साल के अंत में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं उनमें एक महत्वपूर्ण राज्य है राजस्थान। राजस्थान के पिछले चार विधानसभा चुनाव का रिकॉर्ड यह है कि सत्ता विरोधी लहर के कारण कोई भी सरकार रिपीट नहीं हुई। इस मिथक को तोड़ने के लिए राजस्थान के मुख्यमंत्री हर वह प्रयास कर रहे हैं जिससे एंटी इंकम्बेंसी को कम किया जा सके।
अब उन्होंने 19 नए जिलों की घोषणा की है। परिणामस्वरूप राजस्थान (Rajasthan) में जिलों की संख्या 33 से बढ़कर 50 हो जाएगी। अपनी सरकार के इस कदम को उचित ठहराने के लिए वे अलग-अलग तर्क दे रहे हैं, जैसे नए जिले की मांग जनता की थी और इससे शासन-प्रशासन भी आसान हो जाएगा।
ये तर्क आम हैं और यह सब जानते हैं लेकिन इस फैसले से गहलोत ने तीन मुख्य समीकरणों को साधने का प्रयास किया है।
उन जिलों से नए जिले बनाएं हैं जिन्हें भाजपा का गढ़ माना जाता है। जोधपुर में ही तीन जिले बनाए गए हैं। जयपुर, पाली, जालोर और सिरोही बीजेपी के गढ़ रहे हैं। गहलोत ने सांचौर को जिला और पाली को संभाग बनाकर भाजपा के वोट में सेंधमारी का प्रयास किया है।
इस फैसले के पीछे दूसरा कारण जो माना गया वह है अपने गुट को मजबूत बनाना। अधिकतर जिले वे हैं जहाँ से उनके कैबिनेट में मंत्री आते हैं। यह उन मंत्रियों के लिए एक तोफहे की तरह देखा जा रहा है।
गजब तो यह है कि पायलट गुट भी इस फैसले का विरोध नहीं कर पा रहा है क्योंकि यह फैसला पायलट गुट के भी कई विधायकों की मांग के अनुकूल है।
राजनीतिक समीकरणों की दृष्टि से कुछ जानकार भले ही इसे मास्टरस्ट्रोक के रूप में देख रहे हैं लेकिन प्रश्न यह है कि लोकतंत्र की दृष्टि से यह कितना उचित है?
यह फैसला तब लिया गया जब कुछ ही महीनों में राजस्थान में विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए गहलोत के पास अंतिम विकल्प के रूप में ये ‘चुनावी पैंतरा’ ही बचा था लेकिन क्या यह फैसला एक नई परंपरा विकसित नहीं करेगा? जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री 4 वर्ष के खराब कार्यकाल के प्रभाव से बचने के लिए अंतिम समय में नए जिलों की घोषणा कर देंगे?
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गहलोत ने दो चार या पांच नहीं सीधे 19 जिले घोषित किए हैं। बताया जा रहा है कि नए जिलों में आने वाले लोगों के सभी डाक्यूमेंट्स बनने में ही लगभग अगले 5 वर्ष लग जाएंगे। नए जिलों में नया प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने के लिए राज्य का कितना राजस्व खर्च होगा, आज यह अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है। फिर इसे ‘रेवड़ी कल्चर’ क्यों न कहा जाए?
गहलोत इसे जनता की मांग बता रहे हैं लेकिन एक तथ्य यह भी है कि पिछले कई वर्षों में ऐसे प्रस्ताव लगभग 60 जगहों से आए थे तो फिर गहलोत ने 60 नए जिले क्यों नहीं बनाए? क्योंकि ऐसा करना राजनीतिक समीकरण में फिट नहीं बैठ पा रहा था?
इसका एक कारण सुगम प्रशासन भी बताया जा रहा है लेकिन वर्तमान राजस्थान सरकार के प्रशासनिक ढांचे की विफलता हर महीने पेपर लीक के रूप में स्पष्ट दिखाई देती है। प्रश्न यह है कि जितना राज्य क्षेत्र गहलोत को शासन के लिए मिला है उस पर वे कितना फोकस कर पाएं हैं?
शायद गहलोत ने तय कर लिया है कि राज्य की anti-incumbency से किसी भी तरीके से बचा जाए लेकिन मूल समस्या तो पार्टी के अंदरूनी प्रबंधन की है। पिछले 5 वर्ष गहलोत ने पायलट से निपटने के लिए गुटबाज़ी में लगा लिए लेकिन अभी तक इस समस्या से पार नहीं पा सके क्योंकि आगामी चुनाव में कांग्रेस पार्टी किसी मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव लड़ने के मूड में नहीं है।
काश गहलोत पार्टी की इस अंदरूनी समस्या से निपटने के लिए नए जिलों की तरह ही ‘जादूगरी’ से ढेर सारे मंत्री और उप-मुख्यमंत्री पद सृजित कर पाते।