“हमारे लंबे और घटना पूर्ण इतिहास में यह सर्वप्रथम अवसर है, जब उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पश्चिम में काठियावाड़ तथा कच्छ से लेकर पूर्व में कोकनाडा और कामरूप तक यह विशाल देश सबका-सब इस संविधान और एक संघ राज्य के छत्रासीन हुआ है, जिसने इनके बत्तीस करोड़ नर-नारियों के कल्याण का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया है।”
यह उस भाषण का अंश है जो देश के प्रथम राष्ट्रपति द्वारा तब दिया गया जब भारत संविधानवाद की ओर पहला कदम रख रहा था। आज भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की आज 138वीं जयंती है। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के पहले राष्ट्रपति को याद करते हुए राष्ट्र की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करते हुए लिखा, ‘‘डॉ राजेंद्र प्रसाद जी को उनकी जयंती पर याद करता हूँ। एक महान नेता, जो साहस और विद्वतापूर्ण उत्साह के प्रतीक थे। वह भारत की संस्कृति से मजबूती से जुड़े थे और भारत के विकास के लिए एक भविष्यवादी दृष्टि भी रखते थे।’’
वर्ष 1884 में बिहार में जन्मे राजेंद्र प्रसाद एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और महात्मा गांधी के करीबी सहयोगी थे। वे एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो पूर्ण कार्यकाल की सेवा की। आज उनके जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं पर बात की जाए।
यह बात शायद ही लोग जानते हों कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और प्रथम राष्ट्रपति के मध्य संबंध हमेशा मधुर नहीं रहे। इसकी वजह थी दोनों के बीच का वैचारिक मतभेद! दोनों हस्तियों के मध्य यह मतभेद एक ही दिन में विकसित नहीं हुए। आजादी की लड़ाई के पूर्व से चल रहे ये वैचारिक मतभेद आजादी के बाद भी बने रहे।
शुरुआत राष्ट्रपति चुनाव से हुई, जहाँ नेहरू राजेंद्र बाबू के खिलाफ थे और उन्हें राष्ट्रपति पद पर नहीं चाहते थे पर सरदार पटेल के समर्थन से राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति बने। पर शायद नेहरू के मन की खटास बनी रही। इन मतभेदों के पीछे कई कारणों को देखा जा सकता है लेकिन मूल में एक कारण छुपा था। कुलीन वर्ग से संबंध रखने वाले ‘चाचा’ नेहरू विचारों से विदेशी ही रहे। वे कपड़े भी विदेशी ही पहनना पसंद करते थे और जैसा कि हम जानते ही हैं, उनकी मित्र मंडली में भी तमाम विदेशी नाम ही मौजूद थे।
शायद यही कारण था कि नेहरू के मन में बिहार की साधारण सी पृष्ठभूमि वाले राजेंद्र बाबू के प्रति हीन भावना झलकती थी। नेहरू पश्चिमी सोच को पहनते थे और राजेंद्र बाबू बिहार की ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले नेता थे। साधारण पृष्ठभूमि से आने के बाद भी राजेंद्र बाबू अच्छे शिक्षित नेता, वकील और कुशल प्रशासक भी थे।
नेहरू ने जब सोमनाथ मंदिर से किया किनारा
वर्ष 1951 में गुजरात में सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन हुआ। जहां एक ओर मंदिर बनवाने में केएम मुंशी और सरदार पटेल का सहयोग रहा, वहीं पंडित नेहरू ने इसे ‘हिंदू पुनरुत्थान’ का प्रयास बता कर उससे किनारा कर लिया। डॉ प्रसाद को जब इस उद्घाटन का न्योता आया तो नेहरू ने उन्हें पत्र भेजकर वहां न जाने की सलाह दी पर राजेंद्र प्रसाद ने स्पष्ट कर दिया था कि वह मंदिर के उद्घाटन के लिए अवश्य जाएंगे।
राजेंद्र प्रसाद और पंडित नेहरू की भी सिर्फ मंदिरों को लेकर ही मतभेद नहीं रहा बल्कि हिंदू कोड बिल पर भी दोनों के विचार अलग थे।
हिन्दू कोड बिल पर तकरार
हिन्दू कोड बिल को लेकर पंडित नेहरू का मानना था कि इस कानून से हिंदुओं का पारिवारिक जीवन व्यवस्थित होगा पर डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का मानना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को इतने बड़े स्तर पर प्रभावित करने वाला कानून नहीं लाया जाना चाहिए।
हिन्दू छवि का विरोध?
वरिष्ठ पत्रकार दुर्गादास लिखते हैं कि जवाहर लाल नेहरू की नज़र में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद आधुनिक भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। इसलिए उनकी विदेश यात्राओं के प्रस्ताव वे लटकाते रहते थे। वहीं, एक बार जब डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम पुजारियों के पैर छू लिए तो पंडित नेहरू नाराज़ हो गए और इस पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से राजेंद्र प्रसाद के ख़िलाफ़ अपना विरोध भी जताया।
नेहरू ने कहा कि भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने पंडित नेहरू की आपत्ति पर प्रतिक्रिया तक नहीं दी।
पटेल के अंतिम संस्कार में जाने पर रोक
यहाँ तक कि राष्ट्रपति के रूप में डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में मुंबई जाने पर भी पंडित नेहरू को आपत्ति थी। तत्कालीन केंद्र सरकार में मंत्री रहे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी अपनी किताब ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम’ में बताते हैं, “जब सरदार का बंबई में देहांत हुआ, उस वक्त जवाहरलाल ने अपने मंत्रियों और अधिकारियों को निर्देश दिया कि वो दाह-संस्कार में शामिल होने के लिए न जाएं।”
जवाहरलाल ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को भी कहा कि वो बंबई न जाएं, ये ऐसा विचित्र आग्रह था, जिसे राजेंद्र प्रसाद स्वीकार नहीं कर सके।
इस घटना पर वरिष्ठ पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब ‘इंडिया-फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में लिखा; नेहरू का तर्क था कि राष्ट्र के मुखिया को एक मंत्री के अंतिम संस्कार में भाग नहीं लेना चाहिए, ये एक गलत नजीर होगी। राजेंद्र प्रसाद को लगा कि नेहरू ऐसा कर के सरदार पटेल के कद को ओछा करने की कोशिश कर रहे हैं।
दूसरे कार्यकाल पर भी अड़ंगा
दुर्गादास के अनुसार; प्रसाद के दूसरे कार्यकाल को रोकने के लिए पंडित नेहरू ने दक्षिण भारत के कुछ मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की और निर्देश दिया कि प्रधानमंत्री चूंकि उत्तर भारत से हैं, इसलिए राष्ट्रपति दक्षिण से होना चाहिए। हालाँकि, इन मुख्यमंत्रियों ने क्षेत्रीयता के आधार पर चयन में कोई रुचि नहीं दिखाई और राजेंद्र प्रसाद को दोबारा चुने जाने का पक्ष लिया।
हिंदी पर मतभेद
मुख्यमंत्रियों की सभा को राष्ट्रपति ने सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे स्वीकार किया लेकिन केंद्र में नेहरू सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया।
12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहने के बाद जब राजेंद्र प्रसाद पटना जाकर रहने लगे, तब नेहरू ने उनके लिए एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की थी। (पूर्व राज्यसभा सांसद रवींद्र सिन्हा की पुस्तक बेलाग लपेट में उल्लेखित)
कुछ लोगों का मानना है कि आज के दौर में ही सिर्फ़ राजनीति परिवारवाद से ग्रसित है, लेकिन यह राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता थे जिन पर कभी परिवारवाद का लेश मात्र भी समर्थन नहीं किया। हम उस समय की बात कर रहे हैं जब समानांतर राजनीति में नेहरू जैसे राजनेता सिर्फ़ परिवारवाद की राजनीति में लिप्त थे। इंदिरा गाँधी, विजय लक्ष्मी पंडित इसका ही उदाहरण है।
पंडित नेहरू राजेंद्र बाबू के इंटेल्लेक्ट के कारण हीन भावना से ग्रसित थे?
प्रश्न यह उठता है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को लेकर पंडित नेहरू में इस कदर असहिष्णुता क्यों थी? खुद इतने बड़े विद्वान रहते हुए पंडित नेहरू देश के राष्ट्रपति के साथ ऐसा आचरण क्यों करते थे? वह भी एक ऐसे व्यक्ति के साथ जो न केवल देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन थे बल्कि उनके साथ कई वर्षों से आजादी की लड़ाई, संविधान सभा और प्रकल्पों में उनका साथ दिया।
शायद पंडित जी का आचरण अपने आस-पास रहे सभी बुद्धिजीवियों के साथ ऐसा ही था, खासकर ऐसे बुद्धिजीवियों के साथ जो भारतीय दर्शन के अधिक करीब थे। कई विशेषज्ञों के अनुसार पंडित नेहरू का ऐसा व्यवहार केवल डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ ही नहीं बल्कि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सरदार पटेल, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और केएम मुंशी के साथ भी ऐसा ही था और इसके पीछे कहीं न कहीं उनके भीतर की हीन भावना जिम्मेदार थी।