सूरत के जिला सत्र न्यायालय द्वारा दो वर्ष की सजा मिलने के बाद राहुल गांधी की संसद की सदस्यता का जाना तय था। संसद के सचिवालय द्वारा आधिकारिक रूप से उन्हें अयोग्य घोषित किया जाना मात्र एक औपचारिक प्रक्रिया थी। इस विषय में वर्ष 2013 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के कारण यह होना ही था। इसके बाद कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं की प्रतिक्रिया वैसी ही रही जैसी अपेक्षा थी।
पार्टी के नेताओं से इस फैसले पर राजनीति की अपेक्षा थी और उन्होंने लोगों की इस अपेक्षा की रक्षा की। राहुल गांधी और उनके लघुमानवों (Minions) के लिए न्यायालय के निर्णय को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जोड़ना सबसे आसान रास्ता था और उन्होंने आसान रास्ता ही चुना। लोकसभा द्वारा राहुल गांधी को अयोग्य घोषित किए जाने को हर उस बात से जोड़ा जा रहा है जो पार्टी और उसके नेताओं को राजनीतिक लाभ दे सकती है। यह बात और है कि पिछले आठ वर्षों से कांग्रेसियों द्वारा किसी भी मुद्दे से राजनीतिक लाभ लेने की आशा अभी तक फलित नहीं हुई है।
कांग्रेस पार्टी, गांधी परिवार और उसके सहयोगियों की प्रतिक्रिया बिलकुल जानी पहचानी है। पिछले लगभग दो दशकों में यह पार्टी प्रॉपगैंडा की इतनी आदी हो चुकी है कि चाह कर भी अपने इस राजनीतिक दर्शन को पीछे नहीं फेंक सकती। बार-बार वही बातें जो दशकों से सुनी जा रही हैं; गांधी परिवार ने इस देश के लिए खून बहाया है, देश के लोकतंत्र को मजबूत किया है, नरेंद्र मोदी गांधी परिवार से डरे हुए हैं इसलिए राहुल गांधी को अयोग्य घोषित करवा दिया।
राहुल गाँधी ने सिद्ध किया कि वो पप्पू ही हैं
ये बातें अब बड़ी उबाऊ हो चुकी हैं। राहुल गांधी का दावा कि वो झूठ नहीं बोलते और केवल सच बोलते हैं या यह दावा कि वे जो कुछ कर रहे हैं, देश के लोगों के लिए कर रहे हैं, उनके तमाम दावों की तरह न केवल हास्यास्पद हैं बल्कि उन्हें एक बेचारे राजनेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। ऐसा नेता जो अपनी और अपने सलाहकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद अभी तक कोई एक रास्ता नहीं बना सका जिसपर चलकर अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके।
अयोग्य ठहराये जाने के बाद राहुल गांधी ने जो प्रेस कांफ्रेंस की, उसने एक राजनेता के रूप में उनकी व्यावहारिक अयोग्यता में चार चाँद लगाने का काम किया। एक पत्रकार के सवाल के जवाब में पत्रकार को लगाई गई उनकी झिड़क उन्हें एक हताश राजनेता के रूप में दिखाती है। विवेचना की जाए तो शायद समझ में आएगा कि उस पत्रकार के सवाल का जवाब सच में राहुल गांधी के पास नहीं था और यही कारण है कि उन्होंने उसे बीच में ही झिड़क दिया।
आप एक पार्टी के उस नेता के बारे में सोचिए जो दस-बारह वर्षों से अपनी पार्टी को कवर करने वाले बीट जर्नलिस्ट को भाजपा का एजेंट बताता है। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि उस राजनेता को यह सामान्य बात समझ नहीं आती कि राजनीति में नेतृत्व का एक न्यूनतम स्तर रखने के लिए उसे कार्यकर्ताओं, अन्य नेताओं, पत्रकारों और समर्थकों से न केवल जान पहचान रखनी पड़ती है बल्कि उन्हें एक न्यूनतम सम्मान भी देना पड़ता है।
राहुल गाँधी की झूठ बोलने की आदत लोकतंत्र के लिए खतरा है
सार्वजनिक मंचों पर प्रतिपक्षी नेताओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा हो, तथ्यों को लेकर लापरवाही हो या फिर झूठ बोलना हो, राहुल गांधी हर बिंदु पर बार-बार अयोग्य ही साबित होते आए हैं। यह सब देखकर तो यही लगता है कि लोकसभा सदस्य के रूप में उनका अयोग्य करार दिया जाना सही निर्णय है क्योंकि वे व्यावहारिक रूप से राजनेता बनने लायक़ नहीं हैं। उन्हें तो लोकसभा सचिवालय की घोषणा पर यह कहते हुए लोकसभा को धन्यवाद देना चाहिए कि; चलो पिंड छूटा।
यह प्रश्न विचारणीय है कि सामान्य परिस्थियों में कौन से माँ-बाप यह चाहेंगे कि उनका पुत्र, जो प्रधानमंत्री बनने के सपने देखता है, सार्वजनिक तौर पर यह कहे कि; पांडवों ने कभी जीएसटी लागू नहीं किया या पांडवों ने कभी डिमोनेटाइजेशन नहीं किया? या पांडवों ने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि वे तपस्वी थे। सोनिया गांधी के अलावा किस भारतीय माँ-बाप के लिए यह गर्व का विषय होगा? कौन माँ-बाप अपने पुत्र से ऐसी बात सुनकर यह सोचते हुए खुश होगा कि; मेरा बेटा सचमुच प्रधानमंत्री बनने लायक है?
राहुल गांधी कहते हैं कि गांधी कभी माफी नहीं माँगते। अभी चार वर्ष पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद माफी माँगने वाला कौन नेता देश के सामने ऐसी बात कहेगा? वे कहते हैं कि वे डरेंगे नहीं। प्रश्न यह है कि उन्हें कौन डरा रहा है? यह विशुद्ध रूप से एक न्यायिक फ़ैसला है और इसके लिए उनका अपना सार्वजनिक व्यवहार जिम्मेदार है। राहुल गांधी सार्वजनिक मंचों पर कैसा व्यवहार करते हैं, इसका निर्धारण नरेंद्र मोदी या भाजपा के नेता नहीं करते। उनका व्यवहार जीवन की उनकी अपनी समझ का उत्पाद है। भाजपाई न तो उन्हें सलाह देते हैं और न ही उनके लिये भाषण लिखते हैं। उन्होंने न ही उनसे ऐसे वक्तव्य देने के लिए अनुरोध किया होगा।
प्रश्न यह है कि अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगना क्या व्यावहारिक आचरण में नहीं आता, खासकर एक ऐसे राजनेता के लिये जो देश की कमान संभालने की महत्वाकांक्षा लेकर चलता है।
प्रियंका वाडरा अपने भाई के बचाव में उतरी तो उन्होंने राहुल गांधी की तुलना सीधे श्री राम और पांडवों से कर डाली। प्रियंका उसी कांग्रेस पार्टी की नेता हैं जो पूर्व में श्री राम को काल्पनिक घोषित कर चुकी है। पर उससे क्या हुआ? राजनीतिक लाभ लेना है तो श्री राम काल्पनिक हैं और राजनीतिक लाभ लेना हो तो श्री राम तो हमारे राहुल भैया की तरह ही थे। ऐसी बातें गांधी परिवार की सेंस ऑफ एंटाइटलमेंट को ही रेखांकित करती हैं। यह उस सोच का नतीजा है जो इस परिवार के सदस्यों को यह विश्वास दिलाती है कि; तुम राम और युधिष्ठिर से जरा भी कम नहीं हो। ऐसे में जब भी तुलना करना तो इनसे कम वाले से मत करना। क्या हुआ यदि तुम्हारे ऊपर झूठ बोलने के, भ्रष्टाचार करने के या खराब आचरण के कारण मुकदमे चल रहे हैं? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम तो खुद को श्री राम से कम कभी मत समझना।
सामान्य जीवन, राष्ट्र और लोकतंत्र की उनकी समझ तथा सार्वजनिक जीवन में उनका आचरण यह साबित करता है कि राहुल गांधी का अयोग्य घोषित किया जाना महज एक औपचारिकता है। वे अयोग्य ही हैं। ऐसे में संसद सदस्य के रूप में उनकी अयोग्यता की घोषणा उनकी पार्टी को प्रॉपगैंडा करने का बस एक और मौका देती है और इससे अधिक कुछ नहीं देती। यह प्रॉपगैंडा देश में हो या विदेश में, वह अयोग्य राहुल गांधी को योग्य नहीं बना सकता।