ऐसा लगता है कि राजा रामचंद्र से सैफई वालों का कुछ छत्तीस का आंकड़ा है। सैफई के पिताजी भी राजा रामचन्द्र के भक्तों पर कोप बरसाए थे और सैफई के युवराज का भी राजा रामचंद्र के भक्तों पर विशेष स्नेह दिखाई पड़ रहा है। पिता और पुत्र में अंतर सिर्फ इतना है कि पिताजी की तरह कोई जीवित रामभक्त गोलीबारी करने के लिए नहीं मिला तो यदुवंशी अखिलेश रामभक्त तुलसी बाबा को ही रगड़ दिए।
हमको कभी कभी लगता है कि कहीं श्री कृष्ण ने अपने वंशजों को राजा रामचंद्र के नाम की सुपारी तो नहीं दे रखी है। इस दृष्टिकोण से पूरा मामला क्षेत्रीय प्रभाव ज़माने का मालूम पड़ता है और जरूर पुराने समय में मथुरा और अयोध्या के बीच कुछ हुआ होगा। हो सकता है कि द्वापर युग में अयोध्या वालों ने मथुरा के राजा कंस का साथ दिया हो जिसके कारण श्रीकृष्ण ने अपने वंशजों को अयोध्या वालों से पीढ़ीगत दुश्मनी रखने का आग्रह किया हो। वेद-पुराण के जानकर इतिहासकार ही इस विषय में कुछ बता पाएंगे। वैसे भी राजा रामचंद्र और श्री कृष्ण दोनों ही महापुरुष उत्तर प्रदेश की बाहुबली जातियों से आते हैं तो बाहुबलियों के बीच इस बात को लेकर भी स्पर्धा हो सकती है कि किसका सिक्का चलेगा। कहने का मतलब है कि किसका मंदिर पहले बनेगा। अब अयोध्या वाले ने बाज़ी मार ली है तो मथुरा वाले को हो सकता है बुरा लगा हो और अपने वर्तमान वंशजों के माध्यम से मथुराधिपति अयोध्यापति और उनके भक्तों को अपमानित करवा रहे हों। बड़े लोगों में ऐसा होना कोई विचित्र बात नहीं है। ज्ञातव्य हो कि द्रोपदी ने द्वापर में दुर्योधन का मजाक अपने महल के गृहप्रवेश के समय किया था जिसका बदला दुर्योधन ने द्रोपदी का चीरहरण करवा कर लिया।
अखिलेश ने की इज्जतनगर का नाम ‘अमृत शौचालय’ करने की माँग
रामचरितमानस को अपमानित करने के पीछे एक और एंगल हो सकता है। राजा रामचंद्र पर ब्राह्मण हत्या का दोष है। अब ये भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण यदुवंशी अखिलेश यादव के साथ मिलकर त्रेतायुग में हुयी ब्राह्मण हत्या का बदला अयोध्या अधिपति से लेना चाहते हों। लेकिन ये परिकल्पना इसलिए ठीक नहीं जान पड़ती क्योकि यदुवंशी अखिलेश यादव राजा रामचंद्र पर निशाना साधने के लिए एक ब्राह्मण तुलसीदास दुबे के कंधे का ही उपयोग कर रहे हैं। आखिर ब्राह्मण राजा रामचंद्र से बदला लेने के लिए अपने पुरखे पुरनिआ की छीछालेदर क्यों करवाएंगे। एक और सम्भाव्य परिकल्पना ये है कि अखिलेश यादव ‘पापा गुड़ रह गए बेटा चीनी हो गया’ वाली कहावत की तर्ज़ पर एक तीर से दो शिकार करना चाहते हों। इस परिकल्पना का आधार द्वापरयुग में ब्राह्मण सुदामा द्वारा यदुवंशी श्री कृष्ण के साथ किया हुआ वो धोखा है जिसमे सुदामा कृष्ण के हिस्से के चावल चबा लिए थे और पूछने पर दांत किटकिटाने का बहाना किया था। अपने वंशज के साथ हुआ ये धोखा शायद अखिलेश यादव नहीं भूले हैं और सैफई वालों की राजा रामचंद्र से नेताजी स्वर्गीय श्री मुलायम सिंह यादव के ज़माने से अदावत तो है ही। तो हो सकता है कि रामचरितमानस की छीछालेदर करके अखिलेश एक साथ ब्राह्मणों और राजा रामचंद्र दोनों से बदला निकलना चाहते हैं। आखिर अखिलेश के ऑस्ट्रेलिया में पढ़ने का फायदा ही क्या अगर वो अपने देहाती पिताजी से ज्यादा मंद अक्ल न हों। माफ़ कीजियेगा कभी कभी मैं इधर उधर निकल जाता हूँ, पिछले वाक्य में अखिलेश यादव जी के साथ लगे विशेषण को मंदअक्ल नहीं अक्लमंद पढियेगा।एक बात जो और हो सकती है वो ये है कि अखिलेश को शंका होगी कि उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री उनके पिताजी द्वारा रामभक्तों पर चलवाई गयी गोलियों का बदला लेने के लिए हों सकता है उनको अगले वर्ष प्रस्तावित भव्य राम मंदिर के उद्घाटन में न न्योता दें। इसलिए अखिलेश पहले से ही राजा रामचंद्र और तुलसीदास को निशाना बना कर भारतीय शादियों के फूफा बन ले रहे हैं। मुझको व्यक्तिगत तौर पर लगता है महंत जी ऐसा नहीं करेंगे और राम मंदिर के उद्घाटन का न्योता सैफई जरूर जायेगा।
श्रीराम दरबार से ही सम्पूर्ण होती है अयोध्या
अब आते हैं स्वामी प्रसाद मौर्या पर जिनका ये पूरा बवंडर खड़ा किया है। स्वामी प्रसाद मौर्य खुद अपने आप को मौर्यवंश से जोड़ते हैं जिसकी स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्या ने ब्राह्मण चाणक्य की बुद्धि कौशल्य की मदद से की थी। कुल मिलाकर मौर्य वंश की कहानी में ब्राह्मण की बड़ी महती भूमिका है और फिर भी मौर्य साहब ब्राह्मण को ही गरिआ भी रहे हैं। अरे भई, जैसा कि विदुषी करीना कपूर जी ने कभी कहा था कि किसी को कोई पिक्चर नहीं पसंद तो मत देखने जाओ उसी प्रकार मौर्य साहब को भी रामचरितमानस नहीं पसंद तो न पढ़ते। कभी कभी तो मुझको लगता है ब्राह्मण की हालत सब्जियों में आलू वाली हो गयी है। जैसे कई रसेदार सब्जियों में आलू पड़ता है लेकिन सब्ज़ी कही जाती है गोभी की, मटर की, परवल की। ठीक उसी प्रकार हर सफल आदमी की कहानी में ब्राह्मण होता तो बड़ी भूमिका में है लेकिन कोई ब्राह्मण को गिनती में ही नहीं लेता। क्या रावण न होता तो राम को कोई पूछता, चाणक्य के बिना चन्द्रगुप्त मौर्या कोदो बो रहे होते और ब्राह्मण संदीपन न होते तो कृष्ण भैंस चरा रहे होते। चलिए थोड़ी देर के लिए तुलसीबाबा को गाली खाते बर्दाश्त कर लिया जाता। वैसे भी बनारसी आदमी गाली का बुरा भी कहाँ मानता है लेकिन मामला गंभीर तब हों जाता है जब यदुवंशी और मौर्यवंशी खुद को शूद्र भी बताते हैं और गरिआते ब्राह्मण को हैं जबकि असली शूद्र बेचारा ब्राह्मण दिखाई देता है।
खुद को शूद्र स्थापित करके ब्राह्मण को गरिआने से वही बात याद आती है कि ‘जबरा मरबो करे और रोवहु न दे’। इतिहास में एक परशुराम बाबा का अपवाद छोड़ दिया जाये तो ब्राह्मणों पर अत्याचार का हज़ारों वर्षों का इतिहास है। परशुराम बाबा भी अपवाद इसलिए हैं कहे की उनकी मम्मी क्षत्रिय थीं तो थोड़ा खून गरम रहा होगा। ऐसा भी सुनने में आता है कि उनकी मम्मी सशक्त आधुनिक महिला थीं और बिना उनके पिताजी महर्षि जमदग्नि को सूचित किये जिधर मन किया उधर निकल जाती थीं। इसके आलावा परशुराम बाबा की गर्लफ्रेंड और बाद में उनकी वाइफ हुईं श्रीमती लोपामुद्रा भी क्षत्रिय कुल से थीं तो ननिहाल और ससुराल के हिसाब से तो परसुराम बाबा तीन चौथाई क्षत्रिय हो लिए इसलिए वो भयानक अपवाद हैं इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। उनके अलावा बाकी ब्राह्मणों को इतिहास में देखिये, उनके साथ इस जालिम ज़माने ने क्या किया।
पहिले सतयुगी वशिष्ठ बाबा को देखते हैं। राजा वसुमित्र सेना सहित आश्रम में रुके, खाये पिए मौज किये और चलते समय नंदिनी गाय भी बाँध लेना चाहते थे। बताइये भला, ये कहाँ की शराफत है। वो तो वशिष्ठ बाबा के पास मिलिट्री कमांडो ट्रेनिंग थी इसलिए आश्रम लुटने से बच गया नहीं तो ब्राह्मण भूखों मर जाते। इसके बाद त्रेतायुग में रावण को ही लीजिये। राम चाहते तो हाथ पैर तोड़ कर भी छोड़ सकते थे। आखिर रावण ने सीताजी को इज्जत से पूरा मुग़ल गार्डन टाइप अशोक वाटिका में रखवाया था और साथ में कमांडो ट्रेनिंग पायी त्रिजटा को सिक्योरिटी के लिए भी रखा था। किडनैप करने के बाद कौन किसी का इतना ध्यान रखता है। राम रावण का पूरा कुल वंश नाश कर दिए और राम को हथियार चलाने की ट्रेनिंग देने वाला कौन? वही राजा वसुमित्र जो बाद में ऋषि विश्वामित्र हों गए। हमको पूरा संदेह है कि विश्वामित्र ऋषि बनने के लिए घूस दिए होंगे या पैरवी लगाए होंगे। आखिर वशिष्ठ बाबा ने उनको कभी ब्रह्मर्षि नहीं माना। क्षत्रियों की इन्ही करतूतों के कारण कहा जाता है कि सड़ा सरपत (एक प्रकार कि घास जिसके तीखे किनारे शरीर के जिस हिस्से के संपर्क में आते हैं उसको चीर देते हैं) और मरा राजपूत से भी सावधान रहना चाहिए।विश्वामित्र वशिष्ठ बाबा से नहीं निपट पाए तो उसका बदला राम तो ट्रेनिंग दे कर रावण से ले लिए। त्रेतायुग से निकल कर द्वापर के कुरुक्षेत्र के मैदान में आइये। माना द्रोणाचार्य दुर्योधन के साथ थे लेकिन अर्जुन के गुरु भी तो थे तो क्या अर्जुन अपने साले धृष्ट्द्युम्न को रोक नहीं सकते थे कि गुरूजी की हत्या न करो। क्या यदुवंशी कृष्ण ने ब्राह्मण द्रोण की हत्या का फार्मूला युधिष्ठिर को नहीं दिया। इस प्रकार कुरुक्षेत्र के मैदान में राजपूतों ने षड़यंत्र करके नौकरीपेशा ब्राह्मण को रास्ते से हटा दिया। आगे चलते हैं और कलियुग में ब्राह्मणों की दशा देखते हैं।
कलियुग का तो उद्भव ही इसीलिए हुआ है ताकि ब्राह्मणों पर खुल कर अत्याचार किया जा सके। अब अखिलेश यादव की करतूत ही देखिये। तुलसी बाबा को मौर्या जी के साथ मिलके लपेट दिए और शूद्र का तमगा लेकर खुद को बेचारा भी बना लिए। ये तो वही बात हुयी कि “रोवै गावै तोरै तान उही के दुनिआ राखै मान”। लेकिन अभी कलियुग का चरम नहीं आया है। ब्राह्मणों के ऊपर हो रहा ये अत्याचार बहिन मायावती से देखा नहीं गया। किसी ज़माने में एक ब्राह्मण ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने ही बहिनजी का सम्मान समाजवादी कौरवों से उसी तरह बचाया था जैसे द्वापर में श्री कृष्ण ने द्रोपदी का सम्मान बचाया था।
आज भी सिर्फ बहिनजी हैं जिनको ब्राह्मणों पर युग युगान्तरों से चले आ रहे अत्याचार दिखे हैं और शोषित वंचितों कि नेत्री होने के नाते बहिनजी ने यदुवंशी और मौर्यवंशी दोनों के शूद्र होने के प्रमाण को न केवल नकार दिया है बल्कि इन दोनों को भारतीय संविधान द्वारा अनुसूचित के विशेषण से विभूषित जातियों को शूद्र जैसे अपमानित करने वाले विशेषण से सम्बोधित करने के लिए दुत्कारा भी है। तुलसी बाबा की आत्मा बहिनजी को बोराभर आशीर्वाद दे रही होगी कि बहिनजी ने ब्राह्मणों को इस कलियुग में यदुवंशी और मौर्यवंशी क्षत्रियों के षड़यंत्र से बचा लिया वरना कुरुक्षेत्र में गुरु द्रोण के साथ जो हुआ वो आज इस कलियुग में दोहरा दिया जाता। बहिनजी अवतारी आत्मा हैं। बहिनजी की जय हो और ब्राह्मणों का सम्मान बचाने के लिए बहिनजी को इस देश के ब्राह्मण भारत रत्न होने का आर्शीवाद देते हैं। शेष जनता को ये सन्देश है कि ऐसी कोई किताब न पढ़ें जिससे आपकी भावनाएं आहत होती हों।