आज भारत की वर्तमान परिस्थिति में राजनीतिक ‘प्रयोगवाद’ स्पष्ट होना नितांत ही आवश्यक कार्य है। ‘राजनीतिक प्रयोगवाद’ यह कि कैसे किसी मुद्दे को उछाल कर उसे इतना बड़ा बना दिया जाए कि अन्य सभी मुद्दे गौण हो जाएं। यही देखा भी जा रहा है पिछले कई दिनों से। संसद से लेकर सड़क तक और ट्विटर से लेकर टेलीविज़न तक हर जगह एक मुद्दा ऐसे भुनाया जा रहा है मानो यह अकेला मुद्दा विपक्षी दलों के उजड़ती साख को फिर से गुलज़ार करने में सक्षम हो जाएगा। बात की जा रही है अडानी ग्रुप पर शॉर्ट शेलिंग फर्म हिंडनबर्ग रिपोर्ट की और इस मुद्दे पर लगभग सभी प्रमुख विपक्षी दल एक सुर में राग अलाप रहे हैं।
हालाँकि यह पहली बार हो रहा है ऐसा नहीं है। याद किया जाए तो 2019 लोकसभा चुनाव के पहले भी विपक्ष और विशेषकर कॉन्ग्रेस पार्टी द्वारा सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरने के लिए राफेल लड़ाकू विमानों के खरीद पर घोटालों का आरोप लगाया गया था। बावजूद तत्कालीन सरकार द्वारा हरेक आरोपों के जवाब दिए जाने के राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस द्वारा इसका राजनीतिक लाभ लेने के लिए भरपूर दुष्प्रचार किया गया था। “चौकीदार चोर है” जैसे फूहड़ और छिछले नारे किसी प्रकार के राजनीतिक लाभ तो नहीं दे सके परन्तु सामाजिक उत्थान और गरीबों की आवाज़ होने का दम्भ भरते कॉन्ग्रेसियों ने ‘चौकीदार’ जैसे स्वावलंबी और ईमानदार पेशे/वर्ग को आहत जरूर कर दिया। परिणामस्वरूप नरेंद्र मोदी एक बार फिर पहले से भी ज्यादा बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करते हैं। बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस पर सुनवाई के दौरान राहुल गाँधी ने बिना शर्त के माफ़ी मांगकर अपने खिलाफ चल रहे कार्रवाई को बंद करने की मांग की थी।
अब भले ही विषयवस्तु बदल गए हों परन्तु कार्यप्रणाली वही है। सरकार अपनी तरफ से लाख कोशिशों के बाद भी विपक्ष को भरोसे में लेने में सक्षम नहीं होती दिख रही है और दिखे भी कैसे? सोते हुए को जगाने और सोने का ढोंग किए हुए को जगाने में फर्क होता है। जैसा कि प्रतीत हो रहा है कॉन्ग्रेस के लिए यह विषय इसलिए भी जरुरी है क्योंकि मोदी सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का मुद्दा जिसको लेकर किसी प्रकार की एंटी इंकम्बेंसी नहीं देखी गई है।
कॉन्ग्रेस पार्टी के शासन काल में भारत में हुए आर्थिक घोटालों का लम्बा इतिहास रहा है और इस विषय में कॉन्ग्रेस पार्टी को अन्य पार्टियां और उनके नेता भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त पाए गए हैं उनके आदर्श के तौर पर देखा जाना चाहिए। जबकि भाजपा और विशेषकर मोदी सरकार की सबसे बड़ी USP यही रही है कि दो पूर्णकालिक कार्यकाल के बावजूद उन पर किसी प्रकार के आर्थिक घोटालों के आरोप नहीं लगे हैं और लगे भी हैं तो सिद्ध नहीं हो सके हैं। आज जब लोकसभा चुनाव को बमुश्किल साल भर रह गए हैं तब एक बार फिर से कॉन्ग्रेस समेत अन्य सभी विपक्षी पार्टियां जो आज जबरदस्ती अडानी मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने के प्रयासों में लगी हैं।
संसद में पक्ष-विपक्ष के मांगों को लेकर भारी गतिरोध
एक ओर सरकार राहुल गांधी द्वारा उनके हालिया विदेश दौरे पर अमेरिका और यूरोपीय देशों में जाकर “भारत में लोकतंत्र खतरे में है” जैसे लोकतंत्र विरोधी बयानबाज़ी पर कॉन्ग्रेस और राहुल गांधी से देश के सामने स्पष्टीकरण और क्षमा मांगने की बात पर अडिग दिख रही है। वहीं दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां सरकार को अडानी-हिंडनबर्ग रिपोर्ट के मुद्दे पर घेरने की पुरज़ोर कोशिशें जारी है और इसी कड़ी में कल बुधवार यानि 15 मार्च, 2023 को कम से कम 16 दलों के विपक्षी नेताओं ने अदानी समूह विवाद पर प्रवर्तन निदेशालय (ED) को एक शिकायत सौंपने के लिए एक विरोध मार्च निकाला। जबकि इन सब गतिरोधों के बीच संसद के मौजूदा सत्र का महत्वपूर्ण तीन दिन इसी की भेंट चढ़ चुकी है और कार्यवाही ठप पड़ चुकी है। आगे भी संसद सुचारू रूप से चल सके इसके कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।
अपने बयानों को लेकर राहुल गांधी की माफ़ी जरुरी क्यों?
हालाँकि संसद को सुचारु रूप से चलाए जाने की जिम्मेदारी पक्ष-विपक्ष दोनों ओर के दलों की है लेकिन राहुल गांधी के विदेशी धरती पर भारत के लोकतंत्र विरोधी बयानों को लेकर सरकार किसी भी तरह की नरमी बरतने को तैयार नहीं दिख रही है। कुछ हद्द तक ऐसा कहना जायज भी है, यदि सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था ‘संसद’ का सदस्य होते हुए भी राहुल गांधी उसकी मर्यादा नहीं रखते तो यह उनका और पूरी कॉन्ग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य है क्योंकि अन्तोगत्वा उन्हें पुन: इन्हीं प्रक्रियाओं से होकर गुजरना ही होगा। यदि राहुल गांधी की आगामी लोकसभा चुनाव में सत्ता वापसी नहीं होती है तो देखने वाली बात होगी कि उनका मोदी विरोध जो अंशत: भारत और लोकतंत्र विरोध में रूपांतरित हुआ जा रहा है किस स्तर पर जा कर थमेगा?
विपक्ष के लिए अडानी-हिंडनबर्ग मुद्दे का महत्व
अडानी समूह पर अमेरिकी इन्वेस्टमेंट फर्म हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के बाद से ही देश के आर्थिक और राजनीतिक जगत में भूचाल सा आ गया। एक विदेशी फर्म के रिपोर्ट को लेकर इतनी हाय तौबा के बीच अडानी समूह ने महीने भर में हज़ारों-लाखों करोड़ रूपए गंवाने पड़े। हालाँकि यह एक अलग जांच का विषय है कि किस आधार पर देश भर में एक विदेशी इन्वेस्टमेंट फर्म की रिपोर्ट में कुछ अपुष्ट आरोपों के आधार पर अडानी जैसे बड़े कॉर्पोरेट ग्रुप में निवेशकों का विश्वास अचानक से डगमगा गया।
यह भी देखा गया कि किस प्रकार जानबूझकर देश में अडानी समूह के विरुद्ध नकारात्मक माहौल बनाया गया जिसके बाद निवेशकों का भरोसा डगमगाना स्वाभाविक भी है। गौरतलब है कि हिंडनबर्ग रिसर्च की यह रिपोर्ट तब प्रकाशित किया गया जब अडानी समूह के अपने इनिशियल पब्लिक ऑफर (IPO) लॉन्च किए थे (अर्थात कोई कंपनी बाज़ार से ताजा धन जुटाने अथवा शेयर बाजारों में स्वयं को सूचीबद्ध करने के लिए बाजार में आ रही है)। अडानी समूह ने निवेशकों के भरोसे को बनाए रखने के लिए आईपीओ लाकर बाज़ार से 20,000 करोड़ रुपए उठाये थे उन्हें वापस उन निवेशकों को लौटा भी दिए और अब जाकर अडानी समूह ने लगभग 50 प्रतिशत से अधिक की भरपाई कर ली है तो प्रश्न उठता है क्या जिन पार्टियों हिंडनबर्ग रिपोर्ट को लेकर आरोप लगाए थे वह अडानी समूह को हुए नुकसान की जिम्मेदारी लेंगे?
कॉन्ग्रेस के घोटालों के इतिहास के बाद वह अपने को भाजपा से बेहतर भले ही न बता पाए लेकिन भाजपा को अपने समकक्ष भ्रष्ट दिखने का कोई भी मौका नहीं गंवाना चाहती है। और इसी वजह से अडानी-हिंडनबर्ग का मुद्दा जानबूझकर इतना ज्वलनशील बनाया जा रहा है। जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा पांच सदस्यीय समिति का गठन कर दो महीनों में रिपोर्ट सौंपने को कहा है बावजूद, विपक्षी दलों ने संसद को नहीं चलने देने की ठान रखी है। इसके अलावा प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाईयों ने भी विपक्षी दलों को बैकफुट पर धकेल रखा है। अब देखना है कि अडानी के सहारे केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिशें कितनी कारगर साबित होती हैं?