राहुल गाँधी संसद की सदस्यता के अयोग्य पाए गए हैं और सांसदों के निवास से सम्बंधित मामले देखने वाली इकाई ने राहुल गाँधी को सरकारी निवास खाली करने का भी आदेश दे दिया है। भारत में राजनीति जोरों पर है। राहुल गाँधी के विश्वस्त और वरिष्ठ सहयोगी श्री प्रमोद तिवारी का कहना है कि गाँधी परिवार के मामले में भारत का कानून अलग होना चाहिए। तिवारी जी की बात पर वजन डालते हुए श्री राहुल गाँधी जी की बहन श्रीमती प्रियंका वाड्रा उसी दिन से अपने परिवार के बलिदान का हवाला दे रही हैं कि उनके परिवार ने इस देश के लिए बलिदान दिए हैं। इस मामले में भाजपा की अपनी गणित है जो आप टीवी के डिबेट में सुन सकते हैं, मैं ऐसा क्या ही कह लूंगा। मेरा लेख थोड़ा अलग मुद्दे पर है और वो मुद्दा ये है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए इस पूरे मामले में क्या रखा है। आखिर साधारण नागरिक को इस मामले में कहाँ खड़ा होना चाहिए।
मामला क्या है?
राहुल गाँधी को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराए जाने के पीछे सूरत की एक कोर्ट का न्यायिक आदेश है जिसके अनुसार कोर्ट ने राहुल गाँधी को दोषी पाते हुए 2 वर्ष की जेल की सजा दी है और साथ ही साथ राहुल गाँधी को 30 दिनों का समय दिया है जिसके दौरान वो स्वतंत्र रहेंगे और इस सजा के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील कर सकेंगे। जाहिर है यदि वे सजा के विरुद्ध अपील नहीं करते हैं तो उनको जेल भेजने की कार्यवाही शुरू की जाएगी। इतना तक तो ठीक था लेकिन भारत के लोक प्रतिनिधित्व कानून के अनुसार जैसे ही किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को 2 वर्ष या उससे ऊपर की सजा होती है तो उसकी सदन की सदस्यता अपने आप समाप्त हो जाती है और एक निर्धारित समय के लिए उसके चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबन्ध लग जाता है। ये सदस्यता अपने आप समाप्त होने वाली बात किसी और ने नहीं बल्कि कांग्रेस के नेता रहे प्रसिद्द वकील श्री कपिल सिब्बल ने कही है।
इंदिरा के आपातकाल के समर्थक थे ‘गांधीवादी मूल्यों’ वाले रो खन्ना के दादाजी
अब राहुल गाँधी की पार्टी राहुल गाँधी के साथ हुए इस घटनाक्रम को भारत में लोकतंत्र की समाप्ति का सबूत बता रही है और बीजेपी का कहना है कि सजा न्यायिक प्रक्रिया से हुयी है तो चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से चुनी सरकार का इस मामले से क्या लेना देना? तो क्या ऐसा है कि भारत में अब लोकतंत्र समाप्त है और राहुल गाँधी के साथ हुआ घटनाक्रम इसका सबूत है या फिर राहुल गाँधी की पूरी पार्टी कपोलकल्पना को वास्तविकता बना कर प्रस्तुत कर रही है। थोड़ा कुरेद कर इस बात की पड़ताल करते हैं।
इस बात से किसी को इंकार नहीं होना चाहिए कि न्यायालय लोकतंत्र का एक अभिन्न स्तम्भ है और कोई भी भारतीय न्यायालय के सम्मुख अपना वाद प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र है। यहाँ गौर करने की बात ये नहीं है कि किसी व्यक्ति को नैतिकता के नाते न्यायालय में जाना चाहिए या नहीं, बात ये है कि अगर एक अनैतिक व्यक्ति भी न्यायालय जाता है तो क्या न्यायालय उसके वाद को इस आधार पर अस्वीकार कर देगा कि वो व्यक्ति अनैतिक है। या फिर वाद के नैतिक या अनैतिक होने का फैसला न्यायालय के बाहर ही कर लिया जाना चाहिए था। व्यक्ति के अनैतिक होने के आधार पर अगर चला जाये तो श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान हाजी मस्तान जैसे माफिया का मीसा कानून के विरुद्ध वाद न्यायालय को हाजी मस्तान के अनैतिक व्यक्तित्व को देखते हुए निरस्त कर देना चाहिए था लेकिन न्यायालय ने ऐसा नहीं किया। मतलब वाद प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति की नैतिकता और अनैतिकता का न्यायालय के सम्मुख कोई महत्व नहीं है। इसलिए जहाँ तक न्यायालयों का प्रश्न है भारत का लोकतंत्र राहुल गाँधी के विरुद्ध प्रस्तुत वाद में वहीं खड़ा था जहाँ राहुल जी की दादी के लगाए आपातकाल जैसे काले समय में खड़ा था। दूसरी बात कि अगर वाद की नैतिकता और अनैतिकता का फैसला न्यायालय के बाहर हो सकता तो न्यायालय जाने की आवश्यकता ही क्यों होती। इसलिए वाद को राजनैतिक अनैतिकता से जोड़ना बिना मतलब का नैतिक ढकोसला है।
अब न्यायालय में वाद प्रस्तुत होने के बाद ये प्रश्न उठता है कि क्या राहुल गाँधी को न्यायालय ने अपना पक्ष प्रतुत करने की स्वतंत्रता से किसी भी स्तर पर वंचित रखा। चूँकि राहुल गाँधी के पक्ष ने मामला सुने जाने के दौरान न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया के ऊपर ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया और अभी भी ऐसी कोई सूचना नहीं है कि राहुल गाँधी के पक्ष को न्यायालय या न्यायिक प्रक्रिया पक्षपातपूर्ण दिखाई दी हो, इसलिए हमें ये मान लेना चाहिए कि मामले की सुनवाई में राहुल गाँधी के पक्ष को भी उतनी ही स्वतंत्रता से अपना पक्ष रखने को मिला जितना वादी पक्ष को मिला। अब आते हैं वाद के परिणाम पर। न्यायालय ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद राहुल गाँधी को दोषी पाया और महत्तम संभव सजा दी। यह प्रश्न उठाना जायज़ है कि राहुल गाँधी को महत्तम संभव सजा क्यों दी गयी लेकिन इसी और इस जैसे अनेक बिंदुओं के परिमार्जन के लिए ही तो उसी न्यायालय ने राहुल गाँधी को 30 दिनों का समय दिया है कि वो अपना वाद ऊपर की अदालतों में रख सकें और सजा कम करवा सकें या मामला ही निरस्त करवा सकें।
अब राहुल गाँधी को सूरत कोर्ट द्वारा सुनाई गयी सजा के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई उनकी संसद सदस्य होने की अयोग्यता की भी पड़ताल कर लेते हैं। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि राहुल गाँधी को इतनी तत्परता से सदन के अयोग्य नहीं करना चाहिए था और यहाँ पूरी कांग्रेस को षड़यंत्र दिखता है। इस सन्दर्भ में ये देखना होगा कि जिस कानून के तहत राहुल गाँधी को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराया गया है, वो कानून क्या कहता है और इसके पहले इसी जैसे मामलों में उस कानून को किस प्रकार से लागू किया गया है। अगर वो कानून इसके पहले भी इसी प्रकार कार्यकरण में आया है तो कांग्रेस को जवाब देना चाहिए कि राहुल गाँधी को अपवाद क्यों माना जाये? क्या भारत के कानून शेष भारत पर अलग तरीके से लागू होंगे और राहुल गाँधी पर अलग तरीके से? प्रमोद तिवारी जैसे कांग्रेस सदस्यों का मानना है कि गाँधी परिवार के लिए कानून अलग तरीके से लागू होने चाहिए लेकिन भारत के मूल संविधान में प्रमोद तिवारी जैसों के ये मनोभाव कहीं उद्धृत नहीं है। और तो और, आपातकाल के समय जब इंदिरा जी भारत के मूल संविधान को तोड़ मरोड़ रहीं थीं तब भी उन्होंने अपने परिवार को इस प्रकार का विशेष लाभ देने का अनुच्छेद संविधान में कहीं नहीं डाला।
हो सकता है कि मौके का लाभ उठाने के लिए भाजपा ने त्वरित कार्यवाही की हो लेकिन राहुल गाँधी की जुबानी लापरवाही के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुयी उनकी अयोग्यता को लोकतंत्र की समाप्ति के तौर पर कांग्रेस प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही है वो भी राजनीति ही कही जाएगी। अगर ऊपरी कोर्ट में अपील की भी जाये तो भी फैसला आने में पर्याप्त समय लगेगा। क्या तब तक लोकसभा अध्यक्ष इन्तजार करते? क्या दूसरे ऐसे ही मामलों में ऊपरी कोर्ट का फैसला आने तक इंतज़ार किया गया है, यह विचारणीय प्रश्न है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि सर्वोच्च नेता का मुक़दमा था तो कांग्रेस में उपस्थित वकीलों की फौज क्या कर रही थी? आखिर कांग्रेस की राजनीतिक दिशा क्या है?
भारत में बोलने की आजादी का छिन जाना और कांग्रेसी राजनीतिक विमर्श
राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस की राजनीतिक दिशा
मामले का संक्षिप्त विवरण देने के बाद अब हम मुख्य विषय में से एक पर आते हैं और ये समझने की कोशिश करते हैं कि राहुल गाँधी आखिर कांग्रेस को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। इस सन्दर्भ में जिस कानून के कारण राहुल गाँधी की संसद सदस्यता गयी है उसकी उत्पत्ति का समयकाल राहुल गाँधी की राजनीति के बारे में पर्याप्त जानकारी देता है। क्या आप को राहुल गाँधी का विधेयक फाड़ना याद है? वो विधेयक मनमोहन सिंह की सरकार इसी कानून को वापस करने के लिए लायी थी और राहुल गाँधी ने पत्रकारों के सामने भारतीय संसद से पारित उस विधेयक के चीथड़े-चीथड़े कर दिए थे। उक्त घटना से लेकर जिस घटना ने राहुल गाँधी की सदस्यता विलोप करवाई है तक, राहुल गाँधी की राजनीति में दो तत्व बार-बार मुखर होकर सामने आते हैं। एक, राहुल गाँधी लोकतंत्र में नाटकीयता और कल्पनाशीलता को प्रमुखता देते हैं। दो, राहुल गाँधी की नाटकीयता और कल्पनाशीलता को सीमाओं से फर्क नहीं पड़ता। जहाँ तक पहली बात है तो नाटकीयता और कल्पनाशीलता दोनों ही सफल राजनीतिज्ञ के आवश्यक गुण हैं। सोनिया गाँधी में नाटकीयता थी जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार करके उच्च लोकतान्त्रिक आदर्श प्रस्तुत करने की कोशिश की। नरेंद्र मोदी में इस हद तक नाटकीयता है कि उन्होंने एक दिन शाम को नोटबंदी की घोषणा कर दी और कितनी राजनीतिक पार्टियों की राजनीति ही पटरी से ऐसे उतरी कि आज तक पटरी पर चढ़ नहीं पायी है। राहुल गाँधी और इन दोनों नेताओं की नाटकीयता में मौलिक फर्क है और वो है विश्वशनीयता का फर्क। नरेंद्र मोदी जब कुछ कहते हैं तो उनकी बात कितनी भी नाटकीय हो, विश्वसनीय होती है। लोगों को ये आभास होता है कि ये आदमी जो कह रहा है उसको पूरा करने के लिए पूरा जोर लगा देगा। राहुल गाँधी ने जब विधेयक फाड़ा था तब उनकी पार्टी के कई नेता दागदार थे जिनके विषय में राहुल गाँधी ने कभी कुछ वास्तविक कर के नहीं दिखाया। विश्वसनीयता की कमी से लबरेज़ राहुल गाँधी की नाटकीयता उनको जनता की निगाह में विदूषक बना देती है। राहुल गाँधी की पप्पू छवि स्थापित करने में निश्चित रूप से बीजेपी का हाथ है लेकिन कच्चा माल बीजेपी को कहाँ से मिलता है, ये भी तो यक्ष प्रश्न है। जहाँ तक कल्पनाशीलता की बात है तो बाकी नेता भी कल्पना का उपयोग राजनीति में करते हैं। मोदी साहब ने ‘लेस गवर्नमेंट, मोर गवर्नेंस’ की कल्पना की और सत्ता में आते ही डिजिटल, आधार और जनधन का उपयोग करके सरकारी सेवाओं की नागरिकों को आपूर्ति की तस्वीर ही बदल दी। राहुल गाँधी की विपक्ष के नेता के तौर पर ये कल्पना ठीक है कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है लेकिन उस कल्पना का उद्गार लंदन में विदेशी मदद मांग कर करना उस कल्पनाशीलता को झूठ के मुहाने पर खड़ा कर देता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक विरोध होने के कारण राहुल गाँधी की ये कल्पना भी ठीक है कि संघ ने संस्थानों पर कब्ज़ा कर लिया है लेकिन जब ये देखते हैं कि इस समय के दौरान कांग्रेस ही सत्ता में रही तो राहुल गाँधी या तो अपनी पार्टी से ही सवाल पूछते दिखाई देते हैं या फिर से झूठ बोलते दिखते हैं।
जब दोनों तत्वों को मिलाया जाता है तो ये पता चलता है कि राहुल गाँधी खुद को और खुद की पार्टी को एंटी इस्टैब्लिशमेंट स्थापित करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए राहुल गाँधी और कांग्रेस की वेशभूषा और भाषा दोनों ही एंटी इस्टैब्लिशमेंट के नैरेटिव से कहीं नहीं मिलतीं। इस मुद्दे पर आकर कांग्रेस में न तो नाटकीयता रह जाती है और न ही कल्पनाशीलता। इस मामले में अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी एक सफल उदाहरण हैं जिनसे सीख जा सकता है कि एंटी इस्टैब्लिशमेंट के नेता और पार्टी की भाषा क्या होती है। राहुल गाँधी पत्रकार सम्मलेन में पत्रकार की हवा निकलते हैं जो कोई एंटी इस्टैब्लिशमेंट वाला नेता सोच भी नहीं सकता।
पिछले दस सालों में राहुल गाँधी ने सफलतापूर्वक कांग्रेस को सत्तासीन पार्टी से नाटक करने वाली और झूठ बोलने वाली पार्टी में बदल दिया है। इतिहास में राहुल गाँधी जैसा एक ही व्यक्ति दिखता है और वो है मुहम्मद बिन तुगलक जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके उपाय दूरदर्शी थे लेकिन जहाँ तक उपायों को धरातल पर उतारने कि बात थी वो राहुल गाँधी की ही तरह नितांत असफल था। इतिहास उसे पागल शासक की संज्ञा देता है। राहुल गाँधी को मूर्खता की हद तक नाटकीय और कल्पनाशील होने की छवि से निकलना होगा। इसके लिए उनको दर्जनों भारत जोड़ो यात्राएं करने की जरूरत है और जैसा दिख रहा है बीजेपी उनके लिए उपयुक्त शिक्षक है जो उनसे दर्जनों यात्राएं करवा कर ही मानेगी।
राहुल गाँधी के अयोग्य होने के लोकतंत्र पर प्रभाव
मैं अगर कांग्रेस समर्थक होता तो मैं इस घटना को लोकतंत्र की समाप्ति कहता। बीजेपी समर्थक होने के नाते मैं इस घटना को राहुल गाँधी और उनकी पार्टी की चाल कहूंगा या लापरवाही कहूंगा। दोनों पक्षों से बचने के लिए मैं साधारण नागरिक बन लेता हूँ और इस घटना को देखता हूँ। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो अब तक तीस से ज्यादा जन प्रतिनिधि इस कानून के चलते अपनी संसदीय और विधान सभा सदस्यता गवां चुके हैं। राहुल गाँधी इस कड़ी में सिर्फ एक और नाम हैं। लेकिन फिर भी राहुल गाँधी, राहुल गाँधी हैं इसलिए ये कानून सामान्य कानून नहीं रह जाता और विशिष्ट बन जाता है। इस कानून को मुझे ध्यान से देखने की जरूरत है। लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच नेता होता है और जब तंत्र की प्रणालियाँ कमजोर हो तो नेता ही सर्वेसर्वा हो जाता है जिसके चारो ओर लोक और तंत्र नाचते हैं। ऐसे कमजोर प्रणालियों वाले लोकतंत्रों में किसी हीरो, किसी मसीहा की खोज हमेशा जारी रहती है जो आता है और तंत्र को दुरुस्त करता है ताकि लोक की श्रद्धा तंत्र पर बनी रहे। लेकिन चमत्कारिक नेता की खोज लोकतंत्र में प्रणालियों के विकास को अवरुद्ध भी करती है। विकसित लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता है कि वहां प्रणालियाँ इतनी सुदृढ़ होती हैं कि वो चमत्कारिक नेतृत्व के बिना भी ठीक ठाक काम करते रहते हैं और जनता को बुरे नेताओं की लूट खसोट का सामना नहीं करना पड़ता। इस कानून ने अचानक मेरा ध्यान इस तरफ खींचा है कि हम नागरिक के तौर पर बुरे नेताओं की बेहूदा कार्यपद्वति पर लगाम लगा सकते हैं। अगर राहुल गाँधी जैसे बड़े नेता की संसद सदस्यता किसी वर्ग विशेष के प्रति अपमानजनक टिप्पणी के कारण जा सकती है तो किसी भी नेता की जा सकती है और उसके चुनाव लड़ने पर रोक लग सकती है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि संसद से लेकर म्युनिसिपाल्टी तक बड़बोले और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ मुक़दमे कराये जाएं। एक नागरिक के तौर पर ये कानून मुझको और आपको, इस देश के सामान्य नागरिक को अधिक अधिकार देकर शक्तिशाली बनाता है और उत्तरदायी लोकतंत्र का रास्ता साफ़ करता है। आप से किसी नेता की शिकायत करने में डर लगता हो तो समूह बना कर ऐसे बड़बोले और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ न्यायलय में शिकायत कीजिये या अपने प्रतिनिधि पर शिकायत करने का दबाव डालिये। लोकतंत्र आपका है, इसको अधिकार से अपने हाथों में लीजिये और देखिये किसकी हवा निकलती है।