रजनीश ‘ओशो’ ने निंदा पर एक बार कहा था, “निंदा का अर्थ है, तुम दूसरे में उत्सुक हो, दूसरे को छोटा करने में उत्सुक हो। हम सिद्ध कर दें कि सब चोर हैं, तो तुलना में हम साधु मालूम पड़ेंगे। तभी हम निंदा में इतना रस लेते हैं। निंदा का एक ही प्रयोजन है, दूसरों की बुराई इतनी बढ़ाकर करना कि धीरे-धीरे तुम भले मालूम होने लगो।”
निंदा के सुख पर ही रजनीश आगे कहते हैं, “सर्प जन्म से ही दूसरे को चोट पहुँचाने का जहर लेकर आता है, इसलिए उसके जहर की गांठ जन्म से ही उसके भीतर है। वह दूसरे को मारने में ही, दूसरे का घात करने में ही रस लेता है। यही तो गांठ हम भी लेकर आए हुए हैं। अस्थिहीन सर्प भी एक दिन थक जाता है मगर इंसान नहीं।”
निंदा, चुग़ली, अपनी तारीफ़ और लोकतंत्र की दुहाई देना; राहुल गांधी के मन में जब पहली बार प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब जन्मा होगा, संभवतः तब भी वे यही सब हरकतें कर रहे थे जिन पर कि वे आज तक भी क़ायम हैं। राहुल गांधी यदि अपना आकलन करने कुछ देर भी बैठें तो वो पाएँगे कि वह राहुल गांधी होने का ही एक असफल प्रयोग हैं। यह व्यक्ति ख़ुद को दोहराकर थक नहीं रहा है।
यह इतना जीवट है कि इसकी स्वयं से हर बार हार के बाद भी यह नर स्वयं पर यक़ीन करना नहीं भूलता। इतनी ‘ज़लालत’ के बाद भी किसी कूपमंडूक के भीतर उसकी जिजीविषा एक ही शर्त में ज़िंदा रह सकती है यदि उसकी मूल चेतना के केंद्र में एक आदर्श पप्पू छिपा हुआ हो।
राहुल गांधी आजकल कैम्ब्रिज में हैं। भारत को कथित तौर पर जोड़ लेने के बाद वे अब कैम्ब्रिज में क्या कर रहे हैं यह दिलचस्प बात है। राहुल गांधी कैम्ब्रिज में अपने ही देश की चुग़ली करने गए हैं। गोरों के समक्ष भारतीयों की निंदा का सुख भी अलग ही है। कभी यह काम वे लोग किया करते थे जो वायसरॉय की ही पत्नी पर डाका डाल गए। कालांतर में इस ज़िम्मेदारी को वे लोग निभा रहे हैं जिन्होंने भारत की आवश्यकता से अधिक ज़िम्मेदारी ले ली है।
ट्विटर पे ‘इंडिया बनाम आइडिया ऑफ इंडिया’ की बहस को कुछ देर के लिए रोक रखा है लेकिन वे कैम्ब्रिज में जा कर भारत को राज्यों का एक संघ बताना नहीं भूलते। यह सब उस दिन हुआ जिस दिन पूर्वोत्तर भारत में कांग्रेस अपने डब्बे सिमटते देख रही थी। जनादेश ने पूर्वोत्तर भारत में कांग्रेस को एकदम नकार दिया है।
गोरों के समक्ष राहुल गांधी ने एक बार फिर भारत में लोकतंत्र की हत्या का राग छेड़ा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि राहुल गांधी से कोई यह नहीं पूछता कि आख़िर इस लोकतंत्र के हत्यारे कौन हैं? क्या ये हत्यारे वे लोग हैं जो हर बार उनके विरुद्ध मतदान कर रहे हैं? क्या ये वे लोग हैं जिन्होंने क़रीब दस साल से कांग्रेस को लगभग हर राज्य में नकार दिया है? क्या राहुल गांधी यह भूल गए हैं कि संसद में उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या बाघों के घटने की रफ़्तार से भी अधिक तेज़ी से घट रही है?
लोकतंत्र के सबसे ताज़ा उदाहरण की ही बात कर लेते हैं। हाल ही में तीन राज्यों में हुए चुनाव में कांग्रेस को 180 सीटों में से सिर्फ़ 8 सीट ही मिल पाई हैं। नागालैंड में कांग्रेस 0 पर रही, त्रिपुरा में 3 सीट हासिल कर पाई और मेघालय में कुल 5 सीट ही कांग्रेस के खाते में आई हैं। लेकिन ठीक इन्हीं चुनाव परिणामों की शाम राहुल गांधी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में जा कर कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र की हत्या की जा रही है।
देशभर में वर्तमान में 4,033 विधायक हैं। इनमें से राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के पास सिर्फ़ 658 विधायक हैं, जो कि कुल विधायकों का 16% है। साल 2014 में कांग्रेस के पास देश के 24% विधायक हुआ करते थे। इसमें और भी कमाल की बात यह है कि कांग्रेस के पास आंध्र प्रदेश, सिक्कम, नगालैंड और दिल्ली में इस वक्त एक भी विधायक नहीं है। साल 2021 में पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस का खाता तक नहीं खुल पाया था।
राहुल गाँधी ने सिद्ध किया कि वो पप्पू ही हैं
वहीं, एडीआर की सबसे ताज़ा रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉण्ड के माध्यम से कांग्रेस से भी अधिक फण्ड मिला है। क्या कांग्रेस को लोकतंत्र का आईना दिखाने का इन तमाम तथ्यों के सिवाए कोई और भी ज़रिया हो सकता है? क्या राहुल गांधी आत्मचिंतन करने ही कैम्ब्रिज गए हुए हैं?
राहुल गांधी के बयानों से ऐसा तो महसूस नहीं होता कि वे आत्मचिंतन की परंपरा में यक़ीन रखते हों। यदि आत्मचिंतन में उनका विश्वास जरा भी होता तो उन्हें विस्तारवादी चीन की महत्वाकांक्षा में सद्भावना नज़र नहीं आती, कश्मीर के आतंकवादियों को वो अहिंसा से मौन रखने के उदाहरण नहीं दे रहे होते। वे कह रहे हैं कि ख़ुद ख़ुफ़िया विभाग ने उन्हें आ कर बताया कि वे उनकी जासूसी करने वाले हैं।
वह तो पिछले कई वर्षों से सिर्फ़ इस निराशा में जी रहे हैं कि आख़िर एक ऐसा देश, जिस पर उनका स्वतः अधिकार था, उसे ही उनसे कैसे इतनी लंबी अवधि तक छीन लिया गया है? दस साल से अधिक सत्ता से अवकाश उन्हें पसंद नहीं है। राहुल गांधी का यदि वश चले तो राह चलते एक-एक मतदाता का कॉलर पकड़कर उनसे सवाल करें कि ‘बता तू मुझे वोट क्यों नहीं देता’? लेकिन संभवतः लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं ने उन्हें अभी तक थामा हुआ है।