इंसान जब अवसाद के दौर से गुज़र रहा हो तो अपना अस्तित्व बचाने के लिए उसे खुद को साबित करने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी स्थिति में उचित-अनुचित, सत्य-असत्य, वाद-विवाद किसी भी बात की परवाह किये बगैर इंसान मैदान में कूद पड़ता है।
आप कहेंगे कि तुम कौन से तोप हो जो इतने गंभीर विषय पर ज्ञान ठेलने को आतुर हो गए? तो हम बेशर्मी से दांत निपोरते हुए झेप जाएंगे। बहरहाल, ऐसा कहने का सन्दर्भ भी बताएंगे तब तक थोड़ी भूमिका बाँध लें। समय की थपेड़ ऐसी कि कोहबर में बैठे व्यक्ति को भी अर्पण चाटने को मजबूर कर दे। खैर ‘कोहबर’ जानते हैं आप लोग? यदि आप यूपी-बिहार से हैं तो निःसंदेह परिचित होंगे अन्यथा थोड़ा मुश्किल होगा।
रवीश कुमार के चाहनेवाले (‘चाहनेवाले’ लिखने के पीछे यह तात्पर्य है की इसमें ज्यादा आत्मीयता झलकती है, आजकल हर कोई मुहब्बत की दुकानों के ग्राहक बने बैठे हैं, ऐसे में इतना तो बनता ही है) उसे गोदी मीडिया के पनवाड़ियों से भरे बाज़ार में झक्क सफेद कुर्ता पहने घूमता देखते हैं, एकदम ‘बेदाग’, वैसे भी जॉब छूटने के बाद यह आदमी फ्रीलांसर की भूमिका में हैं।
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खैर, पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में विमुद्रीकरण अर्थात ‘डीमोनीटाइज़ेशन’ पर सुनवाई के बाद अपना फैसला सुनाया। पांच न्यायाधीशों के पीठ ने सरकार द्वारा किये गए विमुद्रीकरण/नोटबंदी को चार-एक के अनुपात में सही ठहराया। जिसके बाद कायदे से इस मुद्दे पर भ्रम फ़ैलाने और सरकार को घेरने वालों को यह विष और विषय दोनों त्याग देने चाहिए थे, लेकिन जब नैतिकता की गंगा में अजेंडे का दूषित पानी बह निकले तो ऐसा संभव कहाँ?
खलिहर इंसान वैसे भी बाल की खाल निकालने में माहिर हो जाता है। रवीश जी भी आज कल यही कर रहे या करने को मजबूर हो गए हैं। मानसिक स्थिति भी अस्थिर दिख रही है इसी बीच अब नया शिगूफा छेड़ दिया है। लोकतंत्र में आस्था के नाम की दिहाड़ी लगाते पत्रकार भी न्यायालय से वांछित फैसले न मिलने पर मुद्दे को पुनः जनता की अदालत में ले आने की हिमायत कर रहे हैं। विचित्र बात है।
‘बहुमत में असहमति के बीच गौण किये जा रहे सामूहिक फैसलों का महत्व‘
संवैधानिक पीठ द्वारा सरकार के नोटबंदी/विमुद्रीकरण के फैसले को सही ठहराया गया, लेकिन रवीश कुमार का पसंदीदा विषय बना पीठ में असहमति जताने वाली न्यायाधीश बीवी नागरत्ना के विचार, जिनके अनुसार नोटबंदी का फैसला गैर-कानूनी और असंवैधानिक था। रवीश द्वारा इस पर विशेष रुचि का मुख्य कारण यही है कि जस्टिस नागरत्ना के विचार सरकार को लेकर आलोचनात्मक रहे। फिर क्या लगे पड़े हैं मक्खी चीप के घी निकालने में।
ऐसे में लगता है कि मनोदशा इस स्तर तक पहुँच चुकी है कि हर कोई जो सरकार की आलोचना करता दिख जाए वह रवीश का सगा है। वह भी गाढ़े खून के रिश्ते वाला। उन्होंने इस असहमति को इतिहास के पन्नों में ग्लिटरिंग/चमकदार कलम से उकेरने लायक बता दिया।अपने यूट्यूब चैनल पर आकर कहते हैं कि भविष्य में जब भी ‘बहुमत में असहमति’ के इतिहास पर विचार किया जाएगा तब जस्टिस नागरत्ना की यह असहमति अपने लिए आवाज़ बुलंद करता दिखेगा। हालाँकि “नमस्कार, मैं रवीश कुमार” के अलावा चैनल को सब्सक्राइब करने को कहते हुए थोड़ा लजा गए।
रवीश कहते हैं, “बीवी नागरत्ना की आवाज़ नोटबंदी के इस फैसले के पीछे की अंतरात्मा की आवाज़ बनकर गूंजा करेगी” हालाँकि अन्य चार न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फैसलों को रवीश ने ऐसे नज़रअंदाज़ कर दिया हो जैसे लेनदार को देख कर्ज़दार आँखे भींच लेता है।
जस्टिस नागरत्ना का संक्षिप्त इतिहास देखा जाए तो वह सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ईएस वेंकटरमैय्या की सुपुत्री हैं और सम्भव है कि जस्टिस नागरत्ना भारत की प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश बन जाएँ, तो उनको महिमा मंडित करना भी भविष्य के लिए निवेश के समान है। कभी ऐसा ही वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के लिए भी इकोसिस्टम ने माहौल बनाया था।
साथ ही, वह पूर्व मुख्य न्यायाधीश रोहिंटन एफ नरीमन द्वारा असहमति के फैसलों पर लिखी उनकी किताब का ज़िक्र करते हुए ‘बहुमत में असहमति’ के फैसलों का महत्व पर ज़ोर दे रहे हैं। आगे उनकी किताब का हवाला देते हुए कहा, “बहुमत में असहमति के फैसले समाज पर आने वाले क़यामत का अनुमान लगा सकते हैं जो बहुमत के फैसलों द्वारा संभव हैं।”
फैसले के बाद भी विमुद्रीकरण को असफल दिखने के लिए देते कुतर्क
आगे कहते हैं, “यदि डिजिटल ट्रांजेक्शन/लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए नोटबंदी आवश्यक होती तो दुनिया के सारे देश नोटबंदी कर रहे होते, क्योंकि अन्य देश भी डिजिटल लेन-देन और भुगतान तो कर ही रहे हैं..” हालाँकि रवीश ने यह नहीं बताया कि नोटबंदी के बाद से भारत में डिजिटल ट्रांजेक्शन में 6 साल के अंदर कितने गुना वृद्धि हुई और जिन देशों की वह बात कर रहे हैं वे भारत की तुलना में कहाँ खड़े हैं?
हम जानते हैं नोटबंदी का दायरा डिजिटल ट्रांजेक्शन को बढ़ाने तक ही सीमित नहीं है। बावजूद इसके कि लोगों का डिजिटल लेन-देन के प्रति जबरदस्त रुझान बढ़ा है, इसका मतलब यह नहीं है कि एक झटके में बाज़ारों से कैश करेंसी को निकाल ही लिया जाए।
सरकार के आलोचक बड़े डीनोमिनेशन के नोटों को लेकर भी सरकार को घेरते आये हैं लेकिन गौर करने वाली बात है कि साल-दर-साल दो हज़ार के नोटों को फेज आउट कर दिया गया है और सरकार द्वारा दिए गए सूचना के अनुसार अप्रैल, 2019 के बाद से दो हज़ार के एक भी नोट की छपाई नहीं हुई है। संभवतः बाज़ारों में पड़े दो हज़ार के नोटों को भी धीरे-धीरे अन्य डेनोमिनेशन्स के नोट्स के साथ बदल दिया जाएगा।
एक और विषय जिस पर तंज कसा जाता है कि नोटबंदी के बाद भी जाली-नोटों का चलन जारी है। जबकि जाली-नोट के बड़े-बड़े रैकेट्स जो नोटबंदी से पहले जो पैरेलल इकॉनमी चला रहे थे, उनसे एक झटके छुटकारा मिल गया। वर्तमान में भी जाली-नोटों का चलन है, यह सत्य है, लेकिन सरकार अन्य प्रयासों से उसपर भी काम कर ही रही है।
विरोधियों का नाम नहीं लेने पर चुटकी लेते रवीश
रवीश जी 8 अगस्त, 1980 के हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार की प्रति दिखाते हुए पहले पन्ने पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के वक्तव्य पर छपी खबर जिसका शीर्षक है- “PM: China-trained men involved in border tension” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चुटकी लेते हैं। उनकी शिकायत है कि प्रधानमंत्री मोदी अब तो चीन का नाम तक नहीं लेते हैं, जबकि यह कहते हुए उन्होंने बीते चार दशकों में हुए वैश्विक राजनीतिक बदलाव का जिक्र करना जरूरी नहीं समझा।
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वैसे देखा जाए तो नाम लेकर अपने विरोधियों को सन्देश देने का इतिहास मोदी का बहुत अच्छा नहीं है.. चाहे विरोधी राजनीतिक दल, पत्रकार अथवा आक्रामक पड़ोसी देश ही क्यों न हो?
संसद को विश्वास में लेने वाले कुतर्क
रवीश सरकार द्वारा विमुद्रीकरण का फैसला अधिसूचना द्वारा लाये जाने पर भी आपत्ति है। उन्होंने जस्टिस बीवी नागरत्ना द्वारा सुनाये गए फैसले में संसद को विश्वास में लेने की बात पर सरकार पर सवाल उठाये। इसी अख़बार के दूसरी खबर का ज़िक्र करते हुए बताते हैं कि कैसे तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार के वित्तमंत्री आर वेंकटरमन सौ रूपये के नोट को विमुद्रित/डेमोनेटाइज़ करने के सवाल पर राज्यसभा में बयान देते हुए इसे नकार देते हैं। रवीश यहाँ तत्कालीन सरकार द्वारा विमुद्रीकरण के फैसले पर पहले संसद में बहस करने के फैसले की सराहना करते पाए गए।
देखिये यह भी उदहारण समरूप नहीं हो पा रहा है क्योंकि जब उद्देश्य ही इस निर्णय को गोपनीय रखना था तो ऐसे में संसद में प्रस्ताव लाकर चर्चा करना कहाँ तक तर्कपूर्ण है?
मोदी सरकार द्वारा अधिसूचित कर यह निर्णय लेने आवश्यक था जिससे एक साथ सारे पुराने नोटों के में जमा काले धन और अवांछनीय जाली नोटों को फाइनेंसियल सिस्टम से कर दिया जा सके।
इन सब कुतर्कों से यह बात तो स्पष्ट है कि विषय कुछ भी हो इकोसिस्टम के आकांक्षाओं पर खरे उतरने और अपनी उपयोगिता बनाये रखने के लिए किसी भी हद्द तक जाने पर उतारू हैं। वरना एक विरोधी स्वर बाकी पीठ के फैसलों से ज्यादा कैसे चर्चाएं बटोर लेती?