राजस्थान हाल के दिनों में एक खास वजह से चर्चा में रहा है। इस बार चर्चा पेपर लीक की खबर के कारण नहीं बल्कि पुलिसकर्मियों के दुर्व्यवहार के कारण है। राजस्थान में पुलवामा के बलिदानियों की विधवाएँ विरोध प्रदर्शन कर रही थीं और राजस्थान सरकार इस विरोध प्रदर्शन को दबाने का प्रयास कर रही थी।
यह सिर्फ इसलिए बुरा नहीं था कि यह घटना बलिदानियों की पत्नियों के साथ हुई। किसी भी नागरिक के विरोध पर ऐसी प्रतिक्रिया को अनुचित माना जाना चाहिए। ऐसा क्यों होना चाहिए? क्योंकि विरोध प्रदर्शन एक संवैधानिक अधिकार तो है ही, साथ ही यह सूचक है कि संविधान नागरिकों के लिए बना है और सरकारों का यह दायित्व है कि वह संविधान में दिए गए नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करे। सरकारें नागरिकों के ही मत से बनती हैं।
जनता ने ही अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया है। इस बात की क्या कोई गारंटी दे सकता है कि विरोध प्रदर्शन करने वाले गहलोत को वोट नहीं देते? वोटर और जनता को अलग नहीं किया जा सकता है। राजस्थान में पेपर लीक पर तो लगभग पूरा प्रदेश ही विरोध जता रहा है तो ऐसे में राजस्थान की गहलोत सरकार को बने रहने का नैतिक अधिकार भी नहीं होना चाहिए। जैसे गलत नीतियों और गलत आदेशों के बावजूद सरकारें अपनी सत्ता चलाने का अधिकार बनाये रखती हैं ऐसे ही लोकतंत्र में विरोध दर्ज करने के जनता के अधिकार की रक्षा सुनिश्चित करना सरकार का कर्तव्य है।
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या पुलिस और प्रशासन इस जनता से निकल कर नहीं आते?
यह सवाल इसलिए है क्योंकि छत्तीसगढ़ में भी विरोध प्रदर्शनों और उनके खिलाफ पुलिस की कार्रवाई को लेकर बवाल मचा हुआ है। पुलिस पर बर्बरतापूर्ण कार्रवाई के आरोप लगे हैं। पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर धुंए के गोले फेंके जाने के वीडियो सामने आ रहे हैं। क्या पुलिस प्रशासन का कार्य छत्तीसगढ़ सरकार अपने अनुसार तय करेगी? जिसकी सत्ता उसकी पुलिस वाली यह परम्परा सभी के लिए ही नुकसानदायक है।
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इन मामलों में ऐसा प्रतीत होता है जैसे सरकार का मामले के समाधान से अधिक मामला न दिखे, इस बात पर फोकस है। अपनी छवि बचाने के लिए ये सरकार जिस पुलिस को आगे करती है, क्या उस सरकार को पुलिस की छवि की चिंता नहीं है?
सरकार की छवि स्वयं बनती है। उसके अपने कार्यों से बनती है। महाराष्ट्र में हजारों की संख्या में किसानों ने अपनी मांगों को लेकर पैदल मार्च शुरू किया था। पहले सरकार ने किसानों से बातचीत कर उनकी समस्या सुनने के लिए अपने मंत्रियों को जिम्मा सौंपा और फिर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने किसानों की सभी मांगे मान ली। प्रश्न यह है कि विरोध प्रदर्शनों के प्रति एक ही लोकतंत्र की छतरी के नीचे अलग-अलग राज्यों का अलग-अलग रवैया क्यों ?
कॉन्ग्रेस शासित राजस्थान नेटबंदी में अव्वल
क्या कांग्रेस शासित राज्यों ने लोकतंत्र की अलग परिभाषा तय कर ली है? भारत में जिस लोकतंत्र में गिरावट की बात कांग्रेस और उसके नेता देश विदेश में कर रहे हैं, क्या उस गिरावट में कांग्रेस अपने राज्य सरकारों का योगदान नहीं मानती? आखिर अगर कांग्रेस भारत को राज्यों से मिलकर बना हुआ संघ मानती है तो इस संघ का लोकतंत्र भी राज्यों से मिलकर नहीं बनेगा।