कांग्रेस के नेताओं द्वारा हालाँकि राहुल गाँधी की तरफ से सफाई देना मजबूरी है लेकिन इस क्रम में दिक्कत तब हो जाती है जब गाँधी परिवार को पैगम्बरों का कबीला मान चुके कांग्रेस के पढ़े-लिखे समझे जाने वाले नेता इतिहास को ही तोड़ने मरोड़ने का प्रयास करते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर कांग्रेस इसी प्रकार की छीछालेदर करवा के हटी है जहाँ उसने एक ऐतिहासिक सेंगोल के अस्तित्व से इंकार किया जबकि जवाहर लाल नेहरू को प्रथम प्रधानमंत्री होने के नाते सत्ता हस्तानांतरण के प्रतीक के तौर पर दिया गया सेंगोल प्रयाग के एक संग्रहालय में नेहरू साहब की व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में पाया गया। इस सन्दर्भ में प्रयाग संग्रहालय के उपलब्ध प्रामाणिक दस्तावेजों से कांग्रेस मुँह तो छिपा सकती है, उन्हें नकार नहीं सकती।
इतिहास के साथ आँख मिचौली खेलने पर मजबूर कांग्रेस पार्टी को गाँधी परिवार के वर्तमान खलीफा या पैगम्बर या नबी ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को धर्म निरपेक्ष बता कर एक नई समस्या में डाल दिया है। अब कांग्रेस के प्रवक्ता करें तो क्या करें? सफाई देते हुए कांग्रेस के नेता मूल मुद्दे से भटक गए, जैसा कि पैगम्बर राहुल गाँधी के अनुयायियों से अपेक्षित था, क्योंकि सफाई देने के लिए कोई तर्क था ही नहीं। इस सन्दर्भ में कांग्रेस के दो नेताओं द्वारा त्वरित टिप्पणियां की गईं। कांग्रेस द्वारा स्थापित गाली देने की मशीन सुप्रिया श्रीनेत ने बीजेपी नेता अमित मालवीय के ट्वीट पर मालवीय को अपने विशेषणों से आभूषित करते हुए घोषणा की कि केरल वाली इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग वो आल इंडिया मुस्लिम लीग नहीं है जिसने पाकिस्तान की मांग की थी, लेकिन शायद कांग्रेस के अधिक विद्वान नेताओं को सुप्रिया श्रीनेत के ज्ञान का विस्तार मालूम था और इसलिए दूसरे दिन वरिष्ठ कांग्रेस नेता पवन खेड़ा अपने नबी राहुल गाँधी के बचाव में उतरे और दलील दी कि डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार चलाई थी। खेड़ा साहब पता नहीं ऐसा कहकर राहुल गाँधी का बचाव कर रहे थे या श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बदनाम कर रहे थे।
कांग्रेस के नेताओं के अपने वर्तमान नबी राहुल गाँधी के समर्थन में दिए गए इन्हीं बयानों के सन्दर्भ में यह लेख इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के इतिहास की पड़ताल करने का एक प्रयास है।
भारत में मुस्लिम लीग की जरूरत क्यों पड़ी?
ये कहानी कांग्रेस के अस्तित्व में आने के पहले और १८५७ के बाद शुरू होती है। १८५७ के उपनिवेशवादी संघर्ष के बाद इस्लामिक सत्ता का पराभव मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों के लिए झकझोरने वाला था और इस घटना और इसके परिणामों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों में एक नए विचार का निर्माण किया जिसके मुखिया सर सैयद अहमद खान थे। हिन्दुओं की सबसे बड़ी ताकत मराठा संघ का अंतिम पराभव भी १८५७ में ही हुआ, हालाँकि हिन्दू समाज के एक वर्ग में पश्चिमी विचारों के प्रभाव में नवजागरण का आगमन पहले ही हो चुका था। हालाँकि हिन्दू समाज में धार्मिक और सामाजिक नवजागरण का प्रारम्भ पहले हुआ लेकिन हिन्दू समाज में इस धार्मिक और सामाजिक नवजागरण का स्वरुप लम्बे समय तक अराजनीतिक बना रहा और हिन्दू सुधारक समाज में मूलभूत सुधारों, खासकर कुप्रथाओं के अंत और अंग्रेजी शिक्षा की आवश्यकता को ही रेखांकित करते रहे, जिसका अंतिम उद्देश्य सरकारी पदों पर हिन्दू नियंत्रण को सुनिश्चित करना था। हिन्दुओं ने यही काम हिंसक और स्वेच्छाचारी मुस्लिम शासन में भी किया था और फ़ारसी और अरबी जैसी भाषाएं सीख कर शासन के लिए खुद को उपयोगी बनाए रखा था। आधुनिक समय में अस्तित्व बनाए रखने की यह नीति यहूदियों ने भी द्वितीय विश्व युद्ध में प्रताणना केंद्रों में रहने के दौरान अपनाई। यहाँ ये बता देना आवश्यक है कि सन १८८५ में स्थापना के समय कांग्रेस खुद को एक राष्ट्रीय राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत कर रही थी, न कि हिन्दू हितों की प्रतिनिधि पार्टी के तौर पर। इस प्रकार हिन्दुओं ने भारत को, चाहे राज्य का स्वरुप कुछ भी रहा हो, कभी भी छोड़ने या त्यागने का विचार नहीं किया। विभाजन के बाद भी वो मुस्लिम जो भारतीय थे और जिनमें बहुसंख्यक वर्ग पसमांदा मुसलमानों का था, ने भारत छोड़ कर पाकिस्तान जाने का विकल्प नहीं लिया। यह भारतीय हिन्दुओं के, जो इस्लामिक पंथ में परिवर्तित हुए थे, उनके पुण्यभूमि के ऊपर पितृभूमि को तरजीह देने का प्रमाण है।
इसके विपरीत सर सैयद के नेतृत्व में शुरू हुए मुस्लिम नवजागरण का स्वरुप प्रारम्भ से ही राजनीतिक ही था। सर सैयद के भाषणों और पुस्तकों में जो एक बात बार-बार सामने आती थी, वो थी अंग्रेजो और मुसलमानों का एक धार्मिक मूल, जिसके आधार पर वो मुसलामानों को ईसाई अंग्रेजों के राज्य का समर्थन करने के लिए प्रेरित करते थे। हिन्दू एकता का डर सर सैयद के भाषणों में दूसरा प्रमुख मुद्दा था और वो हिन्दू एकता के डर से अपने भाषणों में लगातार इस बात को रेखांकित करते थे कि हिन्दू एक धार्मिक इकाई से ज्यादा बंगाली, मराठी, राजपूत और पंजाबी है, जबकि मुसलमानों को संगठित दिखाने के लिए यही पैमाने वो मुसलमान समुदाय पर आरोपित नहीं करते थे। इस सन्दर्भ में एक प्रश्न जो मन में आता है वो ये है कि यद्यपि १८५७ के स्वाधीनता संघर्ष को विनायक दामोदर सावरकर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का उदाहरण माना लेकिन इस आंदोलन का नेता दिल्ली का मुस्लिम बादशाह ही था। ये सोचना मजेदार है कि क्या मुस्लिम, खास कर दिल्ली के आसपास के मुस्लिम जमींदार, तब भी १८५७ की घटनाओं में वैसे ही भाग लेते जैसे उन्होंने लिया, अगर नेता मुस्लिम बादशाह न होकर नाना साहब पेशवा होते? ये सवाल मेरे दिमाग में तब आया जब मैंने सर सैयद के लेखों में हिन्दू राज आने का स्पष्ट डर देखा, जिसको समाप्त करने के लिए और अपने समुदाय को संगठित करने के लिए वो मूर्खतापूर्ण तर्क देने से भी कभी नहीं चूके। इस प्रकार मुसलमानों में एक अलगाव का भाव उत्पन्न करने में और अगर अलगाव का भाव पहले से था तो उसको उबारने में सर सैय्यद अहमद की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी।
द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत और पृथक निर्वाचन बड़े स्पष्ट रूप से सर सैयद के १८८० के दशक में दिए गए कई भाषणों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुद्दा था। प्रत्यक्ष रूप से सर सैयद मुसलमान को हमेशा से क्षेत्रीय पहचान में बंटे हुए हिन्दुओं से अलग एक संगठित कौम या राष्ट्र मानते थे और मुस्लिम एकता का सूत्र धर्म को मानते थे, इस प्रकार धार्मिक आधार पर दो कौमी नजरिए के राजनीतिक सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले वो पहले व्यक्ति थे। इसी प्रकार पृथक निर्वाचन की बात सर सैयद के १८८७ के लखनऊ में दिए भाषण में मिलती है, जिसमें उन्होंने गवर्नर काउंसिल में निर्वाचन की नवस्थापित कांग्रेस की मांग को इस आधार पर हास्यास्पद बताया कि यह केवल हिन्दुओं को प्रतिनिधि बनाएगी और मुसलमान को कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि मुस्लिमों की संख्या हिन्दुओं की तुलना में कम थी। इसी भाषण में सर सैयद ने दलितों के वोट देने के अधिकार को लेकर अपमानजनक टिप्पणी भी की लेकिन पसमांदा मुस्लिम को दलित से इतर एक मुस्लिम के तौर पर प्रस्तुत किया। यहाँ याद रखने योग्य बात ये है कि सर सैयद ये बातें उस समय कर रहे थे जब अभी कांग्रेस को स्थापित हुए दो वर्ष ही हुए थे और उस समय तक कांग्रेस ने खुद को हिन्दू पार्टी न तो बताया था और न बनाया था। सर सैयद के लोकतंत्र के सन्दर्भ में इन्हीं विचारों को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम से अभी-अभी बाहर किए गए इस्लामिक कवि अल्लामा इक़बाल ने दशकों बाद एक शेर के रूप में कुछ इस प्रकार से कहा-
इस राज़ को इक मर्दे फिरंगी ने किया फ़ाश, हर चंद के दाना इसे खोला नहीं करते।
जम्हूरियत एक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें, मर्दों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।।
इस प्रकार मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों को लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर कभी भी यकीन नहीं था, क्योंकि वो न केवल हिन्दुओं से डरे हुए थे बल्कि लोकतंत्र के माध्यम से वो मुस्लिम समाज के पिछड़ों और दलितों, जो संख्या में ज्यादा थे, के हाथ में सत्ता जाने के विचार से भी डरते थे।
यहाँ ये बता देना जरूरी है कि हिन्दू समाज में ऐक्य लाने के प्रयासों ने भी सर सैयद की अवधारणाओं को पुष्ट करने में मदद की, इसमें कोई संदेह नहीं है। बंगाल में स्वामी विवेकानंद और उत्तर भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती के आर्य समाज आंदोलन ने हिन्दुओं में जिस प्रकार का नवजागरण प्रारम्भ किया उससे सर सैयद ही नहीं बल्कि अंग्रेज प्रशासक भी डरे हुए थे और इस बात के साक्षात् प्रमाण श्यामजी कृष्ण वर्मा, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विनायक दामोदर सावरकर और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के लेखों और क्रियाकलापों में दिखते हैं। श्यामजी कृष्ण वर्मा तो एक समय आर्य समाजी सन्यासी बनने की कगार पर थे।
इस प्रकार सर सैयद ने जिन विचारों की नींव डाली, आगे चल कर उन्हीं से सन १९०६ में मुस्लिम लीग की भौतिक उत्पत्ति हुई। इसके विपरीत पहले हिन्दू कहे जाने वाले दल हिन्दू महासभा की स्थापना लाला लाजपत राय की अगुआई में कांग्रेस के अंदर ही एक गैर राजनीतिक वर्ग के रूप में हुई जिसने आगे चल कर कांग्रेस से खुद को पृथक कर लिया। इसी राजनीतिक चेतना के अभिभूत होकर मुस्लिम नेतृत्व ने भारत विभाजन की नींव डाली।
दक्षिण भारत में मुस्लिम लीग का प्रवेश
कांग्रेस की नेता सुप्रिया श्रीनेत के अनुसार केरल की मुस्लिम लीग वो मुस्लिम लीग नहीं है जिसने भारत का विभाजन करवाया। चलिए इस तथ्य की भी जांच करते हैं और देखते हैं इतिहास हमें क्या बताता है?
वास्तव में दक्षिण भारत में पहले कांग्रेस ने ही मुस्लिम नेतृत्व को प्रश्रय दिया लेकिन खिलाफत आंदोलन और मोपला दंगों ने मुस्लिमों में पृथक्करण की चेतना का उभार किया। जब १९३० के दशक में मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस को तोड़कर मुस्लिम लीग का पुनर्जागरण किया तो दक्षिण भारत में भी कांग्रेस में तोड़-फोड़ हुई और सिद्दी साहब, बी. पोकर, के. उप्पी साहब और एम् मुहम्मद इस्माइल जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने जिन्ना की मुस्लिम लीग की सदस्यता ले ली। यह याद रखने योग्य तथ्य है कि १९३० में ही लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में अल्लामा इक़बाल अपना प्रसिद्द भाषण दे चुके थे जिसमें उन्होंने पाकिस्तान का खाका प्रस्तुत किया था और १९३३ में रहमत अली ने पाकिस्तान के विचार को व्यावहारिक ढांचा दे दिया था, हालाँकि ये मुहम्मद अली जिन्ना थे जिन्होंने १९४० में पाकिस्तान के विचार को राजनीतिक मुद्दा बनाया। इसलिए दक्षिण भारतीय कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं ने जब मुस्लिम लीग की सदस्यता ली तब उनको खूब मालूम था कि मुस्लिम लीग के मुद्दे क्या हैं। पाकिस्तान के वायदे पर ही मद्रास प्रेसीडेंसी में १९४६ में हुए चुनाव में मुस्लिम लीग ने सारी पृथक निर्वाचन वाली सीटें जीतीं और तर्जुमान नाम की पत्रिका के प्रथम वर्ष के तीसरे अंक में छपी खबर को मानें तो एक पृथक मोपिलास्तान के निर्माण की चर्चा उस समय मालाबार के मुस्लिम वर्ग में आम थी।
क्या कांग्रेस नेताओं का ये दावा सही है कि आल इंडिया मुस्लिम लीग पाकिस्तान बनने के साथ ही ख़त्म हो गई?
अब कांग्रेस के दावे पर आते हैं जो इस लेख का प्राथमिक मुद्दा है। आपको पहले ही बताया जा चुका है कि एम् मुहम्मद इस्माइल और कांग्रेस के कुछ और मुस्लिम नेताओं ने जिन्ना के नेतृत्व में मद्रास प्रेसीडेंसी में आल इंडियामुस्लिम लीग की सदस्यता ले ली और ये सभी नेता पाकिस्तान बनाने के नाम पर १९४६ का चुनाव लड़े और जीते लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद इनमें से कोई भी पाकिस्तान नहीं गया और न ही मालाबार में स्वतंत्र मोपिलास्तान ही बन पाया और आल इंडिया मुस्लिम लीग भी समाप्तप्राय हो गईं। अब ये नेता क्या करते? तो इन्हीं एम् मोहम्मद इस्माइल साहब ने १९४८ में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग की स्थापना की और संविधान लागू होने के बाद १९५२ में हुए पहले सामान्य चुनाव में बी. पोकर, जो खुद भी ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की मद्रास शाखा के संस्थापक सदस्य थे, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के पहले संसद सदस्य बने।
अब मैं ये तय करना आप पर छोड़ता हूँ कि कांग्रेस के विद्वान प्रवक्ताओं का ये कहना कितना सही है कि जिस मुस्लिम लीग को राहुल गाँधी ने सेक्युलर बताया वो कितनी सेक्युलर थी, जबकि उसकी स्थापना ही उन लोगों ने की जिन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़कर जिन्ना की पाकिस्तान बनाने में मदद करने के लिए मद्रास में आल इंडियामुस्लिम लीग खड़ी की और पाकिस्तान बनाने के पक्ष में प्रचार किया।
संविधान सभा में आल इंडिया मुस्लिम लीग
ये ध्यान रखने वाली बात है कि १९४६ के जिस चुनाव ने पाकिस्तान बनने का रास्ता साफ़ किया उसी चुनाव में चुन कर आए सदस्य ही भारत की संविधान सभा में गए। इसमें ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के वो सदस्य भी शामिल थे जिन्होंने पाकिस्तान बनाने में तो तन, मन और धन से पूरा सहयोग किया था लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद ये लोग पाकिस्तान नहीं गए बल्कि विभाजित भारत की संविधान सभा में गए। ये भी ध्यान देने की बात है कि भारत में १९४६ के चुनाव पृथक निर्वाचन के फॉर्मूले से हुए थे, जो समानुपातिक जनसँख्या के आधार पर तय होता था। विभाजन के बाद मुस्लिम आबादी भारत में लगभग २५ प्रतिशत से घटकर सिर्फ १० प्रतिशत के आस-पास बची लेकिन क्योंकि पृथक निर्वाचन के आधार पर ही १९४६ के चुनाव हुए थे और इसके द्वारा चुने गए कई लोग पाकिस्तान न जाकर भारत की संविधान सभा में गए, इसलिए भारत की संविधान सभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व विभाजित भारत की मुस्लिम आबादी के अनुपात से ज्यादा रहा। ये एक ऐसा तथ्य है जिसकी तरफ अधिकांश विद्वान ध्यान नहीं देते। यहाँ एक और मजेदार तथ्य जान लीजिए जो सुप्रिया श्रीनेत या पवन खेड़ा जैसे नबी के दीवाने नहीं बताएँगे। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अधिकांश बचे हुए नेता भारत की संविधान सभा में मुस्लिम लीग के सदस्य के रूप में नहीं पहुंचे क्योंकि मुस्लिम लीग ने १९४६ में ही संविधान सभा का बहिष्कार किया था और अधिकांश जगहों पर मुस्लिम लीग की स्थानीय इकाइयां पाकिस्तान बनने के साथ ही भंग हो गईं लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के चुने हुए सदस्य जो पाकिस्तान नहीं भागे, गाजे बाजे के साथ ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का झंडा लेकर संविधान सभा में गए। इसमें दक्षिण भारत के सभी नेता थे जो ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के टिकट पर चुन कर आए थे।
अब क्योंकि जिन्ना की आल इंडिया मुस्लिम लीग के पाकिस्तान बनाने के बाद भी आल इंडिया मुस्लिम लीग के जो नेता पाकिस्तान न जाकर संविधान सभा में गए और उसमें मालाबार के मुस्लिम लीगी भी थे तो वहां भी वहीं से शुरू किया जहाँ से १९०६ में आल इंडिया मुस्लिम लीग के गठन से शुरू किया था अर्थात मुसलमानों के लिए स्वतंत्र भारत में पृथक निर्वाचन की मांग।
संविधान सभा ने आज़ादी के बाद कुछ ही हफ़्तों में प्रतिनिधित्व के सवाल पर पहले दस सालों के लिए दलितों और मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों को बनाए रखने का लेकिन पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को समाप्त करने का फैसला लिया लेकिन दक्षिण भारत के आल इंडिया मुस्लिम लीग के दो सदस्यों, बी. पोकर और के. टी. एम् अहमद इब्राहिम, ने एक संशोधन लाकर पृथक निर्वाचन को भी बनाए रखने की मांग की जिसको संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों का ही समर्थन नहीं मिला और यह संशोधन निरस्त हो गया। इसके बाद भी अहमद इब्राहिम साहब नहीं माने और उन्होंने एक और संशोधन रखा जिसमें मांग की गई कि आरक्षित सीटों से जीते व्यक्ति को तभी जीता हुआ माना जाए जब उसको उसकी कौम का तीस प्रतिशत वोट कम से कम मिला हो। यह प्रस्ताव भी गिर गया और सरदार पटेल ने रुष्ट होकर मुस्लिम समुदाय के लिए सीटों के आरक्षण पर पुनर्विचार की मांग की।
ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के ये नेता इतने पर ही नहीं रुके और १९४९ में जब अल्पसंख्यकों पर एडवाइजरी समिति की रिपोर्ट आई तो नई बनी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (स्थापना वर्ष-१९४८) के अध्यक्ष और के. टी. एम् अहमद इब्राहिम साहब के बड़े भाई एम् मुहम्मद इस्माइल साहब ने और उत्तर प्रदेश के एक सदस्य जेड. एच. लारी, जो खुद भी आल इंडिया मुस्लिम लीग के निर्वाचित सदस्य थे लेकिन तब तक पाकिस्तान नहीं गए थे, ने फिर से मांग उठाई कि पृथक निर्वाचन को बनाए रखा जाए, जिसे फिर से सरदार पटेल ने मानने से इंकार कर दिया और उनका संविधान सभा के दो और मुस्लिम सदस्यों, उत्तर प्रदेश से बेगम ऐज़ाज़ रसूल और बिहार से तजामुल हुसैन, ने साथ दिया। पृथक निर्वाचन का मामला इतना बढ़ा कि मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों का विचार भी संविधान सभा ने त्याग दिया और संविधान सभा में ही एक और पाकिस्तान की नींव डालने का पुराने लीगियों, जो अब इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग बना चुके थे, का अरमान धराशायी हो गया। जेड. एच. लारी ने १९४९ में संविधान सभा से त्यागपत्र दे दिया और १९५० में पाकिस्तान जियारत कर के मुसलमान होने का धार्मिक फ़र्ज़ पूरा किया और भारत का बोझ कम किया। इसी प्रकार से और भी सदस्य थे जो भारत की संविधान सभा के सदस्य रहने के बाद स्वतंत्र भारत में एक और पाकिस्तान की नींव पड़ते न देख कर निराशा में पाकिस्तान चले गए।
अब बड़ा सवाल ये उठता है कि ये किस तरह के लोग थे जो लाखों हत्याओं के जिम्मेदार थे और जिनकी हत्याएं करवाईं उन्हीं के लिए ये कानून भी बना रहे थे और इन लोगों से भी गजब थे नेहरू साहब जो चयनित प्रधानमंत्री थे और १९४६ से ही संविधान सभा की सम्प्रभुता का राग गा रहे थे लेकिन ऐसा ज्ञात नहीं है कि उन्होंने इस प्रकार के सदस्यों की संविधान सभा में उपस्थिति पर कोई टिप्पणी की हो जिन्होंने भारत की संविधान सभा की सम्प्रभुता को कुछ महीने पहले ही स्वीकार करने से इंकार कर दिया हो। शायद नेहरू साहब भी लाशों के ऊपर मोहब्बत की दुकान खोल चुके थे।
अब यहाँ तक की कहानी हों गई है तो आज की कांग्रेस के ऊपर ये सवाल खड़ा होता है कि किस आधार पर वो डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन का आरोप लगा सकती है, जबकि कांग्रेस ने देश का बंटवारा करने वाली पार्टी के सदस्यों को झंडे-डंडे के साथ संविधान सभा में घुसने दिया और भारत की संविधान सभा की सम्प्रभुता से समझौता होने दिया। जैसे नेहरू साहब ने स्वतंत्र भारत की एकता और अखण्डता के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के सदस्यों को संविधान सभा में अनुमति दी, वैसे ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग से गठबंधन के माध्यम से हिन्दू महासभा के अध्यक्ष डॉक्टर मुखर्जी ने अंतिम समय तक विभाजन रोकने की कोशिश की। अगर ये भी मान लें कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी धर्मांध थे और राजनीतिक अवसरवादिता से ग्रस्त थे, तो आज की कांग्रेस ये जवाब दे कि अगर कांग्रेस को हिन्दू-मुस्लिम एकता और धर्म निरपेक्षता पर इतना यकीन था तो कांग्रेस को पृथक निर्वाचन व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले चुनावों का बहिष्कार करना चाहिए था। आखिर कांग्रेस तो भारतीय राजनीति में बहिष्कार और असहयोग की जननी थी, तो कांग्रेस की ऐसी कौन सी मजबूरियां थीं जो उसने लखनऊ समझौता किया और पृथक निर्वाचन को मान्यता दे दी? अगर कांग्रेस के विद्वानों का तर्क ये है कि इस समझौते से मुस्लिम लीग कांग्रेस की राष्ट्रीय स्वायत्तता की मांग का समर्थन करने को तैयार हुई तो वही तर्क डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर लागू क्यों नहीं होता, कि हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के गठबंधन से जो सरकार चली, उसने भारत विभाजन के इस तर्क को कमजोर किया कि हिन्दू और मुस्लिम एक साथ सरकार में काम नहीं कर सकते। क्या इसी प्रकार की संभावनाओं को टटोलने की कोशिश कांग्रेस की तरफ से नहीं हुई जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को संविधान सभा में शामिल होने का निमंत्रण दिया जिसको मुस्लिम लीग ने नकार दिया?
कांग्रेस के नेता अपने नबी राहुल गाँधी का बचाव करें, इसमें कोई समस्या नहीं है, लेकिन इस प्रक्रिया में देश के इतिहास के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार उनको नहीं मिला हुआ है। उनकी निगाह में जैसे कांग्रेस क्रांति कर रही थी वैसे ही क्रांति करने का अधिकार हिन्दू महासभा को भी था। कांग्रेस को ये समझ लेना चाहिए कि इतिहास को रौंद कर नैतिक महानता ओढ़ने के कांग्रेस पार्टी के दिन गए। आज़ादी के लिए या तो सभी नेता लड़ रहे थे या सभी राजनीति कर रहे थे, इन दो विकल्पों के बीच कांग्रेस को तय कर लेना चाहिए कि उसको कौन सा विकल्प चुनना है।
सुप्रिया श्रीनेत और पवन खेड़ा को शुभकामनाओं के साथ सन्देश है कि राहुल गाँधी को भारत के राजनीतिक इतिहास की शिक्षा लेने को कहें क्योंकि देश के विपक्ष के नेता को एक ऐसे देश में जहाँ भारतीयों की मेधा का लोहा माना जाता है, इस प्रकार की हल्की बातें करते देख कर दिल बैठ जाता है। देश बेइज्जत महसूस करता है।