कांग्रेस द्वारा प्रसारित ‘वो खड़ा था’ शीर्षक नाम से एक वीडियो सन्देश ट्विटर पर देखा, जिसमें बार-बार राहुल गाँधी की वो मुद्राएं दिखाई जा रही थीं जहाँ वो खड़े थे। चूँकि जिन मुद्राओं में राहुल गाँधी खड़े दिखाई दे रहे थे वो सभी भूतकाल में हो चुके किसी कार्यक्रम की थीं, इसलिए भूतकाल में हो चुके किसी कार्यक्रम के लिए सहायक क्रिया ‘थे’ का प्रयोग मेरे द्वारा उचित है लेकिन वीडियो में जीवित और राजनीतिक रूप से सक्रिय राहुल गाँधी के लिए सहायक क्रिया ‘था’ का ही प्रयोग किया गया है? ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की क्या मंशा हो सकती है, ये प्रश्न मुझे व्याकुल कर रहा है। कुल मिलाकर ‘वो खड़ा था’ शीर्षक के पीछे के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है, क्योकि इससे कांग्रेस की रणनीति का पता चलता है।
राहुल गाँधी के साथ सहायक क्रिया ‘था’ का उपयोग करने का एक मतलब तो ये हो सकता है कि कांग्रेस ने यह वीडियो सन्देश आने वाली उन पीढ़ियों के लिए बनाया है जो अपने मम्मी पापा से अगर पूछें कि कांग्रेस किस चिड़िया का नाम था तो मम्मी पापा बच्चों को ये वीडियो दिखा सकें जिसका शीर्षक है ‘वो खड़ा था’ और शायद आने वाली पीढ़ियों को कांग्रेस और राहुल गाँधी से सहानुभूति उत्पन्न हो सके। हालाँकि आज के युवा जो कल की पीढ़ी के मम्मी पापा बनेंगे वो जब आज ही राहुल गाँधी के साथ सहानुभूति नहीं दिखा रहे तो कल अपने बच्चों को ये वीडियो क्यों दिखाएंगे, ये भी एक यक्ष प्रश्न है।
राहुल गाँधी की संसदीय अयोग्यता में लोकतंत्र के लिए निहितार्थ
खैर, भविष्य के लिए चिंतित होना कांग्रेस और गाँधी परिवार के लिए कोई अचंभित करने वाली बात नहीं है। गाँधी परिवार ने इस मुल्क पर बादशाहों जैसे राज्य किया है। जैसे पुराने बादशाह और शहंशाह अपने जीते जी ही अपना मकबरा बनवा लेते थे, क्योंकि उनको यकीन होता था कि उनकी नालायक औलादें उनके लिए मकबरा नहीं बनवाएंगी, उसी तरह नेहरू जी ने भी खुद को जीते जी ही अपने ही हाथों से भारत रत्न दिलवा लिया था। मुग़ल बादशाहों की तरह शायद नेहरू जी को भी ये शंका थी कि उनके न रहने पर कांग्रेसी उनको याद रखेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। राहुल गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को, या यूँ कहें कि गाँधी परिवार को ये यकीन हो चला है कि अगर अभी ही राहुल गाँधी के प्रेरणादायी व्यक्तित्व को वीडियो सन्देश और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित करना शुरू नहीं किया गया तो आने वाले भविष्य में कोई नहीं जान पायेगा कि ‘राहुल गाँधी थे’, खड़ा या बैठा होना तो बाद की बात है, क्योकि शायद कांग्रेस ही न रहेगी। अब जब बांस ही नहीं रहेगा तो बांसुरी का क्या काम।
‘वो खड़ा था’ कहने के पीछे एक और भावना हो सकती है, और वो ये कि कॉंग्रेसिये राहुल गाँधी को जीते जी भूतकाल बनाने में लगे हैं। इस मामले में कांग्रेस का पिछले रिकॉर्ड बहुत जबरदस्त रहा है। गाँधी परिवार के बाहर के हर व्यक्ति को कांग्रेस के नेताओं ने भरपूर श्रम करके भूतकाल ही नहीं बल्कि भूत बनाया है। इस परिप्रेक्ष्य में मैं श्री सीताराम केसरी का जिक्र करके राहुल गाँधी से उनकी तुलना नहीं करना चाहता हूँ। राहुल गाँधी को ‘था’ बनाने की संभावना इसलिए भी और ज्यादा बनती है क्योंकि राहुल जी ने जीते जी कांग्रेस को भूतकाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और इसलिए हो सकता है कि कांग्रेस के भीतर ही एक खेमा अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने के लिए राहुल गाँधी को जीते जी भूतकाल बनाने में लगा है। लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि अगर राहुल गाँधी ‘था’ हो जायेंगे तो उनकी जगह कौन लेगा? इस सन्दर्भ में मैं पाठकों को बता दूँ कि अभी कुछ दिनों पहले ही ऐसी एक अफवाह सुनी थी कि कांग्रेस के अंदर बहन प्रियंका गाँधी वाड्रा का खेमा राहुल गाँधी को ठिकाने लगाने में लगा है इसीलिए सूरत वाले मामले में राहुल गाँधी की पैरवी ठीक से नहीं की गयी और बेचारे राहुल जी की संसद सदस्यता चली गयी। अब पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है लेकिन ‘वो खड़ा था’ में जिस प्रकार से जीवित राहुल गाँधी के खड़े होने को भूतकाल प्रदर्शित करने वाली सहायक क्रिया के साथ प्रयोग किया गया है इस प्रकार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
एक पूरक प्रश्न ये भी है कि राहुल गाँधी खड़े ही क्यों थे, बैठे या लेटे क्यों नहीं थे। ये बात तब और गंभीर हो जाती है जब राहुल गाँधी के राजनीतिज्ञ होने पर गौर किया जाये। दुनिया में राजनेता केवल 5 साल में एक बार ही खड़े होते हैं उसके बाद मजाल है कोई उनको खड़ा कर दे। बैठना तो छोड़िये कुछ नेता तो सीधे लेटे ही रहते हैं और कुछ सो भी जाते हैं। सोये हुए राजनेताओं के पोस्टर उनके निर्वाचन क्षेत्र में गुमशुदा के तौर पर चिपके हुए मिलते हैं। आदमी का खड़ा होना कर्म करने या कर्मशील होने से जुड़ा हुआ है और इसलिए खड़े राहुल गाँधी एक डायनामिक एनर्जी देते हो सकते हैं लेकिन ऐसी एनर्जी कभी कभी विनाशकारी भी हो जाती है। इस सन्दर्भ में खड़े बामियान बुद्ध को याद कीजिये जिनको बम मारकर तालिबानियों ने उड़ा दिया। ये तो हुआ खड़े होने के कारण खुद को होने वाली हानि का उदाहरण लेकिन कुछ मामलों में खड़ा होने का मतलब दूसरों के लिए विनाशकारी हो जाता है जैसे महादेव जब जब समाधि से खड़े होते हैं विनाश निश्चित है।
राहुल गाँधी ने सिद्ध किया कि वो पप्पू ही हैं
‘वो खड़ा था’ कर के भविष्य की पीढ़ियों को राहुल गाँधी की क्रियाशीलता का सन्देश देने से ज्यादा बेहतर काम ये होता कि राहुल गाँधी कुछ क्रिया शील होकर दिखाते क्योकि भारतीय लोकतंत्र को उनके क्रियाशील होने की जरूरत हो या न हो कांग्रेस को जरूर है। राहुल गाँधी के भूतपूर्व कारनामे देखकर किसी भी पॉजिटिव सेंस में ‘खड़ा होना’ और राहुल गाँधी एक दूसरे के विपरीतार्थी प्रतीत होते हैं। राहुल गाँधी के खड़े होने पर महान संत श्री अबीर दास का एक दोहा याद आता है जो इस प्रकार है – “खड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे कोई खजूर, संसद की छाया नहीं विजयगति अति दूर”। हो सकता है कि आपको लगे कि ऐसा अबीर दास नाम का कोई संत हुआ ही नहीं या हुआ भी तो उसने ऐसा कुछ कभी नहीं कहा लेकिन उसपर मेरा तर्क ये है कि यदि श्री रोमिला थापर जी से पुछा जायेगा तो अकबर के नवरत्नों में से एक श्री अबीर दास जी के बारे में जरूर बताएंगी। कबीर दास नामक व्यक्ति इन्ही संत अबीर दास के दोहों की पैरोडी किया करता था। जो लोग अबीर दास पर ऊँगली उठा रहे हैं वो सभी मुग़लों के भारत में योगदान को नकारने की कोशिश कर रहे हैं।
वैसे भारतीय संस्कृति में खड़े होने को बहुत अच्छा नहीं माना गया है। खड़ा व्यक्ति तो छोड़िये, खड़े झाड़ू को भी शुभ नहीं माना गया है। देवताओं में ब्रह्मा, विष्णु की नाभि से निकले कमल पर बैठे हैं और विष्णु खुद शेषनाग की शैया पर बैठे हैं। महादेव तो समाधि से खड़े ही तब होते हैं जब बवाल करना हो। बामियान को छोड़ दिया जाये तो बुद्ध बाबा भी समाधि अवस्था में बैठे ही हैं। बामियान में खड़े थे शायद इसीलिए मरा गए। इसलिए राहुल गाँधी का खड़ा होना खुद राहुल गाँधी के लिए और कांग्रेस के लिए बहुत शुभ लक्षण नहीं दिखता। जहाँ तक खड़े होने के पॉजिटिव पक्ष की बात हैं तो खड़ा होना स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है और सारे चौपाये अमूमन खड़े खड़े ही अपनी दिनचर्या के तमाम काम करते हैं, खाने से लेकर गोबर करने तक। चौपायों के साथ भिन्नता बनी रहे और मनुष्य संस्कारी दिखाई दे इसीलिए शायद मनुष्य ने बैठे या लेटे रहने को खड़े रहने पर तरजीह दी है।
खड़े रहने की क्रिया का बहुपक्षीय विश्लेषण करने के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुंचा हूँ कि खड़े रहने के फायदे कम और नुकसान ज्यादा हैं। इसी विश्लेषण को मद्देनज़र रखते हुए राहुल गाँधी से मेरी अपील है कि इस देश को कांग्रेस से अधिक उनकी आवश्यकता है। देशप्रेमी और देशभक्त होने के नाते उनको चाहिए कि कॉंग्रेसिये के बहकावे में न आएं और बैठ जाएं। इन कलमुँहों ने सीताराम केसरी से लेकर नरसिंह राव तक को भूतकाल बना दिया और राहुल गाँधी के साथ भी ये वही करना चाहते हैं। इसलिए राहुल गाँधी को जहाँ जगह मिले वहीं बैठ जाएँ क्योकि संसद में बैठना ही बैठना नहीं कहलाता। सामान्य लोग कहीं भी बैठ लेते हैं। राहुल गाँधी को सामान्य दिखने के लिए बैठ जाना चाहिए।