‘तत्वमसि श्वेतकेतु’! यह तुम ही हो श्वेतकेतु जिसे जानना तुम्हारे लिए शेष रह गया। तुमने सारी दुनिया जान और समझ ली मगर तुम्हारे पिता उद्यालक की एक चिंता शेष रह गई कि उनका इतना मेधावी बेटा स्वयं को ही नहीं जानता। ऋषि उद्यालक ने अपने गणित, विज्ञान, ज्योतिष, व्याकरण, भाषा-भूगोल, इतिहास, पुराण, वेद, स्मृति, श्रुतियों के जानकार अपने बेटे श्वेतकेतु को इसी प्रश्न के साथ लौटा दिया; सारा अहंकार चूर हो गया।
श्रीराम दरबार #RamMandirPranPratishtha हम सभी की आँखों में घूम रहा है। कैसी रही होगी वह अयोध्या जहाँ रामलला अपने छोटे-छोटे डग भरकर दौड़ते होंगे। कैसी वह अयोध्या रही होगी कि स्वयं भगवान शिव उनके दर्शन करने मदारी बनकर दौड़ पड़े। श्रीहनुमान जी को साथ में लेकर गए, जब पहली बार अंजनासुत को प्रभु के दर्शन हुए। कभी गायक बनकर अयोध्या घूमते तो कभी साधु बनकर। जब भी मौक़ा मिले तो प्रभु के दर्शन हो जाएँ। भगवान शिव के ग्यारहवें रुद्रावतार कहते हैं कि ‘करोड़ों रावण भी पराक्रम में मेरी बराबरी नहीं कर कर सकते, इसलिए नहीं कि मैं बजरंगबली हूं, अपितु इसलिए कि प्रभु श्रीराम मेरे स्वामी हैं, मुझे उन्हीं से अपरंपार शक्ति प्राप्त होती है’।
“न मे समा रावणकोट्योऽधमाः ।
रामस्य दासोऽहम् अपारविक्रमः ।।”
अयोध्या, जहां श्रीराम ने जन्म लिया, जहाँ वे राजा बने, जहाँ से उन्होंने पिता की आज्ञा स्वरूप वनवास जाना चुना। वे तर्क कर सकते थे मगर उन्होंने वनवास चुना। तर्क और विवाद का कोई अंत नहीं है, जान लेने वाले लोग इसी कारण विवाद या बहस में नहीं पड़ते। ज्ञान और उसकी उपयोगिता भी इसी तरह से दो भिन्न चीजें हुईं, मसलन – आप एक हाथ से मोटरसायकिल चला लेते हैं, आपकी स्मृति बहुत तीक्ष्ण है, आप अरबों की गणना मस्तिष्क में कर लेते हैं मगर उपयोगिता उसकी क्या है? यह उतनी ही है जितनी कोई व्यक्ति कह दे कि वो आपकी गाड़ी का टायर बना देगा, इस हुनर से काम तो बन गया मगर इस से सत्य क्या सध जाता है?
इसी तरह श्रीराम कुछ नहीं जानते थे मगर वे सत्य को जानते थे; सो वे बिना विवाद के वन जाने लगे। श्रीकृष्ण सब जानते थे, मगर उन्होंने विवाद की जगह समाधान चुना; उन्होंने द्वारिका बसा डाली। वे जानते हैं कि वे जब जैसा चाहें वैसा सृजन कर सकते हैं। क्या ये दोनों चाहते तो अपने हिस्से का विवाद जीतना नहीं जानते थे?
“यह देख, गगन मुझमें लय है
यह देख, पवन मुझमें लय है
मुझमें विलीन झंकार सकल
मुझमें लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमें
संहार झूलता है मुझमें“
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मेस्टर एकहार्ट नाम का जर्मनी में एक बड़ा रहस्यवादी दार्शनिक हुआ, उस से जब कोई उलझता तो वह साफ़ शब्दों में कह देता था कि आओ मुझे हरा लेने की इच्छा में मुझसे तर्क करो मगर मेरे कुछ भी साबित करने के तरीक़े एकदम अलग हैं, तुम चिल्लाओगे मगर मैं मौन रहूँगा। तर्कशास्त्री से पूछा गया कि अपना विवाद बताओ, उसने मेस्टर से कहा कि मैंने सुना है तुम्हें भगवान पर बड़ा यक़ीन है सो तुम यह साबित कर के दिखाओ। मगर मेस्टर ने चुनौती स्वीकार करते हुए उससे जो कहा वह उस छिछले तर्कशास्त्री के गले नहीं उतरा। मेस्टर एकहार्ट ने कहा कि हम दोनों विवाद भी कर लेंगे मगर किसी अंत पर नहीं पहुँच सकेंगे; वजह यह है कि हमारे तरीक़े भिन्न हैं। तुम अपने दिमाग़ का इस्तेमाल करते जाओगे और मैं अपने हृदय को खोलता जाऊँगा, मेस्टर ने उसे अपनी आँखों में वो समंदर तलाशने की सलाह दी जिसका कोई अंत न हो। साथ ही तर्कशास्त्री से प्रश्न किया कि अगर उसे यह अनंत दिखता है तो क्या यह बिना ईश्वर के संभव है? क्या बिना ईश्वर के प्रार्थना में बैठे व्यक्ति के आंसू बह सकते हैं? तुम्हें यह सूचना चाहिए कि अकारण क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे भीतर ईश्वर को साबित करने की भी इच्छा दौड़ सकती है? मेस्टर ने उस से अंत में कहा कि तुम मुझे जान सको या नहीं मगर मेरे पास तर्क कुछ भी नहीं है क्योंकि मैं ही तर्क हूँ।
वास्तव में मेस्टर एकहार्ट ने और कुछ नहीं कहा, बस यही कहा कि ‘तत्वमसि श्वेतकेतु’। जिस तरह श्वेतकेतु अपने पिता के समक्ष था उसी तरह वह छिछला तर्कशास्त्री भी एकहार्ट के समक्ष गया था। ज्ञान से लबालब मगर फिर भी अंधकार! सब कुछ जान लेने का घमंड मगर वास्तविक ज्ञान से अनजान! हमने इन तर्कों को कई स्वरूपों में जानने का परिश्रम किया है, जहां राम आए, वहाँ हमने तर्क-वितर्क के प्रवाह को रोक दिया।
यही राम हैं जो आज एक बार फिर जन-जन का आंदोलन बनकर खड़े हुए हैं, सभयता के सूत्र बनकर। जिन परिवारों को सभ्यता की दौड़ ने अपनी सांस्कृतिक चेतना से दूर कर दिया था, राम स्वयं उन तक चलकर जा रहे हैं, यदि आप वे माता-पिता हैं जिन्होंने अपने बच्चों को राम नाम का अर्थ नहीं समझाया, और कहा कि वे पहले सभ्यता का आवरण ओढ़ें, संस्कृति उसके बाद है, उनके लिए यही अवसर है कि वे अपने बच्चों में इस भारतभूमि की सभ्यता को पिरोएँ, उन्हें बताएँ कि कैसे रहे होंगे वे राम जिन्होंने धर्म के लिए पिता की बात तक नहीं मानी, जिन्होंने जंगल का कठिन तप चुना, विरह-वेदना को चुना, रीछ-वानरों की मित्रता की, परम बलशाली होने के बावजूद ऐन मौक़े पर नल-नील की मादद को सर्वश्रेष्ठ माना। यही समय है कि हम अपने आने वाली पीढ़ियों में ज्ञान के इस निवेश को करें। जो डोर टूट गई, उसे फिर बुनें; ताकि दिखावे, भौतिकता की दौड़ में हमारी सभ्यता का पतन होने से बच जाए। ऐसे अवसर हर बार नहीं आते, हम भाग्यशाली हैं जो इस दौर में यह सब होता देख रहे हैं।
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