर पहनना होगा। ख़ैर इस बुरे जोक के लिए माफ़ी लेकिन मुझे ये दर है कि कहीं UNESCO रवीश कुमार को दुनिया का बेस्ट विक्टिम ना घोषित कर दे।
बीबीसी को दिये उनके एक लेटेस्ट इंटरव्यू में वो कभी साहित्यिक हो रहे हैं तो कभी भावुक। अब रवीश कुमार NDTV की बिंदी नहीं बल्कि दिन में हरी भरी भिंडी देखते हैं, और काफी दर्द भरे लव लेटर लिख रहे हैं।
असल में बात तो गोदी मीडिया की नहीं है। असल दर्द ना गरीब हैं और ना ही अमीर, ना सर्वहारा और ना ही बुजुर्वा, ये तो रवीश कुमार मीडिया को हमेशा की तरह गुमराह कर रहे हैं रवीश को साफ़ साफ़ कह देना चाहिये कि उनका मन वो स्टूडियो में बैठे बैठे हर चीज पर ज्ञान देने से ऊब गया है, वैसे भी 2014 से आज तक वो कुछ गिने चुने शब्द बोल कर ही अपने दिन काट रहे हैं। अब रवीश कुमार को कुछ Daring करने का मन है।
अब रवीश कुमार को भी ट्रेंड के साथ उसी श्रेणी में आना है, जिसे महान दार्शनिक रीतिका चंदोला ने पत्रकारिता में वी-लॉगर होना नाम दिया है। मुझे तो ये भी उम्मीद है कि जल्दी ही रवीश कुमार ROAST भी कर रहे होंगे। लेकिन रोस्ट करने के लिए आपको निष्पक्ष होना पड़ता है, फिर गोदी लो गोदी लो बोलना छोड़ना पड़ेगा। ये काफी लेट realization है, लेकिन कोई दिक्कत नहीं क्योंकि आप भी किसी सेठ के इंटरनेट का इस्तेमाल कर के ही दिन के नाम प्रेम पत्र लिख रहे होंगे। फिर कहते हैं पत्रकारिता खतरे में है! पत्रकारिता तो उसी दिन से ख़तरे में आ गई थी जब पत्रकारों ने लोगों से उनकी परेशानियाँ पूछने के बदले उनकी जात पूछनी शुरू कर दी थीं।
अब जिस हिसाब से आप एक लम्बी छुट्टी पर हैं, और आपको समय मिल ही गया है असल में अपने आस पास नज़र मारने का, धुप सेखने का, मूंगफली खाने का तो कुछ समय में एक लव लेटर आप स्विग्गी और जोमाटो को भी लिख ही देंगे। क्योंकि मेंटोस ज़िंदगी तो यही है गुरू!
अब हर जगह ये आंसू निकालने से कुछ होगा नहीं, क्यूंकि अब आप 9 to 5 वाली जॉब जगह जगह जा कर मिस कर रहे हैं, अभी राधिका रॉय के आंसू तो कभी प्रनॉय रॉय का खाली पत्र याद कर रहे है। अब बागो में बहार नहीं है क्यूंकि दिल्ली में कोहरा जो लगा हुआ है। रवीश कुमार चाहे तो कह सकते हैं कि मोदी और अड़ानी ने दिल्ली में कोहरा लगाया है ताकि दुनिया मेरी आँखों के आंसू ना देख सके।
न्यूज़ चैनल छोड़ने के बाद जर्नलिस्ट रवीश कुमार जर्नलिस्टिक एथिक्स का ज्ञान देते देते दिख रहे हैं। रवीश कुमार खुद भूल गए कि उन्होंने स्टूडियो में बैठ कर लोगों को और लोकतंत्र को गाली देने के अलावा अपने करियर में कितने एथिकल सवाल किए हैं। झालमूड़ी खा कर फुचकों पे बात करना कितना एथिकल जर्नलिज़्म प्रमोट करता है ये तो हमें भी मालूम है।
खैर! जेब में नोट होना और जिगर में दम होना, दोनों में फ़र्क़ होता है और जिगर में गोदी मीडिया और जेब में नोट लिए रवीश जी गोदी सेठ को इस्तीफा दे चुके हैं । रवीश जी का कहना है की गोदी सेठों ने रवीश के मुँह से रोटी छीनी है, रवीश कुमार का कहना है कि अडानी जी रवीश जी को हटाना चाहते थे क्योंकि मोदी जी रवीश का मुँह बंद करवाना चाह रहे थे।
रवीश कुमार जी गुस्से में इधर-उधर निकल जाते हैं। अपने इस्तीफ़े को ‘One month fest’ बनाए हुए हैं। जगह-जगह जाकर इंटरव्यू दे रहे हैं, कभी बीबीसी, कभी द वायर को अपने गोरे सेठ के राज सिंहासन के किस्से सुनाते नज़र आ रहे हैं आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा ही होगी कि वो लाल बहादुर शास्त्री जी और बाबा साहब Ambedkar के इस्तीफे की तुलना अपने इस्तीफे से कर रहे हैं।
वैसे जिस हिसाब से ‘एकतरफ़ा भारत’ की बात करने वाले रवीश चचा 2014 से एक-एक दिन का हिसाब लिए बैठे थे, और JNU के फ़साद चिल्ला-चिल्ला कर दिखाया करते थे, उस हिसाब से तो लगता है अगर आज नेहरू जी होते तो ऐसे दस NDTV रवीश कुमार की शान में ये कहते हुए खड़े कर देते कि ‘दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए…. बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए’।