1 जनवरी की शुभकामनाएं। ध्यान दीजिए कि ये शुभकामना सिर्फ 1 जनवरी की है। मेरा मन तो करता है कि मैं हर दिन की शुभकामना सार्वजानिक रूप से दूँ, लेकिन दुनिया बड़ी जालिम है। रोज शुभकामनाएं देने से शुभकामनाओं का बाजार मूल्य गिर जाएगा इसलिए मुझे रोज शुभकामना देने से रोका जाता है। इस बात से तो आप में से वे लोग समझेंगे जो व्हाट्सएप पर सुभाषित युक्त दैनिक शुभकामना सन्देश प्राप्त करते हैं। ऐसे संदेश प्रतिदिन भेजने के कारण बहुत से लोगों ने मुझको ब्लॉक कर रखा है। ऐसे लोग पूँजीवाद के एजेंट और मोहब्बत के दुश्मन हैं। शुभकामनाओं का बाजार बना रहे इसलिए मेरे जैसे लोगों को रोज शुभकामनाएं देने से रोका जाता है। नए साल की शुभकामना देने को लेकर मैं संशय में हूँ क्योंकि मैं समय की चक्रीय अवधारणा में यकीन रखने वाली संस्कृति से आता हूँ इसलिए मैं आश्वस्त नहीं हूँ कि आखिर महीने या साल के बाकी दिनों ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो मैं उनके साथ भेदभाव करूँ?
इस मामले में राहुल गांधी इकलौते भारतीय हैं जिनका मानसिक विकास मेरे स्तर का है। मेरी बात भी लोगों को समझ नहीं आती और राहुल गांधी की बातों के जनता पर प्रभाव के बारे में भी कमोबेश यही कहा जा सकता है। राहुल गांधी इस तथ्य को कि भारत के लोग उनकी दार्शनिक बातें नहीं समझते, पता नहीं कैसे लेते हैं, लेकिन मैं इसको गर्वानुभूति के साथ लेता हूँ कि मेरी बातें लोगों को समझ में नहीं आतीं। वास्तव में 1 जनवरी को नए साल की तरह लेना एक विशेष प्रकार की मानसिक अवस्था की भौतिक अभिव्यक्ति है। जैसे गरीबी एक मानसिक अवस्था है, ठण्ड लगना मानसिक स्वीकृति का परिणाम है, उसी तरह 1 जनवरी को नववर्ष का आरम्भ मानना मानसिक अवस्था है। “मन चंगा तो कठौती में गंगा” नामक मुहावरा शायद इस मनोवृत्ति को प्रदर्शित करने के लिए ही खोजा गया होगा। राहुल गांधी के अलावा सिर्फ मैं ही हूँ जो यह समझते हैं कि वाह्य संसार सिर्फ मनोवृत्तियों और मानसिक अवस्था का भौतिक विस्तार है। मेरे पास चवन्नी नहीं है और गली का कुत्ता भी मुझे देख कर नहीं भौकता लेकिन क्योंकि मैं मानसिक तौर पर खुद को बुद्धिजीवी समझता हूँ इसलिए मैं बुद्धिजीवी हूँ।
खुद को बुद्धिजीवी समझने के बाद क्या किया जाए, इसका उपाय मैंने तो निकाल रखा है। मेरी मानसिक कल्पना में बुद्धिजीवी सामान्य इंसानों द्वारा किए जाने वाले बाकी कामों के अलावा बढ़िया खाना खाता है और गंभीर किस्म के जनता को समझ में न आने वाले सन्देश लिखित और मौखिक रूप से प्रसारित करता है। एक बार मनोवृत्ति में बुद्धिजीवी की ऐसी छवि बैठ गई तो अब मैं सिर्फ खाने पर समय व्यर्थ करता हूँ। इसके अलावा मैं जो भी लिख या बोल देता हूँ, उसको कम से कम मैं ज्ञान ही मानता हूँ। मेरा कहा, बोला या लिखा गया लोगों को समझ में नहीं आता, यह लोगों की बौद्धिक विकलांगता है। खुद को बुद्धिजीवी की मानसिक अवस्था में मान लेने के बाद मैं ये अपना नैतिक कर्तव्य मानता हूँ कि मैं ज्ञान दूँ। विद्वान कल को इस ज्ञान को विश्लेषित करेंगे और तब जाकर लोगों को समझ आएगा कि मैं कितना महान बुद्धिजीवी था।
ठीक मेरी ही तरह राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री होने को मानसिक अवस्था मानते हैं और उनके अनुसार भौतिक जगत में प्रधानमंत्री होना खुद को प्रधानमंत्री मानने की मानसिक स्थिति का भौतिक उद्गार मात्र है। ज्यादा महत्वपूर्ण है खुद को प्रधानमंत्री की मानसिक अवस्था में लाना जो कि राहुल जी खुद को कभी का ला चुके हैं। इस प्रकार राहुल जी एक दार्शनिक हैं जो खुद को प्रधानमंत्री होने की मानसिक अवस्था में ले जा चुका है। दार्शनिक प्रधानमंत्रियों का इस देश में लम्बा और समृद्ध इतिहास रहा है और राहुल गांधी सिर्फ उस इतिहास को विस्तृत ही कर रहे हैं। इतने स्पष्टीकरण के बाद लोगों को ये समझ में आ जाना चाहिए कि मैं और राहुल गांधी जैसे लोग इस मुल्क के कुछ बुद्धिमान लोगों में से हैं और ये जनता मूर्ख है जो हमारी बातों को नहीं समझ पा रही है।
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मेरी और राहुल गांधी की मानसिक अवस्था के भौतिक उद्गार को जनता द्वारा स्वीकार न किया जाना कितना अवसादपूर्ण है, यह केवल वे लोग समझ सकते हैं जो जैव वैज्ञानिक दृष्टि से तो पुरुष (महिला) पैदा हुए हैं लेकिन मानसिक रूप से खुद को महिला (पुरुष) समझते हैं। एक तो सरकार ऐसे लोगों को मानसिक अवसाद से निकलने के लिए लिंग परिवर्तन हेतु धन की व्यवस्था नहीं कर रही ऊपर से जनसामान्य इनको वो नहीं मान रहा जो ये खुद को मान रहे। अब बताइए इस बेदर्द ज़माने में इंसान जिए तो जिए कैसे? हर किसी को खुद को वो सब मानने का हक़ होना चाहिए जो वो खुद को मानना चाहता है। पुरुष या स्त्री बन कर पैदा होना तो मात्र एक जैव वैज्ञानिक दुर्घटना है। क्या मनुष्य खुद को जीवन भर एक जैव वैज्ञानिक दुर्घटना में बांधे रखे? नहीं, कभी नहीं। ये तो प्रकृति के सामने समर्पण करना हुआ जबकि मनुष्य का उद्भव ही प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए हुआ है। विज्ञान ने मनुष्य का शोषण किया तो क्या समाज का दायित्व नहीं है कि मनुष्य को उस शोषण से मुक्त करे? मानसिक अवस्था में, मैं खुद को बुद्धिजीवी और राहुल गांधी खुद को दार्शनिक प्रधानमंत्री मानते हैं तो समाज का दायित्व हो जाता है कि हमें भौतिक जगत में उसी तरह देखे।
ऐसी ही दार्शनिक मानसिक अवस्था में होने के कारण श्री राहुल गांधी जी ने भारत की संसद द्वारा पारित एक विधेयक प्रेस के सामने फाड़ा था। वास्तव में विधेयक फाड़ना इस बात का उद्घोष था कि राहुल गांधी मानसिक रूप से खुद को मानव निर्मित संसदीय व्यवस्थाओं और प्रणालियों से ऊपर मान चुके हैं। ये कोई सामान्य घटना नहीं थी। ये महात्मा बुद्ध द्वारा गया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में दिए गए पहले उपदेश जैसी घटना थी लेकिन मूर्खों को तब भी नहीं समझ आया था और अब भी समझ नहीं आ रहा। “मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ” जैसी दार्शनिक सूक्ति का मंतव्य साधारण कम अक्ल लोग नहीं समझ सकते।
ऐसा नहीं है कि भारतीयों को दार्शनिकता से अवगत करने के लिए प्रयास नहीं हुए। जवाहर लाल नेहरू द्वारा खोले गए विद्यालयों में पढ़ कर भारतीयों को अब तक विद्वान हो जाना चाहिए था लेकिन पैसे की कमी के चलते वो पर्याप्त विद्यालय नहीं खोल सके और अधिकांश लोग संघ जैसी संस्थाओं के विद्यालयों में पढ़ने के कारण दार्शनिक न हो सके। जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि बाकि विद्यालय भी लोगों को दार्शनिक बनाएं लेकिन संघ जैसी संस्थाएं लोगों को दार्शनिक नहीं बनाना चाहती। अफसोसनाक बात है कि आज के हिन्दुस्तान में अधिकांश लोग संघ के विद्यालयों में पढ़ कर निकले हैं और उनमें दार्शनिकता को समझने का नितांत अभाव है। भारतीयों में दार्शनिकता का अभाव होने के कारण ही कुछ नेहरू जी को चाचा मानते हैं और कुछ नहीं मानते। जो नेहरू जी को चाचा नहीं मानते उनका कहना है कि चाचा नामक जानवर भाई, भतीजा, भांजा, भाट, भांड, भूमिहार… जैसी आधुनिकता विरोधी उक्तियों में विश्वास करते हैं इसलिए इनका विश्वास अंकल जी जैसे जानवरों पर ज्यादा है।
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भारत जोड़ो यात्रा भी राहुल गाँधी और कांग्रेस में बचे खुचे दार्शनिकों की मानसिक अवस्था की भौतिक अभिव्यक्ति है। कांग्रेस में उपस्थित दार्शनिकों का समूह मानसिक रूप से यह स्वीकार कर चुका है कि भारत टूट चुका है, जो बात सामान्य जनता नहीं समझ पा रही। कांग्रेस के दार्शनिकों की यह स्वीकारोक्ति कि भारत राज्यों का एक संघ मात्र है, उसी मानसिक अवस्था से उपजा विचार है। आम जनता को समझ में न आने वाली मानसिक अवस्था को सत्य मान कर उस मानसिक अवस्था का यात्रा के माध्यम से भौतिक प्रतिकार करना कितना बड़ा दार्शनिक क्रन्तिकारी कदम है, यह शायद आने वाली पीढ़ियां जान पाएं। इसके लिए विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे सामाजिक विज्ञानी अनेक पुस्तकें लिखेंगे, इसको लेकर मुझको कोई संदेह नहीं है। जवाहर लाल नेहरू का पंचशील भी दुनिया को समझ में नहीं आया था लेकिन इससे पंचशील का सिद्धांत कम दार्शनिक नहीं हो जाता। ऐसे महान दार्शनिक विचार पर कई सियाचिन न्योछावर किये जा सकते हैं। राहुल गांधी अभी मानसिक अवस्था के स्तर पर उतने अंतर्राष्ट्रीय नहीं हो पाए हैं लेकिन एक न एक दिन हो जायेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यह भी हो सकता है कि राहुल गांधी चाहते न हों कि अंतर्राष्ट्रीय दौरों पर प्रधानमंत्री के साथ जाने वाली सुरक्षा व्यवस्था ये जान पाए कि विदेश में वो क्या करने जाते हैं। मानसिक अवस्था में खुद को कुछ मान लेने के साथ ये सुविधा तो रहती ही है कि आप चीज़ों को अपने हिसाब से तय कर पाएं। किसी से राय बात नहीं करनी पड़ती। स्वयं पर पूर्ण स्वायत्तता होती है। क्योकि मैं बुद्धिमत्ता के उसी स्तर पर हूँ जिस पर राहुल गाँधी हैं इसलिए मुझे पंचशील से लेकर राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा का दार्शनिक महत्व खूब समझ आ रहा है।
इतने उपदेश के बाद मैं फिर से शुभकामनाओं पर वापिस आता हूँ और ये कहना चाहता हूँ कि हमें नव वर्ष की जगह नव दिवस की शुभकामनाएं एक दूसरे को प्रसारित करनी चाहिए। पूंजीवादी ताकतें एक दूसरे को नव दिवस की शुभकामनाएं देने से अगर रोकती हों तो कम से कम हमें मानसिक अवस्था ऐसी रखनी चाहिए कि हर दिवस को नूतन दिवस मान कर चला जा सके। ऐसा करने से सारे दिवसों के बीच की असमानता कम होगी और मोहब्बत बढ़ेगी। मोहब्बत कैसे बढ़ेगी ये जानने के लिए छुट्टियों का कैलेंडर देखना पर्याप्त है जिसको पहले की सरकारों ने नानाविध प्रकार की जयंतियों, पुण्य तिथियों और उत्सवों में बाँट रखा है जो लोगों को समूहों में बाँट कर देखने से ज्यादा कुछ नहीं है। मानसिक स्थिति में खुद को प्रधानमंत्री मान चुके राहुल गांधी या मैं जब भौतिक जगत में प्रधानमंत्री बनेंगे तो इस दिशा में जरूर प्रयास करेंगे। आखिर वो सुबह कभी तो आएगी।