भारत जोड़ो यात्रा के किसी कार्यक्रम में राहुल गाँधी ने किसी अनजान कार्यकर्ता, जो उनके साथ सेल्फी के फ्रेम में दिखने को उत्सुक था, का हाथ झटक दिया। एकदम चालू कार्यकर्ता था, सेल्फी दिखाकर नेता बनना चाहता था। हो सकता है, राहुल गाँधी को जानता है, ये कहकर कुछ लोगों को धोखा ही देता। राहुल गाँधी ने सही ही किया। अगर राहुल गाँधी ने सेल्फी लेने दी होती और उस कार्यकर्ता ने उस सेल्फी का दुरुपयोग किया होता तो लोग राहुल गाँधी को ही जिम्मेदार ठहराते। राहुल गाँधी ने जो किया उससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं है। हाँ, मुझे वो कार्यकर्ता विशिष्ट दिखा। आखिर कौन होगा वो? क्या करता होगा? मंच पर राहुल गाँधी जैसे बड़े नेता के साथ उसकी उपस्थिति और राहुल गाँधी द्वारा उसका फ़ोन, जिससे वो सेल्फी लेने की कोशिश कर रहा था, वाला हाथ झटकना उस व्यक्ति के बारे में दो बातें स्पष्ट कर देता है। एक, वह व्यक्ति मंच पर आमंत्रित नहीं था। दो, वह व्यक्ति इतना जुगाड़ू था कि जहाँ उसको आमंत्रण नहीं है, वहां भी पहुंच सके।
दोनों ही बातें उसके सामान्य भारतीय होने की तरफ इशारा करती हैं और उसकी यही विशिष्टता मेरा ध्यान उसकी तरफ ले गई। पता नहीं राहुल गाँधी जैसे विशिष्ट भारतीय, उस कार्यकर्ता जैसे सामान्य भारतीयों की जिंदगी के बारे में कितना जानते हैं क्योंकि दोनों प्रकार के भारतीयों में कोई बात समान नहीं होती सिवाय इसके कि दोनों भारतीय हैं। यहाँ महाराष्ट्र के किसान नेता श्री शरद जोशी को उद्धृत किया जा सकता है जिनकी शब्दावली के अनुसार वो सेल्फी लेने वाला, जिसका हाथ झटक दिया गया, भारतीय था जबकि राहुल गाँधी इंडियन हैं।
भारतीय को हाथ झटके जाने का मलाल नहीं होता, जैसे उस कार्यकर्ता को नहीं हुआ होगा। उसको फिर राहुल गाँधी जैसा कोई मिलेगा तो वो फिर वही करेगा जो उसने राहुल गाँधी के साथ करने की कोशिश की। वो आदी है ऐसी बातों का, अपना हाथ झटके जाने का, अपमान सहने का। इसीलिए उक्त घटना में जिसका हाथ झटका गया, वो खबर नहीं है क्योंकि खबर बनाने वाले को पता है कि उसके साथ जो हुआ वो सामान्य भारतीय के लिए कोई विशिष्ट घटना नहीं है। विशिष्ट घटना, राहुल गाँधी का हाथ झटकना या प्रियंका गाँधी का कुहनी मारना है क्योकि विशिष्ट भारतीय, जिन्हे इंडियन कहा जाना चाहिए, हाथ झटकने जैसे काम कभी-कभी करते हैं या यूँ कहें कि जब उनको भारतीयों के बीच जाना पड़ता है तो वो ऐसी हरकतें करते हैं। भारत है ही इतना बद्तमीज। भाजपा को ऐसी घटना में अवसर भले दिखता हो लेकिन आम भारतीय राहुल गाँधी से हाथ झटकवाने का बुरा मानता हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। खैर, इस बारे में बात यहीं रोकते हैं और चलते हैं अपने मुद्दे पर।
राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा अपने अंतिम चरण की ओर बढ़ चली है। भारत जोड़ो यात्रा के बारे में कहा जा रहा है कि नफ़रत के बाजार में श्री राहुल गाँधी मुहब्बत की दुकान खोलने की कोशिश कर रहे हैं। नफरतों के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलना, बड़ा शायराना सन्देश है। जिस भी शायर ह्रदय व्यक्ति ने ये सन्देश बनाया है उसके दिमाग में मेरे हिसाब से दो बातें बहुत स्पष्ट हैं। एक, शायर यह मानता है कि भाजपा ने हिन्दुस्तान में नफरत का बाजार खोल रखा है। दो, शायर ये भी मानता है कि सिर्फ राहुल गाँधी मुहब्बत की दुकान उस नफरती बाजार में खोल सकते हैं इसलिए राहुल गाँधी के ऊपर नफ़रत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलने और दुकान को सफलतापूर्वक चलाने की जिम्मेदारी है। यहाँ यह याद रखा जाए कि दुकान खोलना एक बात है और दुकान को सफलतापूर्वक चला लेना दूसरी बात।
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भाजपा ने नफ़रत का बाजार खोल रखा है, के क्या मायने हैं, ये समझना बात को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है। लेकिन पहले बाजार और दुकान के बीच का फर्क समझ लिया जाए। बाजार और दुकान में फर्क ये है कि कोई दुकान तो बिना खरीदार के हो सकती है लेकिन बाजार बिना खरीदार के नहीं हो सकता। इस बात को समझ लेने पर सिर्फ इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिन्दुस्तान में लोग नफरत के खरीदार हैं। सन्देश को थोड़ा और कुरेदने पर ये भी मालूम पड़ जाता है कि नफ़रत का खरीदार केवल हिन्दू वर्ग है क्योंकि नफ़रत के बाजार में बेची जा रही नफरतें मुस्लिमों के खिलाफ हैं। अब मुस्लिम तो अपने खिलाफ फैलाई जा रही नफरत खरीदने से रहे। दूसरी तरफ जो मुहब्बत की दुकान राहुल गाँधी ने खोली है उसके संभावित खरीदार भी हिन्दू ही हैं क्योंकि मुस्लिमों से नफरतों के बाजार में मुस्लिमों का क्या काम? कुल मिलाकर, जिस शायर ने उक्त सन्देश गढ़ा है, उसका उद्देश्य हिन्दू समाज में एक द्वैत उत्पन्न करना है जिसमें मुस्लिम से मोहब्बत करने वाला हिन्दू, मुस्लिम से नफरत करने वाले हिन्दू से अलग किया जा सके। यहाँ मुस्लिम से मोहब्बत करने वाली हिन्दू लड़की, जिसको उसके मुस्लिम प्रेमी ने जिबह कर डाला, का उदहारण देकर बात यहीं ख़त्म की जा सकती है लेकिन मेरा उद्देश्य घटनाओं को समझना नहीं बल्कि प्रक्रिया को समझना है।
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शायर का सन्देश, जिसको राहुल गाँधी उत्तर भारत में घुसते ही प्रसारित कर रहे हैं, जातियों के गुण धर्म के अनुसार हिन्दुओं को नहीं बांटना चाहता बल्कि उसने मोहब्बत और नफ़रत जैसे गुण धर्म के अनुसार हिन्दू को बांटने का आह्वान किया है जो एक नूतन विचार है। ये प्रश्न मैं पाठक के लिए खुला छोड़ता हूँ कि शायर को हिन्दुओं को जातियों के आधार पर बांटने में समस्या क्यों दिख रही है जबकि ये आजमाया तरीका है। फिलहाल, शायर ने राहुल गाँधी पर जिम्मेदारी डाल दी है कि वो हिन्दुओं को मुहब्बत खरीदने के लिए प्रेरित करें।
इस एक पंक्ति के शायराना फलसफे में मुस्लिम समाज का हस्तक्षेप गायब है जो प्रश्न खड़े करता है। आखिर इस शायराना सन्देश में से मुस्लिम गायब क्यों है? क्या हिंदुस्तान का मुस्लिम समाज दूसरे विश्वयुद्ध के काल के यहूदियों की तरह हो गया है जो प्रताड़ना शिविरों में जीने को बाध्य है? या फिर आधुनिक उइगर मुस्लिमों की तरह हिन्दोस्तान में भी मुस्लिमों की मस्जिदों और उनके जीवन जीने के तरीकों पर पर चीनी राज्य का कब्ज़ा है? निश्चित तौर पर दोनों में से कोई बात हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज के बारे में सही नहीं है। अगर राहुल गाँधी के शायराना सहयोगी, जिन्होंने ये सन्देश लिखा है, उनको ऐसा लगता हो कि हिन्दुस्तान में चीन या नाज़ी जर्मनी जैसी दशाएं हैं तो अलग बात है। मेरा उद्देश्य उनकी समझ पर प्रश्न खड़ा करना नहीं है। उनको विचारों की आज़ादी का हक़ उतना ही है जितना मेरा या किसी और का है।
क्योंकि मैं लिख रहा हूँ तो मैं अपनी मान्यताओं के अनुसार लिखूंगा और मेरी मान्यता यह है कि हिन्दुस्तान में नाज़ी शासन अभी तक नहीं आया है। फिर शायरी में से मुस्लिम क्यों गायब हैं? इस सवाल का जवाब ये हो सकता है कि मुस्लिम प्यार से लबालब हैं और उनको और प्यार की जरूरत नहीं है इसलिए नफरतों के बाजार में खुली मुहब्बत की दुकान पर उनको जाने की जरूरत ही नहीं है। इस बात को मान लेने पर ये सवाल खड़ा होते हैं कि फिर उमर खालिद जैसों को क्या मुहब्बत बांटने के कारण जेल में रखा गया है? हालाँकि इस प्रकार की विवेचना भाजपा से इतर न्यायपालिका को संदेह के घेरे में लेती है और प्रश्न ये खड़ा होता है कि जब न्यायपालिका भी मुहब्बत बांटने वालों का मुँह बंद करना चाहती है तो केवल भाजपा का नाम क्यों लेना? लेकिन मुहब्बत बांटने वालों का मुँह बंद करना और नफ़रत बांटना दो अलग अलग बातें हैं और हो सकता है कि राहुल गाँधी पहले नफरत बांटने वालों का बाजार बंद करेंगे फिर मुहब्बत बांटने वालों का मुँह खोलने का प्रयास शुरू करेंगे। शायद नफरतों का बाजार मुहब्बत के बाजार से प्रतिस्थापित किया जाए और जिन प्यार की बात करने वालों के मुँह सिल दिए गए हैं, उनको उस प्यार के बाजार में दुकानें बांटी जाएं।
एक और संभावना पर गौर किया जा सकता है। शायराना फलसफे के माध्यम से शायर शायद मुस्लिमों से निष्क्रिय होने की अपील कर रहा है और राहुल गाँधी शायर से सहमत हैं इसलिए शायर की बातों को दोहरा रहे हैं। लेकिन जिस समाज के खिलाफ नफरतों के बाजार खुले हों उससे ऐसी निष्क्रियता की अपील शायर या राहुल गाँधी द्वारा क्यों की जा रही है? इस बात के सन्दर्भ में, दो स्पष्टीकरण दिए जा सकते हैं। एक, शायराना नारा गढ़ने वाला ढके छुपे शब्दों में यह स्वीकार कर रहा है कि मुस्लिम समाज भी अपने सक्रिय स्वरुप में नफरती बातों पर ही खड़ा रहा है जिसके कारण हिन्दुओं के बीच भाजपा नफरतों का बाजार सफलतापूर्वक चला पा रही है। इस स्पष्टीकरण को मान लेने पर ये कहा जा सकता है कि शायराना फलसफे की मुस्लिम समाज से अपील है कि मुस्लिम समाज को निष्क्रिय अहिंसा के रास्ते को अपनाना चाहिए। यहाँ शायर अपने सन्देश के माध्यम से महात्मा गाँधी के रास्ते से अलग रास्ते पर चल पड़ा है और क्योंकि राहुल गाँधी, जो यह शायराना सन्देश फैला रहे हैं, कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। तो ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस महात्मा गाँधी के बताए अहिंसा के रास्ते से हट चुकी है क्योंकि गाँधी की अहिंसा चाहे और कुछ भी रही हो, निष्क्रिय तो नहीं ही थी।
जैसा कि पहले ही कहा गया कि दुकान खोलना एक बात है और दुकान को सफलतापूर्वक चला लेना दूसरी बात। एक सफल दुकानदार को अपने ग्राहकों के मनोविज्ञान के बारे में जानकारी होती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नफरतों के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलना अपने आप में दुकान को बाकियों से अलग खड़ा कर देता है। यहाँ राहुल जी के पास नफरत का बाजार चलने वालों के ऊपर एक बढ़त है लेकिन फिर भी ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या राहुल गाँधी अपने ग्राहकों को जानते हैं?
यहाँ फिर से शरद जोशी के द्वैत पर आना जरूरी हो जाता है।
राहुल गाँधी इंडिया के प्रतिनिधि हैं। भारत के बारे में उनकी जानकारी को लेकर प्रश्नचिन्ह हैं। भारत उनके साथ सेल्फी लेना चाहता है और वे भारत का हाथ झटक देते हैं। राहुल गाँधी के शायर सहयोगी ने शायराना संदेश तो लिख दिया लेकिन शायद राहुल गाँधी को ये समझ नहीं है कि प्रेम कहने की नहीं बल्कि करने की विषयवस्तु है और जिन्हें वे प्रेम सिखाना या बेचना चाहते हैं उनके साथ पहले संबंधों की जमी बर्फ पिघलानी होगी। इंडिया और भारत के बीच संबंधों की ये बर्फ शब्दों से नहीं पिघलने वाली। इंडिया वालों के लिए भारत वालों के साथ जमे संबंधों की बर्फ पिघलाने में सेल्फी या ट्विटर फॉलो प्रथम चरण है। जैसा कि पहले ही रेखांकित किया कि भारत का नागरिक बद्तमीज है। वो हर जगह अपना काम निकालने की जुगत में घुस जाना चाहता है। वो अपना काम निकालना जानता है और मौका मिलते ही सेल्फी लेना चाहता है या फॉलोबैक पाना चाहता है जिसको दिखाकर वो दूसरों को प्रभावित कर सके। ये वैसे ही हैं जैसे नयी दुकान खुली है तो खरीदार दुकानदार से समान के बारे में जानकारी लेना चाहता है लेकिन जरूरी नहीं कि वो दुकान से कुछ खरीदे। लेकिन ऐसा करने की प्रक्रिया में दुकानदार और ग्राहक के बीच सम्बन्ध पनपते हैं और खरीदने की संभावनाएं बनती हैं।
इंडिया का प्रतिनिधि, जिसके व्यवहार और व्यक्तित्व पर खबरें गढ़ी जाती हैं, जिससे ये उम्मीद की जाती है कि वो सेल्फी लेने वाले का हाथ नहीं मरोड़ेगा, के लिए बिना संबंधों की बर्फ पिघलाए भारतीयों को प्यार बेचना वैसा ही है जैसे गंजे को कंघी बेचना। बात ये नहीं है कि भारतीय प्यार खरीदना नहीं चाहता। शर्त यह है कि दुकानदार उसके मन को भाना चाहिए। क्या राहुल गाँधी नफ़रत के बाजार में घूम रहे भारतीयों के मन को भाने लायक दुकानदार बन सकते हैं? अगर किसी नफरती भारतीय से, जो प्यार की दुकान पर केवल जानकारी लेने के लिए खड़ा है, राहुल जी की मुलाकात होगी तो राहुल जी क्या करेंगे? क्या राहुल जी समान दिखाने से मना कर देंगे, जैसा उन्होंने उस कार्यकर्ता के साथ किया। ये प्रश्न बहुत प्रासंगिक है क्योंकि राहुल जी का जिससे मुकाबला है वो कई नफरती दुकानदारों को ट्विटर पर फॉलो करता है, बिना इस बात की चिंता किये कि इतिहासकार उसके बारे में क्या लिखेंगे। क्या राहुल गाँधी जिनको ट्विटर पर फॉलो करते हैं, उनके बारे में ये गारंटी लेते हैं कि वो सभी मुहब्बत बेचने की दुकान ही खोलेंगे? यहाँ राहुल गाँधी को याद रखना चाहिए कि किसी ज़माने में उनकी माताजी जिन लड़कों के लिए रोयीं थीं वो बाद में इस्लामिक स्टेट की नाव पर बैठे प्यार का सन्देश देते पाए गए। सामान्य लोग ऐसे ही होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि राहुल जी के जीजा के ऊपर जमीन हड़पने के मुकदमे नहीं चल रहे या पंजाबियों के कसाई जगदीश टाइटलर से काम लेना राहुल जी की पार्टी ने छोड़ रखा है।राहुल गाँधी की समस्या कहीं और है।
समस्या ये है कि इंडिया का प्रतिनिधि होने के नाते राहुल जी खुद को उस कमल के पत्ते की तरह समझते हैं जिस पर पानी नहीं रुकता। ऐतिहासिक रूप से इंडिया के प्रतिनिधि ऐसे ही रहे हैं, तो राहुल गाँधी कोई अपवाद भी नहीं हैं। जवाहिर लाल नेहरू में कोई दोष निकाल कर देखिए। बौद्धिक इंडियन ब्राह्मण आपको दुत्कार कर श्राप दे देंगे। नेहरू जी सदाबहार इंडियन हैं जो नैतिक है, मर्यादित है, प्रेम करता है। उसके साथ खड़े लोगों में दोष हो सकता है लेकिन इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। राहुल जी भी जवाहर लाल व्याधि से पीड़ित हैं। वो नैतिक दिखना चाहते हैं और इस क्रम में वो समझते हैं कि भारत उनसे वैसे ही व्यवहार करे जैसे वो उनके पड़नाना से करता था। उनको ये समझ में नहीं आ रहा कि उनके पड़नाना से लेकर उनके समय के बीच भारत बदला है, भारतीय बदला है। राहुल गाँधी के सन्देश में ये छिपी बात कि भारत के लोग नफरत के बाजार में खड़े है, भारत के लोगों के लिए अपने खिलाफ उनकी नफ़रत समझने के लिए काफी है। जैसे राहुल गाँधी और उनके शायर सहयोगी को अपनी मान्यता बनाने का अधिकार है वैसे ही भारत को भी उनके बारे में मान्यता बनाने का अधिकार है। भारत की अपने बारे में समझ उनके शायर सहयोगी से अलग हो सकती है।
इस संभावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि भारतीय अपने बीच के एक वर्ग को नफरत का खरीदार कहे जाने को अपमान की तरह लें। राहुल गाँधी का शायराना नारा भारतीयों को उनके चयन के लिए शर्मिंदा करने का इंडियन प्रयास माना जा सकता है। नफरतों के बाज़ार में राहुल गाँधी की मुहब्बत की दुकान, भारत के बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ नफरत बेचने की कोशिश मानी जा सकती है।
आखिर बाजार में उपभोक्ता राजा होता है और बाजार को उसकी पसंद के अनुसार चलना होता है। इस लिहाज़ से राहुल गाँधी का ये कहना कि भारत में नफरत का बाजार है, लोकतंत्र के बाजार में खड़े हर उपभोक्ता का अपमान है। राहुल गाँधी खुद को प्रेम का दुकानदार कह कर ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि जो उनकी दुकान से खरीदारी नहीं करेगा। वो नफरती है। राहुल गाँधी का व्यवहार उस असफल प्रेमी की तरह है जो प्रेमिका का प्रेम नहीं जीत पाता तो उसको चरित्रहीन प्रचारित करता है। राहुल गाँधी हर उस भारतीय का हाथ मरोड़ने की हिंसक कोशिश कर रहे हैं जो उनके साथ सहमत नहीं है। वास्तविकता ये है कि जिस दिन राहुल जी द्वारा कार्यकर्ता का हाथ मरोड़ना और झटकना खबर बनना बंद हो जाएगा उस दिन राहुल गाँधी भारत के प्रतिनिधि हो जाएँगे। उस दिन के लिए राहुल गाँधी को अग्रिम शुभकामनाएं। जिस दिन ऐसा होगा, राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी में कोई अंतर नहीं रह जायेगा।
शायर कितनी भी खूबसूरत भाषा का प्रयोग करे लेकिन लोकतंत्र काजल की कोठरी है जिसमें घुसने वाले को कालिख लगेगी ही लगेगी। राहुल गाँधी की माताजी ने इसी कालिख के डर से कोठरी की पहरेदार बनने का स्वांग किया। राहुल गाँधी तो अपनी पार्टी की कालिख खुद पर नहीं लगने देना चाहते और कालिख से बचने के लिए उन्होंने एक कठपुतली अध्यक्ष बैठा रखा है। लोकतंत्र की काली कोठरी में घुसने का मौका आने पर वो क्या करेंगे, ये भारतीयों के लिए अभी भी पहेली है।