भारतीय राजनीतिक दल अलग-अलग विचारधाराओं का समर्थन करते हैं। हालाँकि वर्ष 2014 के बाद से बदली राजनीतिक बयार ने उन्हें कमोबेश एक पक्ष में खड़ा रहने के लिए विवश कर दिया है। अगर इस दौरान कोई अपनी राजनीतिक विरासत के प्रति दृढ़ता से जुड़ा हुआ है तो वो हैं राहुल गांधी और कॉन्ग्रेस के नेता।
कुछ विचारकों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कॉन्ग्रेस के नेताओं ने अपनी विचारधारा को भुला दिया है। हालाँकि कुछ इस बात पर भी सहमत हैं कि कॉन्ग्रेस विचारधारा से जन्मी पार्टी ही नहीं है। विचारधारा का तो पता नहीं पर एक बात पर कॉन्ग्रेस के नेता सहमत होते हैं और वह है सेकुलरिज्म।
आखिर यह शब्द भी तो उनके द्वारा ही संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया था। इसी सेकुलरिज्म को बनाए रखने के लिए राहुल गांधी राजनीतिक विमर्श को ‘भगवा आतंकवाद’ जैसा शब्द देते हैं। उनका मानना होगा कि देश को अगर धर्मनिरपेक्ष बनाना है तो इस्लामी आतंकवाद के साथ ही भगवा आतंकवाद की कल्पना कर लेना ही बैलेंस का आधार होगा।
पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा हिंदू पुनरुत्थान को दमित करने की विरासत को कॉन्ग्रेस ने बहुत पहले अपना ध्येय बना लिया था। कॉन्ग्रेस द्वारा ही राम सेतु पर सुप्रीम कोर्ट में दिए अपने हलफनामे में कहा था कि श्रीराम काल्पनिक हैं और शायद इसी के कारण है कि राजस्थान के अलवर में गहलोत सरकार द्वारा राममंदिर पर बुलडोजर चलाया जाता है।
राजस्थान में गहलोत सरकार के निर्देशों के तहत सिक्यूलरिज्म की रक्षा के नाम पर हिंदू त्योहारों और कार्यक्रमों पर जो रोक पिछले कई वर्षों में लगाई गई है, वो आश्चर्यजनक है। हाल ही में विधानसभा में बोलते हुए भाजपा नेता राजेंद्र राठौड़ ने जानकारी दी कि बाड़मेर में होली के त्योहार के अवसर पर गहलोत सरकार द्वारा धारा 144 लगा दी गई है। यह हिंदुओं के मौलिक अधिकारों पर अतिक्रमण ही नहीं, उनकी भावनाओं पर कुठाराघात भी है।
राठौड़ द्वारा जिस कुठाराघात की ओर ध्यानाकर्षण किया जा रहा है वो प्रदेश में पहली बार नहीं हुआ है। हनुमानजी जयंती, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, महावीर जयंती या होली और दीपावली, हिंदुओं के लगभग सभी त्योहारों पर राजस्थान सरकार द्वारा धारा 144 लगा दी जाती है। करौली में नव-संवत्सर के दौरान हुई हिंसा की यादें आज भी जनता के दिलों में है। पर गहलोत सरकार के पास सांप्रदायिक दंगों को रोकने का एक ही तरीका है कि त्योहार मनाए ही न जाएं।
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धार्मिक तुष्टिकरण का यह सिलसिला नाटकीय तरीके से मात्र हिंदू त्योहारों तक ही सीमित है। क्या गहलोत सरकार यह संदेश देना चाहती है कि हिंदू त्योहार साम्प्रदायिक दंगों को जन्म देते हैं? हिंदू अपने त्योहार क्या केवल इसलिए न मनायें क्योंकि किसी समुदाय विशेष को उससे दिक़्क़त है? यदि ऐसा है तो क्या यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि क़ानून व्यवस्था की हर समस्या का समाधान खोजे? या फिर गहलोत सरकार हिंदुओं से अपनी विरासत, संस्कृति और धर्म को त्याग देने की अपेक्षा रखती है?
भाजपा को फासिस्ट और धर्म के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाने वाले अशोक गहलोत ने कोटा में कट्टरपंथी संगठन पीएफआई की रैली को अनुमति तो दी पर हिंदू संगठनों द्वारा शोभायात्राओं पर बैन लगा देते हैं। क्या यह धर्म आधारित राजनीति का हिस्सा नहीं है?
नुपूर शर्मा का समर्थन करने पर एक दर्जी की हत्या करने वाले आरोपियों के विदेशी आतंकवादी संगठनों से सांठ-गाँठ सामने आने पर भी गहलोत द्वारा उनका संबंध भाजपा से बताना कौनसी राजनीतिक विचारधारा का हिस्सा था? गहलोत सरकार ने अपने कार्यकाल में मुद्दों को सुलझाने के बजाए उनपर पर्दा डालने का काम किया है। पेपर लीक हो तो नेटबंद कर दो, हिंदू त्योहार हों तो धारा 144 लगा दो और कहीं शोभायात्रा निकल रही हो तो उसे बैन कर दो।
धार्मिक तुष्टिकरण से कितना दूर है लॉ एंड ऑर्डर
राजस्थान में इसी वर्ष चुनाव होने हैं। चुनावी मुद्दों में बेरोजगारी और लचर कानूनी व्यवस्था के साथ जो मुद्दा सबसे मुखरता से उठेगा वो हिंदू संप्रदाय के दमन का ही होगा। बीते 4 वर्षों मे अशोक गहलोत को नादिरशाह, औरंगजेब जैसे तमगे हासिल हुए हैं और वह अब भी यह सुनिश्चित करने में लगे हैं कि प्रदेश के लोग होली का त्योहार न मना पाएं क्योंकि इससे साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ने का खतरा है। धार्मिक तुष्टिकरण का सर्वाधिक प्रयोग करने वाले अशोक गहलोत और कॉन्ग्रेस से बस इतना पूछना है कि एक धर्म के प्रति इतनी नफरत वो लाते कहाँ से हैं?