राजस्थान के जोधपुर में 4 मार्च, 1929 को जन्मे कोमल कोठारी को दुनिया के सामने राजस्थान की लोककलाओं को पहचान दिलाने का श्रेय दिया जाता है। लोककलाएं सांस्कृतिक इतिहास को सहेजने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। इन्हीं लोककलाओं की जीवंत रखने के लिए कोमल कोठारी ने करीब 40 वर्षों तक संघर्ष किया। कोठारी जी की मेहनत का ही परिणाम था कि वर्ष 1963 में पहली बार मंगणियार कलाकारों का दल राजधानी दिल्ली में सफल प्रस्तुति देकर आया था।
कोमल कोठारी का जन्म एक राष्ट्रवादी परिवार में हुआ था। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वर्ष 1953 से उन्होंने अपने दोस्त और महान कहानीकार विजयदान देथा के साथ प्रेरणा नामक पत्रिका निकालना शुरु किया। प्रेरणा के तहत उनका उद्देश्य प्रत्येक माह एक लोकगीत की खोज कर उसको लिपिबद्ध करना था। कोमल कोठारी न सिर्फ संगीत प्रेमी रहे बल्कि प्रकृति और संस्कृति से जुड़ाव ने उन्हें इसे सहेजने की ओर प्रेरित किया।
समय के साथ कोठारी जी राजस्थान की मिट्टी में बसे संगीत में बंधते गए। उन्होंने पाया कि इन लोकगीतों में जीवन के हर पहलू की कहानी है। दैनिक जीवन से लेकर आध्यात्मिकता को लोककलाओं में कथा, लघुकथा और गीतों के जरिए पिरोया गया है। वर्ष 1958 तक कोठारीजी विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति की झलक देख चुके थे। ऐसे में उन्होंने राजस्थान संगीत नाटक अकादमी में कार्य करना शुरू किया। लोकगीतों के प्रति वे इस प्रकार जूनूनी रहे कि राजस्थान के मुश्किल से मुश्किल क्षेत्र में जाकर लोकगीतों, लोककथाओं का संकलन करने लगे। वर्ष 1959-1960 के दौरान उन्होंने कई बार जैसलमेर में लांगा और मांगणियार गायकों से मुलाकात की। हालाँकि यह लोक कलाकार रिकॉर्डिंग को लेकर सहज नहीं थे।
एक बार तो मांगणियार अतंर खां की रिकॉर्डिंग करने गए जो उन्हें लगातार संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। कोठारी जी ने उन्हें जैसे तैसे समझाकर रिकॉर्डिंग प्रारंभ की तो अंतर खां ने मौका देखते ही वहां से दौड़ लगा दी। कोठारी जी उनके पीछे-पीछे भागे और पूछा कि क्या हुआ वो भागे क्यों? तो अंतर खां ने कहा, “इस मशीन में मेरी आवाज कैद हो जाएगी और मैं फिर कभी नहीं गा संकूगा।”
कोठारी जी को ऐसी कई मुश्किलों को सामना करना पड़ा पर आखिरकार उन्हें लोककला को संरक्षण देने का महत्व बताने के बाद 1962 में उन्होंने पहली बार मांगणियार लोक कला की रिकॉर्डिंग की। प्रत्येक रिकॉर्डिंग के लिए वो कलाकार को चार आने प्रति गीत भी अदा करते थे।
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मांगणियार और अन्य लोक कलाओं को सहेजने के साथ ही कोठारी जी ने इनको प्रोत्साहित भी किया ताकि वे अपनी कला का विस्तार देश-विदेश में कर सके। इसी का परिणाम था कि 1963 में पहली बार मंगणियार कलाकारों का कोई दल दिल्ली गया और वहाँ जाकर स्टेज पर अपनी सफल प्रस्तुति दी थी। कोमल कोठारी जीवन के पहलूओं को दर्शाने वाले लोकगीतों को नई पहचान दिलाना चाहते थे। वर्ष 1967 में इन कलाकारों के साथ उनकी स्वीडन की यात्रा के बाद कला की प्रसिद्धि इस तेज़ी से फैली कि आज राजस्थान में वाकस की ओर अग्रसर पर्यटन की लोक संगीत के बिना कल्पना भी संभव नहीं है।
कोमल कोठारी जी ने पेरिस में रह रहे भारतीय संगीतविद देबेन भट्टाचार्य से मुलाकात के बाद संगीत को रिकॉर्ड करने का निर्णय किया। उनका मानना था कि इस कला को सहेजना आवश्यक है। इसी के तहत उनके द्वारा वर्ष 1964 में रूपायन नामक संस्था की स्थापना की गई। कोमल कोठारी ने इन लोककलाओं की प्रासंगिकता बनाए रखने एवं आने वाली पीढ़ियों से इनका परिचय करवाने के लिए अरणा-झरणा मरुधर संग्रहालय (जोधपुर) की स्थापना की थी। हालाँकि, वर्ष 2004 में उनके निधन के पश्चात इसका संचालन उनके बेटे कुलदीप कोठारी द्वारा किया जा रहा है।
इस संग्रहालय में राजस्थान के जीवन, पर्यावरण, प्रदर्शकारी कलाओं की झांकियां विद्यमान है। लोकवाद्यों को संग्रह, कठपूतली का प्रदर्शन एवं झाडुंओं का संग्रह यहाँ की विशेषता है। कोठारी जी द्वारा लोक कलाओं की करीब 25 हजार घंटे की लोककलाओं एवं कलाकारों के साक्षात्कारों की रिकॉर्ड़िंग और लिपियां यहाँ संरक्षित की गई है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की कोठारी जी ने संग्रहालय में राजस्थान को ही बसा दिया था। बोरुंदा में रहते हुए कोठारी जी ने 20 हजार कथाएं, 17 हजार गीत और 12 हजार लोकोक्तियों को संग्रहीत किया था।
लोकगीतों के साथ ही कोठारी जी ने अपने संग्राहलय में आभूषणों, लोककथाओं, महाकाव्यों, लोक देवताओं से जुड़ी लिपियां सरंक्षित की है। उनका शोध आने वाले वर्षों में भी राजस्थान के लोक जीवन को जीवंत रखेगा। वह ऐसे व्यक्ति रहे जिन्होंने दुनिया के सामने राजस्थान की लोक कला और कलाकारों को एक मंच प्रदान किया।
लोकसंगीत में उनकी प्रणाली सबसे अलग थी। उनका कहना था कि राजस्थान की औरतें गाती हैं तो उसमें भी चार सुर हैं और बंगाल की औरतें गाती हैं तो उसमें भी चार सुर हैं। ऐसे में उनका मानना था कि लोकआख्यानों में ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका स्वरूप अखिल भारतीय एवं अखिल वैश्विक न हो।
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कोमल कोठारी ने औपनिविशिक काल के बाद लोक कलाओं को पहचान दिलाने की दिशा में काम किया। कई पुस्तकें लिखी, शोध किया एवं वाचिक पद्धित से अपने ज्ञान को अन्य लोगों में प्रसारित भी किया। जनजातियों का उनका अध्ययन उल्लेखनीय है। भील, जोगी, कालबेलिया और गाडोलिया लुहार जैसी घूंमतू जनजातियों के साथ उन्होंने काम किया। सिंधी सारंगी को लुप्त होने से बचाने के लिए उन्होंने 80 के दशक में इसकी फलौदी क्षेत्र में इसका निर्माण करने वाली व्यक्ति की खोज की और सारंगिया बनवाकर लंगाओं में बंटवाई।
लोकगीतों में हवा, पानी, वर्षा, कृषि और जीवन के साथ ही परमेश्वर के गीतों की रिकॉर्डिंग के साथ ही कोमल कोठारी द्वारा किया गया इनका सरंक्षण कला के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान है। अपने अंतिम समय में कैंसर से जूझते हुए उन्होंने वर्ष 2004 में दुनिया को अलविदा कह दिया था। वर्ष 2004 में ही भारत सरकार द्वारा उन्हें मरणोपरांत पद्मभूषण एवं राजस्थान सरकार ने वर्ष 2012 में राजस्थान रत्न से सम्मानित किया था।