देश में चुनाव निकट आते ही राजनीतिक स्टंट दिखाई देने लगते हैं। यहां राजनीतिक स्टंट से अर्थ उन निर्णयों से है जिससे जनता का जबरन ध्यानाकर्षण किया जाए। बहुत कम ऐसा होता है कि राजनीतिक स्टंट आकस्मिक हों। अधिकतर सुनियोजित होते हैं। राहुल गांधी के सांसद पद के लिए अयोग्य पाए जाने के। बाद से किया जा रहा कांग्रेसी प्रलाप इसी राजनीतिक स्टंट का नतीजा है। सजा के बाद से ही कॉन्ग्रेस को पता था कि राहुल गांधी को इस समस्या से बाहर निकालने के लिए उन्हें कानूनी प्रक्रिया से गुजरना ही होगा फिर भी वे इसपर राजनीति करने से नहीं चूके। काले कपड़े पहनना, लोकतंत्र की समाप्ति की घोषणा या मेरा घर अभियान के जरिए कॉन्ग्रेसी नेताओं ने राहुल गांधी के लिए सहानुभूति जुटाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया पर जनसमर्थन उम्मीद के अनुसार नहीं मिल सका।
राहुल गांधी के पास माफी की अपील करने के लिए 30 दिन का समय था। कॉन्ग्रेस ने इस समय का उपयोग जनता को सड़कों पर लाने के लिए करना भी चाहा। राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेस भी की और कहा माफी वे किसी परिस्थिति में नहीं मागेंगे। हालाँकि जनसमर्थन की कमी में अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ा। नई योजना में राहुल गांधी ने दो नए पारंपरिक नीतियों पर अपना दांव खेला। पहला, लोकसभा अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की योजना बनाकर मामले से ध्यान हटाना और दूसरा लवाजमे के साथ शोर मचाना।
शोर मचाने के लिए वे सूरत में माफीनामे की अर्जी देने अपने कॉन्ग्रेस के साथियों के साथ पहुँचे। हालाँकि वहाँ राहुल गांधी की उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी। जिस काम के लिए 2 राज्यों के मुख्यमंत्री सहित पूरी पार्टी के नेताओं ने अदालत के सामने डेरा डाला था, उसे अकेले वकीलों के जरिए किया जा सकता था। राहुल गांधी अमूमन ऐसी कार्यवाहियों से बचते रहे हैं। संसद में वे तब जाते थे जब उन्हें अडानी पर सवाल उठाना हो, प्रेस कॉन्फ्रेस तब करते हैं जब उन्हें स्पष्टीकरण देना हो और अदालतों से तो वो हमेशा बचते ही रहे हैं। पर इसबार समय का फेर अलग था। चुनाव नजदीक हैं और अपनी सांसदी जाने को मुद्दे पर वे सत्ता पक्ष के खिलाफ माहौल बनाने में नाकामयाब रहे हैं। ऐसे में अब कोर्ट के सामने शोर मचाकर शक्ति प्रदर्शन किया जा रहा है।
शोर मचाने की रणनीति राजनीति में पुरानी पंरपरा है। लालू प्रसाद यादव ने वर्ष 1999 में घोटाले में मिली जमानत पर रिहा होने के बाद हाथी पर अपनी सवारी निकाली थी। यह उनका तरीका था शोर मचाने का। हाल ही में नवजोत सिंह सिद्धु भी जेल से रिहा हुए तो उनकी पीआर टीम ने इसे उनकी ग्रैंड एंट्री के तौर पर प्रस्तुत किया। ठीक इसी तरह राहुल गांधी भी सूरत माफीनामा दाखिल करने के लिए पूरे लवाजमे के साथ पहुँचे। यह महज एक कानूनी प्रक्रिया थी जिसमें मात्र वकीलों की आवश्यकता थी, पर कॉन्ग्रेसी नेताओं ने सूरत को राजनीतिक मंच बना दिया।
भ्रष्टाचार पर कार्यवाही और लोकतंत्र का समाप्त होना
दरअसल, कॉन्ग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां अब निराश हो चुकी हैं। उनकी समस्या अब विचारधारा से अधिक साख की है। पिछले 9 वर्षों के शासन से मोदी सरकार ने अपनी जो साख देश में स्थापित की है, उससे इनका लड़ना विपक्ष के लिए कठिन हो रहा है। दरअसल लोकतांत्रिक राजनीति में नेता या राजनीतिक दल को सत्ता में रहते हुए किए गए उसके प्रदर्शन से पहचान मिलती है। विपक्ष के रूप में कोई नेता या दल क्या करता है, अधिकतर यह जनता के लिए बहुत मायने नहीं रखता। इस विषय में आज के विपक्षी दलों की भूमिका सत्ता में रहते हुए कैसी रही है, यह देश से छिपा नहीं है।
ऐसे में सत्ताधारी नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष को जिस साख की जरूरत है, वह किसी विपक्षी नेता के पास फिलहाल दिखाई नहीं देता। सांसदी जाने से राहुल का नाम इस सूची से बाहर न भी होता तब भी उनकी राजनीतिक साख ऐसी नहीं कि वे नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकें। सड़कों पर किए गए शक्ति प्रदर्शन से एक नेता के रूप में राहुल गांधी अपना कद बढ़ा सकते हैं, इसकी संभावना फ़िलहाल न के बराबर है। हालाँकि उन्होंने कोशिश की और सूरत में हुए शक्ति प्रदर्शन से उन्होंने स्वयं को कद्दावर नेता के रूप में प्रस्तुत किया। ऐसा नेता जिन्हें सच बोलने के कारण टारगेट किया जा रहा है।
वर्ष, 2019 में रफाल को लेकर संसद से सड़क तक जोर आजमाइश करने के बाद अब वर्ष, 2024 के लिए उन्होंने अडानी के मुद्दे को चुनावी राजनीति के केंद्र में रखने का फ़ैसला किया है। समस्या यह है कि वे जनसमर्थन तो दूर इस मुद्दे पर विपक्ष को भी एकजुट नहीं कर पाएं हैं। अडानी को केवल भाजपा या नरेंद्र मोदी से जोड़ने की कोशिश सफल होगी, इसकी संभावना दिखाई नहीं देती। अडानी के अन्य राज्य सरकारों से क्या संबंध हैं, बिना इस बात का जवाब दिए, केवल भाजपा या मोदी से जोड़ना कम से कम राहुल गांधी के लिए असंभव सा है। कोई अन्य दल राहुल गांधी के साथ खड़ा नजर नहीं आता है। इसके लिए थोड़ी जिम्मेदारी राहुल गांधी की राजनैतिक शैली पर भी है जो वर्षों से एक ही जगह अटकी खड़ी है। वे एक मुद्दे को उठाते हैं और वर्ष भर उसपर शोर मचाते हुए झूठ बोलते हैं। गलत साबित होने पर किसी अन्य मुद्दे के साथ यही प्रक्रिया दोहराई जाती है।
डोनाल्ड ट्रम्प और राहुल गाँधी: लोकतंत्र की दुनिया के विदूषक या खलनायक
बात लोकसभा अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की करें तो सत्ता पक्ष में भय पैदा करने की यह नीति कॉन्ग्रेस बहुत समय से करते हुए आ रही है। चाहे वो भ्रष्टाचार के आरोप हों या अविश्वास प्रस्ताव, संस्थाओं की घेराबंदी। संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के खिलाफ धमकी भरी कार्रवाई का कॉन्ग्रेस का लंबा इतिहास है।
हाल ही में संवैधानिक संस्थाओं द्वारा की गई कार्रवाइयों पर कॉन्ग्रेस की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक रही है। शायद ही कभी किसी राजनीतिक दल में इतनी हड़बड़ाहट और बैचेनी देखी गई है। राहुल गांधी और उनके समर्थकों को लिए यह विश्वास करना कठिन हो रहा है कि अपनी राजनीतिक कार्यशैली में लापरवाही बरतने एवं झूठ बोलने पर उनपर कार्रवाई हो सकती है। बहरहाल राहुल गांधी के पास सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले हुए हैं। सूरत के सेशन कोर्ट के बाद उन्हें अन्य मौके भी मिलेंगे जहाँ वो शोर मचाकर जनसमर्थन प्राप्त कर सकें। अगर वो सुझाव का स्वागत करते हैं तो अगली बार अपने पक्ष में भार बढ़ाने के लिए वे हाथी का प्रयोग भी कर सकते हैं।