क्रांतियां, आंदोलन और सामाजिक समस्याएं अधिकतर राजनीतिक डिस्कोर्स का हिस्सा बनकर वोट बैंक पर कब्जा किए जाने के लिए निकाले गए हथियार बन कर रह जाते हैं। गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के नाम पर देश ने आंदोलन भी देखे हैं और आउटरेज भी। सात दशक तक इनके राजनीतिक दुरुपयोग का परिणाम यह है कि आज इन्होंने वोट बैंक बनने से इंकार कर दिया है।
पंडित नेहरू द्वारा ‘इंडिया की खोज’ करने के बाद से अभी तक, मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की बहसों में आदिवासियों को स्थान नहीं मिल पाया तो इसका कारण दलित और अल्पसंख्यकों के तथाकथित विकास को लेकर लगातार हुई बकैती को प्राथमिकता मान लिया जाना था। मुख्यधारा के राजनीतिक दल गरीब और दलित तबके को आगे बढ़ाने और अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार देने के नाम पर राजनीति करने में राजनीतिक दल इतने मशगूल रहे कि आदिवासियों पर राजनीति करना ही भूल गए। लगभग 55 से अधिक वर्षों तक सरकार में बैठी कांग्रेस पार्टी को आदिवासी तब याद आए जब भारतीय जनता पार्टी ने उनमें से एक सदस्य को देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के लिए सामने किया।
इसी का परिणाम है कि राहुल गांधी पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से आदिवासी और वनवासी के बीच के तथाकथित अंतर पर जगह-जगह आख्यान डिलीवर करते नज़र आ रहे हैं। संभवत हर पिछड़े के नाम पर राजनीति करने के बाद राहुल गांधी को अचानक आदिवासी याद आ रहे हैं। शायद इसके पीछे भाजपा द्वारा सर्वोच्च पद के लिए श्रीमती द्रौपदी मूर्मू को आगे किया जाना ही नहीं बल्कि पिछले गुजरात चुनाव में आदिवासियों का भाजपा को मिला समर्थन भी है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी अब आदिवासियों पर राजनीति करना चाहती है। डूबते को तिनके का भी सहारा बड़ा लगता है तो आदिवासी तो समाज का तिनके से मजबूत हिस्सा है।
55 वर्षों तक सत्ता में रहकर कांग्रेस के नए उत्तराधिकारी जब आदिवासियों के विकास और उनको मुख्यधारा से जोड़ने की बात करते हैं तो उन्हें आईना दिखाने का मन करता है। राहुल गांधी को आज संभावनाएं नजर आ रही हैं तो वे कह रहे हैं कि यह देश आदिवासियों का है, वो यहां के मूल निवासी है और यहां के संसाधनों पर आदिवासियों का हक होना चाहिए। कुछ वर्ष पहले इन्हीं संसाधनों पर हक अल्पसंख्यकों का बता दिया जाता था। इसका जवाब तो राहुल गांधी को ही देना चाहिए कि क्या विपक्ष में रहकर उनकी अंतरआत्मा उन्हें अब तक आदिवासियों के लिए काम नहीं करने पर कचोटने लगी है?
यह तो अच्छी बात है कि राहुल गांधी आदिवासियों पर बात कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इस वर्ग से डॉक्टर, इंजीनियर लोग निकलकर बाहर आएं। अगर स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद आदिवासी समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए राजनीति करनी पड़ रही है तो इसका कारण है कि कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों ने इनके लिए विकास आधारित राजनीतिक के बारे में कभी नहीं सोचा।
संविधान सभा में आदिवासी समुदाय की ओर से जयपाल सिंह ने अपने आपको जंगली बताकर आदिवासियों के साथ हुए व्यवहार और परिवर्तन की बात कर घोषणा की थी कि वे पंडित जवाहर लाल नेहरू की बात पर विश्वास करते हैं। उन्होंने कहा था कि मैं आप सभी की बातों पर विश्वास करता हूं कि अब हम एक नया अध्याय शुरू करने जा रहे हैं, स्वतंत्र भारत का एक नया अध्याय जहां अवसर की समानता है, जहां किसी की उपेक्षा नहीं की जाएगी।
पंडित नेहरू में जयपाल सिंह ने अटूट विश्वास दिखाया था। आदिवासियों की ओर से संविधान सभा का हिस्सा बनकर जब वो कह रहे थे कि उन्हें स्वतंत्र भारत में उपेक्षा का सामना नहीं करना पड़ेगा। क्या आज राहुल गांधी यह बात दावे के साथ कह सकते हैं कि जो विश्वास जयपाल सिंह ने दिखाया था उसे पंडित नेहरू और उनके आने वाली हर सरकार ने नहीं तोड़ा? क्या यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि आजादी के बाद भी आदिवासी समाज उपेक्षित ही रहा है?
समस्त समाज का कल्याण और समस्त वर्गों के समान प्रतिनिधित्व की बात कहके सत्ताभोग कर रहे लोगों ने आदिवासियों को अकेला क्यों छोड़ा होगा, इसका जवाब भी राजनीति में ही मिल जाएगा।
आदिवासी वोट बैंक का हिस्सा नहीं रहे तब तक वे जंगलों पर अतिक्रमण करने वालों से अधिक कभी और कुछ प्रतीत भी नहीं हुए। यही कारण है कि इनके अधिकारों के लिए पहला मंत्रालय भी 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा खोला गया।
अगर कांग्रेस सरकार आदिवासियों के प्रति उदासीन रवैया न अपनाती तो नक्सलवादी कभी उनकी जमीन पर पनप कर उनके अधिकारों पर कब्जा नहीं करते। ऊपर से प्रश्न यह है कि नक्सलवादियों को क्रांतिकारी और पीड़ित बता चुकी कांग्रेस पार्टी से किस प्रकार आदिवासियों के हितों की उम्मीद की जा सकती है?
आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल सरकारी निगरानी में किया गया है। उन्हें डॉक्टर बनाने से पहले राहुल गांधी उन्हें उनका मूल स्थान वापस देने के लिए संघर्ष शुरू करें तो शायद वे एक जननायक बनने में सफल हो सके।
आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए राजनीति करने की जरूरत नहीं है बल्कि उनके लिए विकासमूलक राजनीति करने की आवश्यकता है। वनवासी और आदिवासी में अंतर बताने वाले राहुल गांधी से अपेक्षा है कि वे इस बात का धन्यवाद मोदी सरकार को ज्ञापित करें कि सात दशक बाद उन्हें आदिवासी समुदाय के विकास की संभावना याद आ रही है।
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