राहुल गांधी, यह नाम परिचय का मोहताज नहीं है। यह नेहरू या गांधी परिवार से आते हैं, देश में विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ ही लंबे समय तक सेंस ऑफ एनटाइटलमेंट का आनंद भी लिया है। हां, आजकल थोड़े सितारे जमीन पर आ गए हैं जो इन जैसे संभ्रांत को भी बाहर जाने के लिए एनओसी लेने की जरूरत पड़ रही है। बहरहाल एनओसी मिलने के बाद यह अमेरिका पहुँच गए हैं अपनी मोहब्बत की दुकान लेकर। यह दुकान वो पहले यूके में भी खोल चुके हैं जहां पर उन्होंने देश में कथित रूप से खत्म हुए लोकतंत्र एवं प्रधानमंत्री मोदी पर बात की थी। अब इन्हीं बातों की एक विस्तृत चर्चा अमेरिका में की गई है।
अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों के साथ बातचीत में कोई नई बात तो राहुल गांधी ने नहीं की। बस पुरानी बातें नए अवतार और तरीके से की हैं। भारत में हिंदू बनने के भरसक प्रयास के बाद राहुल गांधी विदेश में टीका लगाकर सबके सामने आए और फिर बताया कि किस प्रकार नए संसद भवन के कार्यक्रम में पीएम मोदी ‘सेप्टर’ जैसी चीज (संगोल) को रखकर नीचे जमीन पर दंडवत होने का ढ़ोंग कर रहे थे। इतना कहकर उन्होंने संगोल, तमिल धरोहर, प्रधानमंत्री मोदी और हिंदुओं के साष्टांग दंडवत प्रणाम का मजाक बनाया। इसे दरअसल भारतीय मूल्यों और संस्कृति का अपमान कहना बेहतर होगा। इसी अपमान की अपेक्षा राहुल गांधी से थी जो टीका लगाकर चुनावी हिंदू या धर्मनिरपेक्ष बनने की कोशिश करते रहते हैं। हालांकि राहुल गांधी अपनी जड़ों को नहीं भूल सकते। वे नहीं भूल सकते कि भगवा आतंकवाद की थ्योरी की पहली चर्चा उन्होंने की थी। वे यह भी नहीं भूल सकते कि वर्ग विशेष को खुश करने के लिए हिंदू रीति रिवाजों का अपमान अनिवार्य है।
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राहुल गांधी को सुनकर अक्सर मन में आता है कि इनके भाषण कौन लिखता है? इसका उद्देश्य क्या था? इसमें तथ्यों की इतनी कमी क्यों रहती है? इनके उत्तर हम बाद में जानेंगे पहले इन भाषणों के आयोजनकर्ताओं पर नजर डालनी आवश्यक है क्योंकि गली क्रिकेट का नियम होता है कि जिसका बैट होता है बैटिंग भी उसी को मिलती है।
यूके में हुए राहुल के एक कार्यक्रम में उन्होंने पाकिस्तान के कमल मुनीर जो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के ‘जज बिज़नेस स्कूल’ के प्रो वाइस चांसलर है के साथ मंच साझा किया था। अब सामने आ रहा है कि अमेरिका में हो रहे कार्यक्रम में पाकिस्तान के जमात-ए-इस्लामी और मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़े मोर्चों का हाथ है।
राहुल गांधी के जिन आख्यानों को देश में कोई नहीं सुनता, सैम पित्रोदा उन्हीं आख्यानों को सुनने इसलिए विदेशी धरती पर लोगों को खोज लेते हैं। पित्रोदा द्वारा राहुल गांधी को मेच्योर बनाने के लिए ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं। पित्रोदा का मानना है कि वो विदेश में भारतीय सरकार का अपमान माफ किजिएगा आलोचना करते हैं भारत की नहीं। विदेशी धरती पर भारत के अपमान पर आलोचना की चादर डाल कर भले ही पित्रोदा राहुल गांधी को क्लीन चिट दे दें पर उनका आकलन सर्वमान्य नहीं है।
राहुल गांधी को जब प्रधानमंत्री की आलोचना करनी होती है तो वे विदेश चले जाते हैं। अब इस प्रक्रिया में वह देश का भी अपमान कर ही देते हैं। विशेष समुदाय का अमेरिकी पत्रकार जब उनसे पूछता है कि भारत में मुस्लिमों के खिलाफ कानून बनाए जा रहे हैं, उन्हें जबरदस्ती जेल में डाला गया है तो वे इसके जवाब में अपनी मोहब्बत की दुकान खोलने लगते हैं। यह दुकान अगर भारत में चल रही है तो उसे अमेरिका में खोल के वोट तो नहीं लिए जाएंगे यह तो तय है। तो इसका उद्देश्य फिर भारत की छवि के विषय में ही हो सकता है।
राहुल गांधी कहते हैं कि जो आज मुस्लिमों के साथ हो रहा है वो आगे दलित, आदिवासी, ईसाई और सिखों के साथ भी होगा। उनका कहना है कि आने वाला समय सभी अल्पसंख्यकों के लिए मुश्किल है। यह राहुल गांधी का नहीं यह पूरे विपक्ष का एजेंडा है जो आदिवासी और दलितों को अल्पसंख्यक बनाने पर तुला है। भाजपा को प्रो हिंदू नहीं कथित सवर्णों की पार्टी साबित कर हिंदू वोट तोड़ने के लिए दलित और आदिवासी को अल्पसंख्यक बनाने का नरैटिव कार्ड अब विदेश में खेला गया है। उनका कहना है कि मुस्लिमों के साथ आज जो हो रहा है वो 80 के दशक में दलितों के साथ हो रहा था। यही कहकर उन्होंने गलती भी कर दी। अपने दावे में उन्होंने उत्तर प्रदेश का उदाहरण दिया। अगर थोड़ा होमवर्क इस आख्यान से पूर्व किया होता तो उन्हें याद रहता कि उत्तर प्रदेश में तत्कालीन समय कॉन्ग्रेस की सरकार थी। साथ ही केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। राहुल गांधी से यह पूछना चाहिए कि 80 के दशक में अगर दलितों की स्थिति खराब थी तो इंदिरा गांधी सरकार ने इसमें सुधार क्यों नहीं किया और क्यों नहीं किसी कॉन्ग्रेसी नेता ने अमेरिका जाकर इसका जिक्र कर सहायता की मांगी की। क्या तत्कालीन समय लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमी थी क्या?
पहले तो राहुल गांधी के दावे खोखले हैं। फिर भी अगर इनकी वास्तविकता को स्वीकार किया जाए तो मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों का जीवन क्या पिछले 9 वर्षों में ही कठिन बना है? अगर 80 के दशक से दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं तो 55 वर्षों से अधिक राज करने वाली कॉन्ग्रेस ने इसके लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए? क्यों नहीं राहुल गांधी अल्पसंख्यकों की स्थिति पर बात करके यह कहते कि लंबे शासन के बाद भी अगर दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक डरे हुए हैं तो इसमें सबसे अधिक भागीदारी हमारी सरकार की रही है।
राहुल गांधी यह नहीं कहेंगे। उन्हें जरूरत नहीं है। उनको सुनने वाले न तो उनसे सबूत मांगते हैं न ही तथ्य। पर यह भी ध्यान रखने योग्य हैं कि राहुल गांधी ने यह दावे अपनी पार्टी के बंद कार्यालय में हुई बैठक में नहीं अमेरिका में किए हैं। राजनीतिक नेताओं की उनपर नजर होगी। भू-राजनीति की समझ रखने वाले उनके बयानों को अपनी-अपनी सहुलियत से ग्रहण करेंगे और उसका प्रसारण भी करेंगे।
देश की छवि को बेहतर न प्रदर्शित कर पाएं तो भी उसे मलिन न करने की कोशिश करना सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है। राहुल गांधी को इसका अहसास होता तो वे पत्रकार से पलट कर पूछते कि भारत सरकार ने ऐसे कौन से कानून बनाएं हैं जो मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हैं? किन मुस्लिम बच्चों को बिना मामले के जेल में डाला गया है? हालांकि क़ॉन्ग्रेस नेता ने न सिर्फ यह आरोप मुस्कुराने के साथ स्वीकार किए बल्कि इन्हें कथित रूप से बदलने के लिए मोहब्बत की दुकान भी खोल दी।
वैसे देश विरोधी अवयवों के साथ ही राहुल गांधी के आख्यानों में वर्षों से एक विशेषता उपस्थित रही है। यह विशेषता उनकी एक विशेष छवि का निर्माण भी कर चुकी है जिसे दूर करने के लिए उनको देशभ्रमण पर निकलना भी पड़ा था। अपने आख्यानों में राहुल गांधी अक्सर तर्कहीन बात कर एक मजाकिया विवाद को जन्म देते हैं। हालांकि वर्षों का चलन देखें तो यह उनकी बौद्धिक भूल से अधिक पीआर स्टंट अधिक लगता है।
अमेरिका में गुरु नानक द्वारा थाईलैंड के भ्रमण की बात इसी विशेषता का हिस्सा है। यह तो तय है कि जिन्हें जानकारी है वो राहुल गांधी को आइना दिखा देंगे कि ऐसा नहीं हुआ था। यह भी संभव है कि उनकी पटकथा लिखने वालों को इसकी पहले से जानकारी भी हो। फिर भी यह लिखा गया जैसे महाभारत काल में जीएसटी की पटकथा लिखी गई थी। यह लिखने का उद्देश्य उन गंभीर आरोपों से ध्यान हटाना है जो राहुल गांधी अपने भाषण के अन्य हिस्से में बोल देते हैं। राजनीति में दो दशक के करीब बीता चुके कॉन्ग्रेस नेता को उनके तथ्यहीन मजाकिया दावों पर हंसके टाल देना खतरनाक हो सकता है।
राहुल गांधी अपनी समझ के अनुसार गुरुनानक को थाईलैंड भेजते हैं पर यह नहीं बताते कि गुरुनानक देव की श्रीराम में आस्था थी इसलिए वे अयोध्या जरूर गए थे। यह उनके नरैटिव में फिट नहीं बैठता है।
फिर भी, यह जरूरी है कि राहुल गांधी को गंभीरता से लिया जाए। क्योंकि वो विदेश में गुरुनानक पर बात करके जो तथ्यहीन तस्वीर पेश कर चुके हैं वो देश के लिए खतरनाक है।
अमेरिका में प्रधानमंत्री के स्टेट विजिट से पहले राहुल गांधी का वहीं जाकर उनका अपमान करना उनकी हताशा का परिणाम है। प्रधानमंत्री को सर्वज्ञाता होने का तंज मारने वाले राहुल गांधी इस बात से परेशान लग रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की तरह की स्वीकार्यता उनकी क्यों नहीं है। विदेशों में बसे भारतीय डेस्पोरा से प्रधानमंत्री मोदी को मिले स्नेह में आग लगाने के लिए ही अल्पसंख्यक कार्ड खेला गया है।
भारत के इतिहास को स्वीकार न करके यूनियन ऑफ स्टेट्स की थ्योरी का प्रचार कर रहे राहुल गांधी अपने तथ्यहीन भाषण का अंत यह कहते हुए करते हैं कि वो भारत के लोगों से प्यार करते हैं। राहुल गांधी के भाषणों में झलक रही उनकी निराशा और तथ्यहीन दावे दर्शा रहे हैं कि वे उस आम जिंदगी से उब चुके हैं जो उन्हें मजबूरन व्यतीत करनी पड़ रही है। वे उस सेंस ऑफ एनटाइटलमेंट को याद करके परेशान हैं जो उन्हें लोकतंत्र में नहीं मिल रहा। क्या यही कारण नहीं है कि उन्हें भारत में लोकतंत्र खत्म हुआ प्रतीत हो रहा है।
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