अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्स्प्रेस में कांग्रेस सांसद Rahul Gandhi ने एक लेख लिखा है। उन्होंने लेख में दावा किया है कि भारत के उद्योग क्षेत्र में एकाधिकारवाद अर्थात मोनोपॉली को बढ़ावा दिया जा रहा है।
राहुल गाँधी के आर्टिकल की हैडलाइन है- ‘A New Deal for Indian Business’ हैडलाइन से ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक कोई बहुत बड़े अर्थशास्त्री हैं लेकिन हम सब जानते हैं कि राहुल गाँधी उतने ही बड़े अर्थशास्त्री हैं जितने बड़े रघुराम राजन राजनेता।
Rahul Gandhi की पार्टी का इतिहास
लेख की भूमिका में वे ईस्ट इंडिया कंपनी की बात से करते हैं। वे बताते हैं कि जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के अंदर डर भर दिया था, उसी तरह का डर आज देश के उद्योगपतियों में है।
वे कहते हैं कि देश के उद्योगपति मोनोपॉली से डरे बैठे हैं। डर की वज़ह से फ़ोन पर बात नहीं करते। ED, CBI और IT की रेड से डरे-सहमे रहते हैं।
अब सवाल है कि खुली अर्थव्यवस्था में सरकार मोनोपॉली क्रिएट करने में कैसे मदद कर सकती है? जो भी उद्योगपति निवेश जुटा लेगा, टेंडर में ऊँची बोली लगा देगा, देश और दुनिया की दूसरी कंपनियों और उद्योगों के साथ अच्छी डील कर लेगा, अपने उद्योग को सही तरीकों से आगे बढ़ाएगा वो ग्रो करता जाएगा।
इसमें सरकार कोई भूमिका कैसे निभा सकती है? सरकार तो भूमिका तब निभाती जब लाइसेंस राज या फिर परमिट राज होता, जैसा कि कांग्रेस के शासनकाल में था।
जानकार कहते हैं कि शायद Rahul Gandhi को पता ना हो लेकिन सच्चाई यही है कि कांग्रेस के शासन काल में लाइसेंस राज के दौरान एकाधिकारवाद को सत्ता के संरक्षण में बढ़ावा दिया गया और कुछ औद्योगिक घरानों की मोनोपॉली बनाई गई।
और पढ़ें: आतंकवाद नहीं, ‘आजादी का आंदोलन’ है खालिस्तान समर्थन: न्यूयॉर्क टाइम्स ने दी क्लीन चिट, खूनी इतिहास भी भुलाया
1991 से पहले का कांग्रेस सरकारों का वो दौर भी देश को याद है जब कंपनियों को उत्पादन करने के लिए सरकार से परमिट लेना पड़ता था। कंपनियां कितने सीमेंट का उत्पादन कर सकती हैं? कितनी बोरियां सीमेंट बेच सकती हैं?
उस दौर में चुनिंदा उद्योगपतियों को कौन-सी सरकार प्राथमिकता देती थी, ये देश को याद है। अपनी पसंद के उद्योगपतियों को परमिट देकर उन्हें कैसे लाभ पहुँचाया जाता था, ये देश इतनी जल्दी कैसे भूल जाए?
यही कारण है कि 1991 में जब उदारीकरण की बात की गई तब कांग्रेसी सरकार से दशकों तक प्रोटेक्शन पाये और बॉम्बे क्लब बनाने वाले उद्योगपतियों ने उदारीकरण का विरोध किया था।
कांग्रेस सरकार ने इन संरक्षणवादियों की मांगों को स्वीकार करके उदारीकरण के नियमों में ढील भी दी थी जिससे कि इनकी कंपनियों की मोनोपॉली बनी रहे और आज राहुल गाँधी मोनोपॉली और क्रोनी कैपिटलिज्म की बात कर रहे हैं।
विशेषज्ञ भी मानेंगे कि एक नेता जो प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं उन्हें कुछ भी कहने से पहले कम से कम अपनी पार्टी का इतिहास पता होना चाहिए। ख़ैर, हम राहुल गाँधी के लेख में आगे बढ़ते हैं।
Rahul Gandhi के लेख से तथ्य गायब!
राहुल गाँधी ने आगे कुछ स्टार्टअप्स और छोटे उद्योगों के नाम लेते हुए बताया है कि कैसे इन उद्योगों ने सरकार के समर्थन और साथ के बिना तरक्की की है।
कांग्रेस सांसद यहाँ कहना चाहते हैं कि सरकार तो बड़े उद्योगपतियों की मोनोपॉली स्थापित करना चाहती है लेकिन फिर भी बिना किसी समर्थन के इन छोटी कंपनियों ने स्वयं को स्थापित किया है।
मजे की बात ये है कि राहुल गांधी ने जिन कंपनियों और उद्योगपतियों का नाम अपने लेख में लिखा है, उनमें से ज्यादातर कंपनियां केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों से, योजनाओं से, कार्यक्रमों से, रिफॉर्म से लाभान्वित होकर आगे बढ़ी हैं और स्वयं इन कंपनियों के कर्ता-धर्ता इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करते हैं।
Rahul Gandhi ने लेख में ज़ोमैटो (Zomato) का नाम लिया है। उनके दावे के उलट ज़ोमैटो के हैड दीपेंद्र गोयल का कहना है कि सरकार की नीतियों के कारण उनका उद्योग तेजी से आगे बढ़ा है।
राहुल गाँधी ने ज़ेरोधा (Zerodha) का नाम भी लिया है, जबकि ज़ेरोधा के निखिल कामथ का कहना है कि पीएम मोदी ने जो इकोसिस्टम बनाया उसी से ये उद्योग आगे बढ़ रहे हैं।
इसी तरह से राहुल गाँधी ने और भी कई कंपनियों का नाम अपने लेख में लिखा है। जितनी भी कंपनिया उन्होंने गिनाईं उनमें से ज्यादातर कंपनियों को केंद्र की किसी ना किसी योजना का प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर पर लाभ मिला है।
इन कंपनियों के ग्रो होने में सरकार की नीतियां जैसे- डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, वोकल फॉर लोकल और GST जैसे टैक्स रिफार्म सहायक बने हैं। ऐसे में राहुल गाँधी का ये तर्क की घरेलू कंपनियों को या फिर छोटी कंपनियों को पीछे धकेला जा रहा है तथ्यहीन है।
और पढ़ें: निशाने पर एयरलाइंस, रेलवे और स्टॉक मार्केट…देश के विरुद्ध आर्थिक आतंकवाद का षड्यंत्र?
आगे के लेख में Rahul Gandhi अपनी आत्मप्रशंसा के भाव में डूबे दिखाई देते हैं कि कैसे उन्होंने ये किया, वो किया है। इसके लिए लड़े, उसके लिए लड़े। यह और बात है कि देश ने उन्हें आजतक इकोसिस्टम को छोड़कर किसी के लिए लड़ते नहीं देखा।
बैंकों को किसने बर्बाद किया था?
अपने लेख के अंत में राहुल गांधी बैंकों की बात करते हुए कहते हैं कि बैंक लगभग 100 बड़े उद्योगपतियों को ही लोन देती हैं। बैंक को इससे आगे बढ़कर निष्पक्ष व्यापार करने वालों को लोन देना चाहिए।
आर्थिक पत्रकारों का कहना है कि राहुल गाँधी को बैंकों के ऊपर, लोन के ऊपर और NPA के ऊपर बोलने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। उनका कहना है कि यह UPA की सरकार ही थी जिसके लगातार 2 कार्यकाल में देश का बैंकिंग सिस्टम एक तरह से बर्बाद हो गया था।
NPA बैंकों को दिवालिया कर रहा था। उस समय की कितनी ही रिपोर्ट ऐसी हैं जिनमें बताया जाता था कि बैंकों ने कैसे सिर्फ चंद उद्योगपतियों को लोन बांट रखे थे। राहुल गाँधी शायद भूल गए हो लेकिन देश नहीं भूला है कि कैसे फोन पर लोन बाँटे जाते थे।
आज जब राहुल गांधी लेख लिखकर अर्थशास्त्री बनने का प्रयास कर रहे हैं तब उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि पहली बार मुद्रा लोन से लोगों को काम शुरू करने के लिए बैंकों से बिना गारंटी के लोन दिए गए हैं। पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि एक रेहड़ी-पटरी वाले को बिना किसी गारंटी के बैंक से लोन मिल सकता है।
ख़ैर, ये सब तथ्य हैं और प्रतीत होता है कि तथ्यों से Rahul Gandhi का छत्तीस का आंकड़ा है शायद इसलिए उनके पूरे लेख में एक भी आंकड़ा नहीं है।
बिना आंकड़ों के अर्थव्यवस्था की बात करना तो ऐसे ही जैसे आजकल रीलबाज खेत में खड़े होकर, धान की पौध हाथ में पकड़कर दावा करते हैं कि वे भी किसान हैं।