इतिहास की छोटी लकीरों को बड़ा करने की क़वायद बड़ी लकीरों पर भारी पड़ी है। आज (3 दिसंबर, 2022) डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की जन्म जयंती है और एक लज्जित सी, मूक सी श्रद्धांजलि राजनीतिक वर्ग से आ रही है। उससे भी दुखद यह है कि जहाँ नरेंद्र मोदी जी ने उन्हें उनके जन्मदिन पर स्मरण किया है, वहीं बिहार के डीएनए और बिहारी अस्मिता की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले बिहार के नेताओं को भी अपने राज्य के सबसे बड़े नेता का स्मरण नहीं रहा।
संविधान की स्मृति पर अपनी राजनीति की धार तेज करने वाले जो ‘बाबा साहेब के संविधान’ पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले रहे हैं, उन्हें संविधान समिति के अध्यक्ष राजेंद्र बाबू आज स्मरण नहीं रहे क्योंकि वो भारत की लगभग सबसे वर्ण निरपेक्ष जाति के होने कारण सम्भवतः किसी उपयोगी जाति समीकरण में नहीं बैठते हैं।
बिहार के उप-मुख्यमंत्री को एक बजे दोपहर उनका ध्यान आया और मुख्यमंत्री सम्भवतः वर्तमान राजनैतिक समीकरणों के अनुसार अगड़ा-पिछड़ा गणित जोड़ते उनके ट्वीट की प्रतीक्षा में बैठे थे कि शिखा से चरणों तक समान रूप से जुड़ी ब्रह्मा की काया से जुड़ने वाले वर्ण के राजेंद्र बाबू में कुछ जातीय वोट बढ़ाने की सम्भावना भी है या नहीं।
अब नेता ने स्मरण कर लिया है तो राष्ट्रीय जनता दल को भी स्मरण कर हो ही आएगा ऐसी सम्भावना है और फिर तो नीतीश जी भी उन्हें श्रद्धा पुष्प अर्पित कर सकेंगे। कांग्रेस और राहुल गांधी का ट्विटर उनकी भारत जोड़ो यात्रा से भरा है, और भारतीय जनता पार्टी की ट्विटर समय रेखा चुनावी संवाद से लबरेज़ है। बिहार भारतीय जनता पार्टी ने अवश्य उन्हें स्मरण किया है, परंतु नेतागण आमतौर पर इस विषय पर मूक ही हैं।
3 दिसम्बर 1884 को राजेंद्र बाबू का जन्म बिहार के सिवान के जीरादेई में हुआ। पटना में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजेंद्र बाबू ने कलकत्ता से उच्च शिक्षा के लिए 1102 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया। 1107 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की।
छात्र जीवन में वे श्री सतीश चंद्र मुखर्जी के द्वारा स्थापित ‘डॉन सोसायटी’ से जुड़े। ये समिति भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था को औपनिवेशिक प्रभाव में लाने के उद्देश्य से बनी भारतीय विश्वविद्यालय कमिशन, 1902, के विरोध में आंदोलन में उतरी थी। बिहार में कॉलेज के बिहारी छात्र समिति की स्थापना में राजेंद्र बाबू की महती भूमिका रही। आगे वे श्री कृष्ण सिंह या श्री बाबू और अनुग्रह नारायण सिन्हा के साथ मिल कर चंपारन के नीलहा विद्रोह और असहयोग आंदोलन से जुड़े। 1911 में उन्होंने क़ानून की स्नातकोत्तर परीक्षा सवर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की। इसी वर्ष उन्होंने औपचारिक रूप से कांग्रेस की सदस्यता ली। कांग्रेस में राजेंद्र बाबू तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
महात्मा गांधी से राजेंद्र बाबू की मुलाक़ात कांग्रेस से जुड़ने के छः वर्ष बाद चंपारन में हुई। चंपारन में सरकार और ब्रिटिश व्यापारियों की मदद से किसानों को नील की खेती करने के लिए तीनकठिया व्यवस्था के अंतर्गत बाध्य किया जा रहा था। नील की खेती ना करने पर कृषकों पर अमानवीय अत्याचार हो रहे थे। तीनकठिया व्यवस्था नील व्यापारियों को कृषकों को अपनी कृषि भूमि में कम से कम तीन कट्ठा क्षेत्र पर नील की खेती करने के लिए बाध्य करने का अधिकार देता था, जिसके लिए वह ब्रिटिश प्रशासन की सहायता ले सकता था।
1776 में अमरीका में स्वतंत्रता आंदोलन के कारण नील की आपूर्ति बाधित होने के कारण यह नियम भारतीय कृषकों पर लागू किया गया। चंपारन क्षेत्र के एक ब्राह्मण भूस्वामी, राजकुमार शुक्ल की ब्रिटिश नील फ़ैक्टरी के प्रबंधक एसी ऐमन से अवैध सिंचाई कर को ले कर ठन गयी थी।
पंडित राजकुमार शुक्ल लगभग 20 बीघा भूमि के स्वामी और स्थानीय महाजन भी थे। एमन ने उनके घर पर आक्रमण करवा के उसे जला भी दिया। उनके विरुद्ध ब्रिटिश अदालत में कई मुक़दमे कर दिए गए। चंपारन में 1916 तक आंदोलन प्रारम्भ हो चुका था, और किसानों पर नील व्यापारियों के अत्याचार पर कानपुर के समाचारपत्र ‘प्रताप’ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने लेख लिखा। दिसम्बर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल कांग्रेस नेताओं की सहायता के लिए पहुँचे।
अपनी पुस्तक चंपारन सत्याग्रह में राजेंद्र बाबू बताते हैं कि निलहे बाबुओं के द्वारा ग्रामीण उत्पीड़न की कथा 1887 में प्रारम्भ हो चुकी थी, और मार्च 1907 में पहली बार इस विषय पर किसानों ने मोतिहारी में ज़िलाधिकारी के पास याचिका दी थी। इस विषय में संगठित विरोध शेख़ गुलाब और शीतल राय के द्वारा अगस्त 1907 में संयोजित किया गया।
1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गांधी जी के द्वारा इस विषय पर बोलने से मना कर देने पर बाबू बृजकिशोर जी ने इस सम्बंध में सरकार के प्रति विज्ञप्ति प्रस्तावित की। शुक्ल जी ने गांधी जी से चंपारन आ कर स्वयं किसानों की अवस्था देखने का अनुरोध किया। गांधी जी के ना जाने पर, राजकुमार जी ने उन्हें फ़रवरी में पुनः पत्र लिख कर अनुरोध किया। गांधी जी ने उन्हें अप्रैल में उनसे कलकत्ता में मिलने को कहा। अंततः गांधी जी अप्रैल में चंपारन पहुँचे।
गांधी को चंपारन के वकील साहब के ख़ाली मकान में ठहराया गया, हालाँकि इसके बाद गांधी वहाँ से चले गए। यह वकील साहब राजेंद्र बाबू थे। गांधी को चंपारन में लगातार हो रहे प्रदर्शनों को देखते हुए गिरफ़्तार कर लिया गया। गांधी का मैजिस्ट्रेट के समक्ष बहुचर्चित प्रकरण हुआ जिसमें उन्होंने जुर्माना भरने से मना कर दिया। चंपारन को गांधी की भारत में पहली विजय माना गया और इसके बाद राजेंद्र बाबू गांधी से जुड़ गए।
व्यक्तिवादी राजनीति से दूर राजेंद्र बाबू कार्यकर्ता के रूप में बिना पद -प्रतिष्ठा के लोभ के कांग्रेस में कार्य करते रहे और तीन बार कांगेस अध्यक्ष रहे। जब भारत की स्वतंत्रता का स्वप्न साकार होता दिख रहा था तो राजेंद्र बाबू भारतीय संविधान के लिए सर्वमान्य अध्यक्ष दिखे। श्री कन्हैयालाल मुंशी लिखते हैं – “वे (कांग्रेस नेता) बड़े आग्रह से तर्क दे रहे हैं कि कांग्रेस का कोई बड़ा नेता इस पद पर होना चाहिए। ऐसे वातावरण में ज़्यादातर यह सोचते हैं कि वह व्यक्ति तो राजेंद्र बाबू ही हो सकते हैं। अनायास ही वे लोगों को अपनी तरफ़ उस समय विशेष रूप से आकर्षित कर पाते हैं, जब संकट का समय होता है।इस आकर्षण का सबसे बड़ा कारण उनकी प्रामाणिक नैतिक शक्ति है।”
(पिलग्रिमेज टू फ़्रीडम, के एम मुंशी) उनके नाम का प्रस्ताव आचार्य कृपलानी ने किया था और अनुमोदन सरदार पटेल ने किया था। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पहला भाषण देते हुए राष्ट्रीयता को परिभाषित करते हुए कहा कि राष्ट्रीयता उस जीवन पद्धति पर निर्भर करती है जिसका पालन हम चिरकाल से करते आ रहे हैं।
राजेंद्र बाबू पर उन्होंने कहा – ‘डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के रूप में हम उस व्यक्ति को पा गए हैं, जो स्वयं सौजन्य की प्रतिमूर्ति है।’ अंत में श्री सच्चिदानंद सिन्हा ने अस्थायी अध्यक्ष के पद से विमुक्त होते हुए, राजेंद्र बाबू के विषय में कहा कि जब मैट्रिक की परीक्षा में राजेंद्र बाबू का प्रथम स्थान आया था तब ही उन्होंने ‘हिंदुस्तान रिव्यू’ में लिखा था कि राजेंद्र प्रसाद सरीखे प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति को कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं है। सरोजिनी नायडू ने कहा कि राजेंद्र बाबू के विषय में कहना तब ही सम्भव हो सकेगा जब मेरे पास सोने की कलम और शहद की स्याही हो। वह आगे कहती हैं – वह हमें संविधान बनाने में सहायता करेंगे, जो हमारी मातृभूमि को स्वतंत्र करा के उसका उचित स्थान दिलाएगा। इस प्रकार 11 दिसम्बर 1946 को राजेंद्र बाबू उस संविधान समिति के अध्यक्ष पद पर विराजमान हुए जिसने स्वतंत्र भारत को वह संविधान दिया जिसकी शपथ आज सत्ता और विपक्ष के नेता लेते हैं।
26 नवम्बर 1949 को संविधान पारित हुआ। 25 नवम्बर 1945 को डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा -‘जो श्रेय मुझे दिया गया वास्तव में उसका अधिकारी मैं नहीं हूँ। उसके अधिकारी बेनेगल नरसिंह राव भी हैं, जो इस संविधान के संवैधानिक परामर्शदाता हैं और जिन्होंने मसौदा समिति के विचारार्थ संविधान का मोटे रूप में मसौदा बनाया।’ राजेंद्र बाबू ने भी बेनेगल नरसिंह राव की संविधान के निर्माण में महती भूमिका पर लिखा है।
संविधान के पारित होने के बाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति के चयन का प्रश्न उठा। संविधान समिति इस सम्बंध में लगभग एकमत थी कि राजेंद्र बाबू ही इस पद के लिए सर्वथा योग्य हैं। सरदार ने इस बारे में नेहरु को अवगत कराया, परंतु नेहरू इस पद पर राजाजी को चाहते थे। नेहरू ने व्यक्तिगत निर्णय को पार्टी पर डालने में विफलता को व्यक्तिगत पराजय के रूप में देखा और अपने इस्तीफ़े की पेशकश कर डाली। स्थिति इतनी बिगड़ गई की महावीर त्यागी ने नया नेता चुनने तक की धमकी नेहरू को दे दी। नेहरू के दबाव में राजेंद्र बाबू ने राजाजी के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को समर्थन देने को हामी भी भर दी। त्यागी जी यह ज़ान कर हत्थे से उखड़ गए और सरदार ने कहा जब दूल्हा ही पालकी छोड़ के भाग गया तो बरात कैसे चढ़ेगी?
कांग्रेस की एक और बैठक हुई, और राजेंद्र बाबू के समर्थन के कारण सरदार पटेल के दबाव में नेहरू को राजेंद्र बाबू को भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार करना ही पड़ा। नेहरू और राजेंद्र बाबू के सम्बंध सामान्य नहीं हुए, और जब नेहरू अपनी सरकार के विरोध को दबाने के लिए संविधान के प्रथम संशोधन को ले कर आए तो पुनः उनके मध्य मतभेद उभरे, और राजेंद्र बाबू की समझ और धैर्य के कारण ही सार्वजनिक नहीं हुए।
राजेंद्र बाबू ने संविधान के प्रथम संशोधन के द्वारा अभिव्यक्ति के अधिकार पर लगाए जाने वाले प्रतिबंध का प्रक्रिया के रूप में उल्लंघन के संदर्भ में भी विरोध किया था क्योंकि नेहरू का वह मंत्रिमंडल संविधान के अंतर्गत चुनावों में जनता द्वारा चयनित नहीं था। नेहरू ने इस मतभेद को सार्वजनिक करने का भय दिखाया और जनता में कांग्रेस के प्रति इस मतभेद से होने वाले अविश्वास की आशंका दिखा कर उन्हें चुप करा दिया।
इसके बाद नेहरू और राजेंद्र बाबू के मध्य मतभेद का दूसरा अवसर सोमनाथ मंदिर पर रहा। 2 मार्च 1951 को नेहरू ने उन्हें अपना नाम सोमनाथ के मंदिर के नव निर्माण से जोड़ने से मना किया। जिस सनातन धर्म के पुनरुत्थान का दोष धर कर नेहरू ने राजेंद्र बाबू को सोमनाथ मंदिर के शिलान्यास में जाने से मना किया था, उसी पुनरुत्थान के नाम पर राजेंद्र बाबू का नाम उनके जन्मदिन पर स्मरण करना आवश्यक भी है। ऐसे भारत माता के सपूत की राजनैतिक वर्ग के द्वारा उपेक्षा और अवहेलना दुखी करने वाली है।