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Home » औरंगजेब का सपना तोड़ने वाली मराठा राजरानी ताराबाई
झरोखा

औरंगजेब का सपना तोड़ने वाली मराठा राजरानी ताराबाई

Pratibha SharmaBy Pratibha SharmaDecember 9, 2022No Comments7 Mins Read
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मराठा राजरानी ताराबाईः औरंगजेब के सपने को किया था चकनाचूर
मराठा राजरानी ताराबाईः औरंगजेब के सपने को किया था चकनाचूर
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सन् 1680, सम्राट राजे शिवाजी का स्वर्गवास हो चुका था। 8 वर्षों के खूनी संघर्ष के पश्चात सन् 1689 में संभाजी महाराज की मुगलों ने कपट से अंग-भंग करके हत्या कर दी थी। उसके पश्चात संभाजी के भाई और छत्रपति शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र छत्रपति राजाराम के साथ औरंगजेब का 11 वर्षों तक संघर्ष चला। सन् 1700 में छत्रपति राजाराम का भी निर्वाण हो गया।

मुग़लों का दक्कन पर राज करने का स्वप्न अब पूरा होने को था। मराठा साम्राज्य के तीन वीर छत्रपति चिरकाल के लिए शान्त हो चुके थे। मुगलों को लग रहा था कि अब उन्हें तलवार उठाने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी और दक्कन पर उनका राज भी होगा।

औरंगज़ेब को लग रहा था कि वह सबसे सफल मुगल शासक होगा। जहाँ तक शाहजहाँ भी नहीं पहुँच सका था, वहाँ औरंगज़ेब के पहुँचने का सबसे अनुकूल समय था। दिल्ली से निकलकर दक्कन तक सल्तनत स्थापित करने का उसका सपना पूरा होने को था।

आखिर इसी सपने को तो पूरा करने के लिए उसने 20 वर्षों से अधिक समय तक दिल्ली का राज-पाट छोड़ दक्कन में संघर्ष करते बिता दिया था लेकिन हाथ अब भी ख़ाली थे। बार-बार मिली हार से उपजी निराशा ने उसे मृत्यु के द्वार तक पहुँचा दिया था हालाँकि, दक्कन के राज द्वार उसके लिए नहीं खुल सका था।

औरंगज़ेब को रोका किसने? ऐसा क्रूर मुगल शासक जो राज्य विस्तार के लिए जाना जाता था, जिसे मुगलों के चरमोत्कर्ष का कारण माना गया, उसे छत्रपति शिवाजी और संभाजी के निर्वाण के बाद भी दक्कन क्यों नहीं मिला? 

उत्तर है, एक मराठा वीरांगना जो योद्धा, कूटनीतिज्ञ, महत्वाकांक्षी और अदम्य साहस की धनी थी। हम बात कर रहे हैं, मराठा महारानी, शिवाजी की पुत्रवधू, छत्रपति राजाराम की पत्नी महारानी ताराबाई की।

सन् 1700 में महाराजा राजाराम की मृत्यु के बाद महारानी ताराबाई ने अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय का राज्यभिषेक करवाकर औरंगज़ेब से लोहा लिया। मुगल शासक के पास क्या नहीं था? दिल्ली सल्तनत, लूटी हुई अकूत संपत्ति, सेना का संख्या बल और हथियारों का भंडार।

दूसरी ओर महारानी ताराबाई के पास उनकी रणनीतियाँ और कुछ विश्वासपात्र मराठा लड़ाके थे। संसाधनों की कमी के बाद भी इस मराठा महारानी ने औरंगज़ेब के वर्षों के सपने पर ऐसी तलवार चलाई की वो कभी खड़ा नहीं हो सका। 7 वर्षों के लम्बे संघर्ष में ताराबाई की गुरिल्ला युद्ध की रणनीतियों के कारण औरंगज़ेब कठपुतली बनकर रह गया और सन् 1707 में उसकी मृत्यु हो गई लेकिन ताराबाई को पराजित नहीं कर सका। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी जिन्होंने 20 वर्षों से दिल्ली का चेहरा भी नहीं देखा था, दक्कन पर विजय का सपना त्याग दक्कन से रवाना हो गए।

यही विचारधारा मुगलों और मराठों को अलग करती थी। राजा की मृत्यु के बाद जहाँ मुगल बिखर चुके थे, वहीं तीन-तीन छत्रपति का निर्वाण देखने के बाद भी मराठा साम्राज्य की नींव भी मुगलों से न हिली। महारानी ताराबाई की नीतियाँ उत्कृष्ट थी। उनका एक विधवा स्त्री होना उनकी कमजोरी से अधिक औरंगज़ेब  को उसके अपने घेरे से बाहर निकालने का चारा था।

ताराबाई मुगलों को भड़काती, औरंगज़ेब आक्रमण करता और वो किले पर किले बदलती रहती। पन्हाला, जिसे दक्कन का प्रवेश द्वार माना जाता था, उस पर ताराबाई का राज था। ताराबाई योद्धा तो थी ही, वे बहुत अच्छी रणनीतिकार भी थी। इसी के चलते मराठा योद्धा छत्रपति के निर्वाण के बाद उनके आदेशों पालन करते थे।

अपने सैनिकों को उत्साहित रखने के लिए ताराबाई राज-पाट छोड़ सैनिकों के साथ असहनीय वातावरण में रहती और जमीन पर सोती थी। मुगलों के विरुद्ध उनकी नीतियाँ अचूक रही। उनके उठाए कदमों का मुगलों के पास कोई जवाब नहीं था और वे इस युद्ध में मूक दर्शक बन चुके थे।

‘इतिहास की रानी’ नामक पुस्तक में इतिहासकारों ने लिखा है कि वह मराठा रानी एक बाघिन के जैसी है। हमेशा चौकस रहती थी और निर्णय इतने मजबूत थे कि कुशल योद्धा और अनुभवी राजनीतिज्ञ उनका सम्मान करते थे।

तमिलनाडु में स्थित मराठा साम्राज्य का आखिरी किला जिंजि का किला 8 वर्षों के भीषण संघर्ष के बाद भी मुगल सेनापति जुल्फिकार के हाथ नहीं आया था। रानी ताराबाई का शौर्य उनकी तलवार में ही नहीं बल्कि मुगलों के खिलाफ उनकी सफल चालों में मिलता था। औरंगज़ेब के आधिकारिक इतिहासकार ने भी ताराबाई की रणनीति और आघात के प्रभाव को उनके पति से कहीं अधिक वर्णित किया है।

गुरिल्ला युद्ध के साथ ही ताराबाई ने औरंगज़ेब की ही रिश्वत नीति अपनाकर मुगल सेना में सेंध लगा दी थी। शत्रु सेना के सेनापतियों को रिश्वत देकर युद्ध का रुख मोड़ने में वे सफल रहती थी। इसके साथ ही, ताराबाई और उनके सेनापतियों ने शत्रु क्षेत्रों में भी अपने टैक्स कलेक्टर तक नियुक्त किए थे। वे शत्रु के इलाके से ही कर संग्रह करके उन पर आक्रमण करती थी।

मुगल सेना रणनीति सम्बन्धी समस्याओं का सामना तो कर ही रही थी, महारानी ताराबाई ने आर्थिक मोर्चों पर भी उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी। ताराबाई के नेतृत्व में उनकी सेना ने मुगलों के सबसे संपन्न बंदरगाह सूरत को एक नहीं बल्कि तीन बार लूट कर धन स्वराज के नाम किया था।

ताराबाई का कार्यकाल भले ही छोटा रहा लेकिन वे गौरव और शौर्य से परिपूर्ण था। उनके कार्यकाल में मराठा साम्राज्य अपने चरम पर पहुँच चुका था। मराठा नर्मदा पार कर मालवा, मंदसौर और सिंरौजा में पहुँच चुके थे। औरंगज़ेब पन्हाला, रायगढ़ और परली जैसे दुर्ग जीतता और  ताराबाई उन्हें अपनी नीतियों से कुछ ही समय में छीन भी लेती थी।

मराठाओं के पतन के लिए औरंगज़ेब ने गिरि-कंदराओं में 20 वर्षों से लंबा समय व्यर्थ ही गंवा दिया।

ताराबाई अपने विश्वसनीय सेना और नौसेना के साथ मराठाओं द्वारा मुगलों को मजबूत जवाब के रूप में सामने आई थी। उनकी वीरता का मंडन करते हुए कवि गोविंद ने लिखा है,

“देखकर बुरी हालत पातशाही की
खिलखिलाकर हंस रही इंद्रसभा भी
आ गई बेला प्रलय की
भागो-भागो मुगलों, खुद को संभालो
ढह गई दिल्ली राजधानी
उतर गया बादशाह का पानी
आई आई ताराबाई राजरानी
जैसे रक्त की प्यासी रणचंडी भवानी”

महारानी ताराबाई ने अपने पति की मृत्यु देखी, राजे शिवाजी का निर्वाण देखा पर मुगलों के सामने वो डगमगाई नहीं। ये शौर्य उन्हें विरासत में मिला था। हिंदवी साम्राज्य के सरसेनापती हंबीरराव मोहिते की पुत्री सीताबाई, जो विवाह के बाद ताराबाई बनी। अपने बालपन से स्वराज का अर्थ जानती थी। वीरगति को प्राप्त होने से पहले ही हंबीरराव ने अपनी पुत्री को घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्धकला में पारगंत किया था। इतिहास के पन्ने जब-जब खोले जाएँगे, उनमें राजरानी ताराबाई की वीरता अवश्य शामिल रहेगी।

संकट की घड़ी में स्त्रियों को छुपा देना भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं था। इसलिए इतिहास में राजरानी ताराबाई का नाम है, रानी लक्ष्मीबाई का नाम है, रानी अब्बका का नाम है, रानी अहिल्या बाई होल्कर का नाम है। नारीवाद का परिचय भारत बहुत पहले ही पा चुका था। रानी ताराबाई के रूप में, जिन्होंने अपने मजबूत नेतृत्व से मराठा साम्राज्य की नींव को हिलने तक नहीं दिया।

अपने अंत समय में नजरबंद रहने के बाद भी वो संघर्ष करती रहीं। उनकी उत्कृष्ट नीतियाँ और अदम्य साहस का परिचय मुगल सम्राज्य के पतन के साथ हमेशा मिलता रहेगा। मराठाओं को विजयी रखा, मुगलों को टक्कर दी, औरंगज़ेब का मुकाबला किया, दक्षिण को मुगलों से बचाया और मुगल क्षेत्र से ही कर वसूल कर राज भी किया, ऐसी थी वीर मराठा छत्रपति राजरानी ताराबाई भोंसले।

इसलिए पुर्तगालियों ने इन्हें ‘rainha dos Marathas’ कहकर पुकारा, इसका अर्थ है मराठाओं की रानी। ताराबाई सही मायने में मराठाओं की रानी थी, जो अनंतकाल तक स्त्रियों की प्रेरणा शक्ति बनी रहेंगी।

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