राजस्थान में जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सबसे अधिक ताल सचिन पायलट ठोक रहे हैं। अजमेर से निकली उनकी जन संघर्ष यात्रा का जयपुर में समापन हो गया। समापन कार्यक्रम में भी उन्होंने अपनी तीनों मांगे याद दिलाते हुए गहलोत सरकार से भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है। वे पिछले कुछ माह से लगातार भ्रष्टाचार और पेपर लीक मामले को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।
पायलट का यह रवैया पहले पार्टी विरोधी माना जा रहा था। यह लग रहा था कि पद न मिलने से खुश सचिन पार्टी के विपक्ष में उतर आए हैं। हालांकि पायलट ने अपनी सधी हुई रणनीतियों से यह संदेश दिया है कि वे पार्टी विरोधी नहीं है और जनता के मुद्दों पर लड़ रहे हैं। कॉन्ग्रेस के साथ ही उन्होंने भाजपा का विरोध किया है और उनके खिलाफ भ्रष्टाचार की मांग भी की है। ऐसे में दल-बदल के आरोप उन पर काम नहीं कर रहे हैं।
इन सबके बावजूद उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री उनके नहीं सुन रहे हैं, अलाकमान उनकी नहीं सुन रहा है तो फिर पायलट की सुन कौन रहा है? सचिन पायलट की दो लोग सुन रहे हैं। एक तो बीजेपी नेता जिनको यह भ्रम है कि पायलट उनका काम आसान कर रहे हैं। दूसरा पक्ष जनता का है जो पायलट को अपने लिए लड़ते देख रहे हैं। अब सवाल यह है कि चुनावी रणनीति में यह स्थिति किसको फायदा पहुँचाएगी और किस को नुकसान।
कर्नाटक में हुए राजनीतिक बदलाव एवं वहां की रणनीतियों को देखते हुए लग रहा है कि कॉन्ग्रेस पायलट के कथित विद्रोह को अपने पक्ष में देख रही है। शायद यही कारण है कि हाईकमान की ओर से पायलट के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया गया है। आखिर सचिन पायलट वह मुद्दे उठा रहे हैं जिन पर विपक्ष को अपनी लड़ाई लड़नी थी।
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अशोक गहलोत के कार्यकाल में भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था जैसे गंभीर मुद्दे सामने आए हैं। भाजपा के पास भरपूर मौका है कि वो प्रदेश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले, भ्रष्टाचार पर कार्रवाई की मांग करे, कानून व्यवस्था पर प्रश्न करे और जनता को एकजुट करे। विडंबना यह है कि बीजेपी राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करने में विफल साबित हो रही है। हिमाचल प्रदेश में भी इस आकलन की कमी सामने आई थी और शायद कर्नाटक में भी। स्थानीय राजनेताओं कि निष्क्रियता पार्टी को वोट प्रतिशत में पीछे धकेलती नजर आ रही है।
जयपुर से अजमेर की यात्रा में पायलट ने गुर्जर वोटों को एक करने की कोशिश की है। साथ ही युवा मतदाताओं का भी उनको साथ प्राप्त है। इस स्थिति में अगर वो पार्टी से अलग भी होते हैं तो वो अपने वोट लेकर जाएंगे पर इससे कॉन्ग्रेस से अधिक बीजेपी को नुकसान होगा। उसी प्रकार जैसे कर्नाटक में जेडीएस के वोट कॉन्ग्रेस को जाने से हुआ है।
प्रदेश बीजेपी दर्शक श्रेणी की तरह व्यवहार कर रही है। पिछले चुनावों को देख कर लग रहा है कि वे भी शीर्ष नेतृत्व के भरोसे बैठे हैं। समस्या यह है कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों के प्रति मतदाताओं की मानसिकता में अंतर होता है। विधानसभा चुनावों में शीर्ष नेतृत्व मात्र वजन बढ़ाने का काम कर सकता है। स्थानीय चुनावों में तो जनता स्थानीय नेता का आकलन अधिक करती है। सरकार के विरुद्ध विपक्ष की सक्रियता ही उसके राजनीतिक अस्तित्व को बचाती है। अब राजस्थान में मुद्दे भी हैं, नेता भी और चुनावी माहौल भी है फिर भी बीजेपी नेताओं का ढ़ीला रवैया कॉन्ग्रेस को फायदा पहुँचा रहा है।
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आम भाजपा समर्थक और वोटर के मन में यह सवाल उठेगा कि सचिन पायलट भ्रष्टाचार को लेकर इतने मुखर हैं तो क्यों नहीं भाजपा सामने आ रही? वसुंधरा राजे की सरकार के खिलाफ सचिन पायलट की जांच की मांग पर कुछ न बोलकर क्या भाजपा यह संदेश नहीं दे रही कि पायलट सही कह रहे हैं? हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में बीजेपी रणनीतिकारों की विफल साबित हो रही नीतियों से लग रहा है कि पार्टी ने राजस्थान के लिए अभी भी मुद्दे और नेता तैयार ही नहीं किए हैं।
यह तो तय है कि आगामी महीने चुनावी ही रहने वाले हैं। अभी अन्य राज्यों में भी चुनाव होना है और इसके उपरांत लोकसभा चुनाव भी है। उत्तर प्रदेश एवं असम को छोड़ दें तो भाजपा के स्थानीय नेता कहीं सक्रिय नजर नहीं आते हैं। जिन मुद्दों पर पार्टी लड़ सकती है वह स्वयं ही कॉन्ग्रेस की झोली में डालती प्रतीत हो रही है। हिमाचल और कर्नाटक से मिले संदेश को राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी कितना लागू कर पाएगी यह जल्द ही सार्वजनिक तैर पर सामने होगा। पर अभी समय है कि पार्टी सत्ता परिवर्तन की लहर का भरोसा छोड़ जमीनी कार्य करना शुरू कर दे अन्यथा सचिन का जन संघर्ष कॉन्ग्रेस नहीं भाजपा का विजयी किला तोड़ सकता है।