कांग्रेस पार्टी के लिए भारत जोड़ो यात्रा का सबसे सुखद हिस्सा था उसका समापन। यात्रा के समापन के साथ ही जयराम रमेश और पार्टी ने यह सोचते हुए चैन की सांस ली होगी कि; अब राहुल गांधी या दिग्विजय सिंह के वक्तव्यों पर रेशनिंग करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। न ही सवाल पूछने से रोकने के लिए किसी पत्रकार को झिड़कना पड़ेगा।
भारत जोड़ो यात्रा के समापन के पश्चात राहुल गांधी चुप हुए तो जॉर्ज सोरोस ने मोर्चा संभाला। जॉर्ज सोरोस चुप हुए तो राहुल गांधी ने फिर से बोलना शुरू किया। इस बार वे विदेश में बोल रहे हैं। राहुल के लिए विदेशों में बोलना देश में बोलने की तुलना में आसान होता है क्योंकि विदेशों में वे अंग्रेजी में बोलते हैं और अंग्रेज़ों के लिए बोलते हैं। वे जब अंग्रेज़ों के लिए बोलते हैं तब वे निर्बाध बोलते हैं। कुछ बोलने की उनकी स्वतंत्रता को उन तथाकथित इंडेक्स वगैरह का समर्थन मिलता है जिनका इस्तेमाल पश्चिमी देश बाकी दुनिया को लोकतंत्र की परिभाषा बताने से लेकर जीवन का सार बताने के लिए करते हैं।
विदेशी भूमि पर खड़े होकर राहुल गांधी अपने और भारत के बारे में कुछ भी बोल रहे हैं। वे खुद को उस लोकतंत्र के रक्षक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे मिटाने के लिए तथाकथित तौर पर नरेंद्र मोदी सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। वे भारतीय लोकतंत्र के ख़त्म होने का दावा कर रहे हैं। वे ब्रिटेन और अमेरिका की शिकायत भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि भारत में लोकतंत्र ख़त्म हो रहा है और ये देश इसलिए कुछ नहीं कर रहे हैं क्योंकि व्यापार वगैरह के चलते पैसे के लेन-देन की बात भी है। राहुल गांधी देश में रहते हैं तब कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था रसातल में चली गई है पर इस समय ब्रिटेन में रहते हुए यह बताना चाहते हैं कि भारत इतना शक्तिशाली है कि उसने व्यापार और पैसे से ब्रिटेन और अमेरिका का मुँह बंद कर रखा है। उनके ये झूठ उन्हें निहायत ही बेचारे राजनेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
अंग्रेजों को यह बताने में राहुल गांधी को कोई हिचक नहीं रहती कि; भारत में लोकतंत्र अब जीवित नहीं है। उनके लिए विदेश में कुछ भी कह देना इसलिए आसान है क्योंकि उन्हें सुनने के लिए जमा किये गए विदेशी उनकी बात चुपचाप सुनने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसा देश में संभव नहीं है। कारण यह है कि देश में अब राहुल गांधी को अधिकतर लोग जानने लगे हैं। उनकी लॉन्चिंग और री-लॉन्चिंग अब इंडिया टुडे के कवर पेज से आगे जाकर जनता के बीच खड़ी हो गई है। उनके अपने दल के लोगों को अब तक यह समझ में आ चुका है कि कवर स्टोरी, ओपिनियन पीस और संपादकीय तभी काम कर सकते हैं जब व्यक्ति के पास अपनी एक न्यूनतम योग्यता हो। कम से कम इस विषय को लेकर दल के नेताओं में अब कोई भ्रम नहीं है। शायद यही कारण है कि वे और उनका दल अब खुलकर विदेशियों से मदद मांग रहा है।
देश में रहते हुए राहुल गांधी की अनेक दुविधाएं उन्हें घेरे रहती हैं और इन दुविधाओं को लेकर वे शायद अब चिंतित भी रहते हैं। देश में रहते हुए उनके द्वारा महिलाओं पर अत्याचार की बात अब राजस्थान की गहलोत सरकार पर बात के बिना हो ही नहीं सकती। अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले तथाकथित दुर्व्यवहार की बात अल्पसंख्यकों द्वारा किये जाने वाले आचरण के बिना नहीं हो सकती। उन्हें अब डर सताने लगा है कि वे जैसे ही इन विषयों पर झूठ बोलेंगे उनके सामने सवाल खड़े कर दिए जाएंगे। वे जैसे ही दलितों पर अत्याचार की बात करेंगे, उनसे कोई सवाल कर सकता है कि राजस्थान की कानून व्यवस्था पर उनका क्या कहना है? वे अडानी की बात करेंगे तो उनके सामने यह सवाल उठ सकता है कि उनके अपने मुख्यमंत्रियों और अन्य दलों द्वारा राज्यों में चलाई जा रही सरकारों की अडानी के बारे में क्या राय है?
विदेश में बोलने पर सवाल पूछे जाने का ऐसा कोई खतरा उनके सामने नहीं रहता। यही कारण है कि वे विदेशों में लगातार बोलते हैं और कुछ भी बोलते हैं। प्रश्न उठता है कि भारत में रहकर जो राहुल गांधी चीन को आक्रमणकारी बताते हुए नरेंद्र मोदी को उसके सामने डरपोक बताते हैं, वही राहुल गांधी ब्रिटेन में बुद्धिजीवियों के सामने खड़े होकर यह कहने का साहस कैसे कर लेते हैं कि; अमेरिकी दर्शन व्यक्तिगत अधिकारों को तवज्जो देता है पर चीन का दर्शन सामंजस्य या मिलजुल कर रहने को तवज्जो देता है। कौन सा नेता बुद्धिजीवियों के सामने उस चीन के बारे में ऐसी बात करेगा जिसका दुनिया भर में एक दर्जन से अधिक देशों के साथ सीमा विवाद हो। जो देश भारत के साथ सीमा विवाद में तब से लगा हुआ है जब पंडित नेहरू शांति स्थापना के लिए कबूतर उड़ाया करते थे।
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प्रश्न यह है कि कौन सा भारतीय अपने ही देश के विपक्षी नेता से ब्रिटेन में चीन की तरफदारी करने की कल्पना कर सकता है? या फिर देश के बारे में तरह-तरह के झूठ बोलने की कल्पना कर सकता है? राहुल गांधी जिस निर्बाध भाव से ऐसा करते हैं, उसे देखते हुए तो कहा जा सकता है कि कम से कम कांग्रेसी ऐसी कल्पना कर सकते हैं। दरअसल कल्पना तो क्या, वे अपने नेता राहुल गांधी द्वारा यह सब बोलने पर खुश भी होते होंगे। राहुल द्वारा ब्रिटेन में दिए गए ऐसे बयानों को लेकर कांग्रेस या उसके इकोसिस्टम से कोई विरोध न होना यह बताता है कि कांग्रेसी न केवल उनका समर्थन करते हैं बल्कि इस बात से आशान्वित होते होंगे कि राहुल के ये पैंतरे शायद उन्हें सत्ता तक पहुंचा ही देंगे।
प्रश्न यह उठता है कि क्या यह वही विपक्ष है जिसका मजबूत होना एक मजबूत लोकतंत्र के लिए आवश्यक शर्त है?
राहुल गांधी जल्द ही ब्रिटिश संसद को संबोधित करने वाले हैं। अधिकतर ऐसे संबोधनों में देशों के बीच संसदीय लोकतांत्रिक परंपराओं के बारे में बात की जाती हैं और उन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। प्रश्न यह है कि अट्ठारह वर्षों से भारतीय संसद के एक सदस्य के रूप में राहुल गांधी ब्रिटिश संसद में भारतीय संसदीय परम्पराओं की बात करेंगे, भारत में लोकतंत्र की तथाकथित मृत्यु की पुपुही बजायेंगे या फिर चीन की महिमा का बखान करेंगे? उस चीन की जो लोकतंत्र को ठेंगे पर रखता है।
राहुल गांधी का एजेंडा देखते हुए कहा जा सकता है कि वे कुछ भी कर सकते हैं। वे फिलहाल चीन से इतना प्रभावित हैं कि ब्रिटिश संसद में अपने भाषण में वे चीन को लोकतंत्र का बाप बता दें तो आश्चर्य न होगा।