सितंबर, 2022 से शुरू हुई भारत जोड़ो यात्रा अपने अंत की ओर है। इसी बीच यात्रा में सुरक्षा में ढिलाई की बात सामने आ रही है। हालांकि जम्मू कश्मीर प्रशासन ने राहुल गांधी को यात्रा के प्लान में फेरबदल न करने की सलाह पहले ही दी थी पर उसके बावजूद राहुल गांधी ने उसमें बिना बताये फेरबदल किया और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रबंधन में इस ढिलाई को राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी की हत्या से जोड़ कर देख लिया।
ये पहली बार नहीं है जब कॉन्ग्रेस नेताओं द्वारा भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गाँधी को नेहरू, एमके गाँधी, इंदिरा और राजीव से जोड़ने की कोशिश की गई हो। यात्रा के दौरान स्वयं राहुल गाँधी और उनकी पार्टी द्वारा उन सभी ऐतिहासिक चिह्नों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया गया है जो फिर से उन्हें कभी सफलता और गौरव का परिचय रहे ‘गांधी परिवार’ का हिस्सा मान सके। पर सवाल ये है कि राहुल हैं तो गाँधी परिवार से ही तो फिर इन चिन्हों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता क्यों है?
शायद इसका कारण यह है कि एक समय राष्ट्र के लिए लड़ने वाले परिवार की छवि वाला नेहरू गाँधी परिवार आज परिवारवाद, धार्मिक तुष्टिकरण और भ्रष्टाचार जैसे आरोपों के साथ नेतृत्व क्षमता की कमियों से जूझ रहा है। इन्हें दूर करने के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करने के बजाए ‘सीन रीक्रिएट’ करने जैसा कार्य पार्टी प्रबंधन द्वारा राहुल गाँधी की इच्छा अनुसार किया जा रहा है। पिछले करीब 20 वर्षों से भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे राहुल गाँधी देशभर में अब तक तपस्वी, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, विद्रोही, महाकाल के भक्त या यूं कहें कि करीब-करीब संघी बनकर घूम रहे हैं।
इससे यही बात समझ में आ रही है कि कॉन्ग्रेस के ये 52 वर्षीय युवा नेता अब राहुल गाँधी के अलावा सब कुछ बनना चाहते हैं। ये राहुल गाँधी से इतना रूठ चुके हैं कि उन्होंने उसे मार देने का भी दावा कर डाला है। बार-बार की जाने वाली इस कोशिश के कारण देश के लिए राहुल गांधी की छवियां चन्द्रमा की कलाओं की तरह बदलती रहती हैं।
जब 2004 में उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया था तो वे युवाओं की फौज खड़ी करना चाहते थे। उन्हें लगता था उनकी बातें सिर्फ वरिष्ठ नेताओं को समझ में नहीं आती इसलिए युवा उनके पक्ष में होंगे तो वे अपने आदर्श उन्हें समझा पाएंगे। युवा और अनुभवी नेताओं की इन जद्दोजहद में वो परंपरा के अनुसार कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष भी बने। प्रक्रिया और राजनीतिक घटनाक्रमों, चुनावी असफलताओं और नेतृत्व की कमियों के चलते उनको आलोचना का सामना तो करना ही पड़ा, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने भी उनसे किनारा कर लिया।
राहुल गाँधी कॉन्ग्रेस में गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी है राजनीति उन्हें विरासत में मिली है लेकिन राजनीतिक शिक्षाओं से वो कुछ सीख नहीं पाए। चुनावी हार होने पर वे हार पर चिंतन विदेश जाकर करते हैं। लोकसभा चुनाव परिणाम हो, पंजाब में चुनाव हो, या बिहार चुनाव हो, वे भ्रमण की शरण में चले जाते हैं। 2020 में हुए बिहार चुनावों के बाद राहुल गांधी शिमला में अपनी बहन के घर राजनीतिक ‘ब्रेक’ लेने चले गए थे तो आरजेडी नेता ने उनकी खुली आलोचना करते हुए कहा था कि, “यहाँ चुनाव चल रहा है और राहुल गाँधी शिमला में अपनी बहन के साथ पिकनिक पर हैं। इस तरह पार्टी चलती है क्या? जिस तरह कॉन्ग्रेस काम कर रही है उससे भारतीय जनता पार्टी को फायदा होगा न।”
लोकसभा चुनाव में मिली हार का ठीकरा उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर फोड़ दिया और जिन राज्यों में पार्टी की सरकारे हैं उनमें भी चल रहे नेतृत्व की जंग को वो शांत करने में असफल रहे हैं। कॉन्ग्रेस के भीतर बने विद्रोही दल जी-23 को वो मनाने में असफल रहे। 2014 के चुनावों में मिली भारी हार के बाद राहुल चाहते तो पार्टी के बीच बने मन मुटावों को मिटाने की दिशा में काम करते लेकिन उन्होंने नेताओं के जाने के लिए पार्टी के दरवाजे खोल दिए। परिणाम ये रहा कि गुलाम नबी आजाद जैसे वरिष्ठ नेता के साथ ही उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसे युवा नेताओं से भी हाथ धोना पड़ा।
2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में मिली हार के बाद 2024 के चुनावों में भी कॉन्ग्रेस पार्टी राहुल गाँधी के ही नेतृत्व को आगे रखकर चुनाव लड़ना चाहती है। पूरे देश की यात्रा की जा रही है लेकिन इससे पहले वो धरातल पर काम करना भूल गए। चुनावों में खड़े होने के लिए सीट चुनने की प्रक्रिया जैसे विषय से उनका कभी सामना नहीं हुआ। ये तो उन्हें विरासत में ही मिल गया था। कमी यहाँ रही नब्ज पकड़ने की, चाहे वो राजनीति की हो, पार्टी की हो, नेतृत्व क्षमता की हो या साधारण व्यवहार की।
राहुल बाबा इन सभी के साथ संघर्ष करते नजर आते हैं। आधिकारिक दस्तावेजों को फाड़ना, शोक सभाओं में हंसना या धार्मिक ग्रंथों पर मनगंढत ज्ञान, यह सब राहुल गाँधी के राजनीतिक रूप से कमजोर व्यवहार की सूची को लंबा बनाते हैं। लगभग 20 वर्षों तक राजनीति में सक्रिय रहने के बाद भी राजनीतिक जमीन की उनकी तलाश उन्हें एक कमजोर राजनेता के रूप में प्रस्तुत करती है। ऐसे में युवा की छवि से बाहर निकलकर स्वयं को अनुभवी राजनीतिज्ञ बताने की कोशिश छोड़ राहुल गाँधी अगर एक बार कार्यकर्ता बनकर पार्टी के लिए काम करें तो संभव है कि उन्हें ‘री-लॉन्चिंग’ की जरूरत न पड़े।