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Home » राहुल गांधी भारतीय लोकतंत्र में अपनी औपचारिक भूमिका से डरते क्यों हैं?
प्रमुख खबर

राहुल गांधी भारतीय लोकतंत्र में अपनी औपचारिक भूमिका से डरते क्यों हैं?

अक्सर विदेश यात्राओं पर रहने वाले राहुल गांधी एक पार्टी कार्यकर्ता, सांसद और नेता के तौर पर औपचारिक भूमिका से बचते आए हैं।
Pratibha SharmaBy Pratibha SharmaSeptember 16, 2023No Comments7 Mins Read
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Rahul gandhi running from duties
राहुल गांधी
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स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस को भारत सरकार की कमान मिलना कोई विवादित विषय नहीं था। आने वाली परिस्थितियों ने इंदिरा फिर राजीव गांधी और अन्य कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के लिए विरोधी चुनावी माहौल का निर्माण नहीं किया था। संभव है कि जो दल कांग्रेस के सामने खड़े होते थे वो नेता भी कमोबेश कांग्रेस से ही निकलकर बाहर आए थे। ऐसे में पार्टी से विद्रोह करने वाले नेताओं के स्थान पर जनता ने कांग्रेस के साथ कहीं न कहीं बने रहने का फैसला किया। हालांकि 90 के दशक बाद बदले राजनीतिक समीकरण और कांग्रेस सरकार की विफलताओं ने जनता को नए विकल्प  तलाशने पर मजबूर किया। 2004 से 2014 तक के यूपीए काल के परिणाम के बाद मिली हार से कांग्रेस कभी उभर ही नहीं पाई। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल तक कांग्रेस राहुल गांधी को एक गंभीर नेता के रूप में पेश करने को लेकर चुनौती का सामना करती रही है।

अपनी विदेश यात्राओं की अधिकता और औपचारिक जिम्मेदारियों के प्रति राहुल गांधी के शिथिल रवैए ने यह सुनिश्चित किया है कि उनकी पहचान सिर्फ गांधी परिवार तक ही सीमित रहे। भारत जोड़ो यात्रा करना या लद्दाख जाकर बार-बार चीन पर झूठ बोलना राहुल गांधी को गंभीर नेता नहीं बनाता है। वो राजनीति कर रहे हैं, पर इसका स्तर उन्हें दिए गए कद के साथ न्याय नहीं करता है। इसका कारण राहुल गांधी का औपचारिक भूमिका के प्रति रवैए से जुड़ा है। जाहिर है कि जब आपके पास औपचारिक जिम्मेदारी निभाने की शक्ति हो तो क्यों आप  सिर्फ लद्दाख जाकर फोटो सेशन कर रहे हैं। क्या राजनीतिक बयानबाजी औपचारिक भूमिका का विकल्प बन गई है?

बहुत लंबा समय नहीं बीता है जब गुजरात हाईकोर्ट द्वारा राहुल गांधी की सांसद के तौर पर लोकसभा में सदस्यता रद्द हुई थी। इसके बाद कांग्रेस का मेल्टडाउन किसे याद नहीं। ‘राहुल गांधी संसद के लिए जरूरी है’ की उद्घोषणाएं की गई थी। ऐसा करते हुए इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि जबतक एक सांसद की भूमिका में राहुल गांधी की उपलब्धियाँ क्या रही हैं? संसद में उनकी उपस्थिति कैसी रही? उन्होंने किन विषयों को उठाया या संसद में खड़े होकर कैसे भाषण दिये?

संसद में राहुल गांधी की उपस्थिति के आंकड़े

राहुल गांधी का सासंद के तौर पर रिपोर्ट कार्ड यह दर्शाने के लिए काफी है कि वे देश के लोकतंत्र में अपनी औपचारिक भूमिका के प्रति कितना गंभीर रहे हैं। फिर भी सिर्फ एक वर्ष की चुनावी यात्रा से किसी प्रकार के चमत्कारिक बदलाव की अपेक्षा कर रहे लोगों से प्रश्न है कि वे कब तक बयानबाजी को काम का विकल्प मानते रहेंगे?

मोदी सरकार को घेरने के लिए राहुल गांधी ने प्रमुख रूप से राफेल, अडानी और भारत-चीन सीमा विवाद को मुद्दा बनाया है। राफेल पर सर्वोच्च न्यायालय से डांट खाने के बाद भी कांग्रेसी नेता अभी भी चीन पर झूठ बोलने से नहीं कतराते हैं। प्रश्न यह है कि राहुल गांधी ने चीन सीमा विवाद जैसे गंभीर विषय को उस संसदीय समिति के सामने क्यों नहीं उठाया जिसके वो सदस्य हैं और जहां उनकी बयानबाजी को उचित जवाब मिलने की संभावना है।

राहुल गांधी रक्षा पर स्थायी संसदीय समिति (standing committee on defence) के सदस्य हैं और समिति की एक भी बैठक में शामिल नहीं हुए हैं। ऐसी समितियों के सदस्यों पर वार्षिक रिपोर्ट और अन्य संबंधित मामलों की समीक्षा के अलावा संबंधित विभाग से संबंधित बिलों की समीक्षा करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। राहुल गांधी ने समिति की एक भी बैठक में भाग नहीं लिया है जबकि समिति की अब तक 11 बैठकें हो चुकी हैं।

दिलचस्प बात यह है कि समिति समय-समय पर सदस्यों के साथ महत्वपूर्ण क्षेत्रों का दौरा भी करती है जिसमें सीमा विवाद से लेकर सैन्य जरूरतों का अध्ययन किया जाता है। तो न सिर्फ राहुल गांधी बैठकों में अनुपस्थित रहे बल्कि वे नाथू ला दर्रा और तवांग सहित सीमावर्ती क्षेत्रों में समिति के अध्ययन दौरे में भी नदारद रहे।

अब वे लद्दाख दौरा कर रहे हैं और बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि चीन ने लद्दाख की जमीन पर कब्जा किया है। एक संसदीय समिति के सदस्य के रूप में यह बयान जितना गैर-जिम्मेदाराना है उतना ही यह सोचने पर विवश करता है कि सीमा क्षेत्र को समझने के लिए उन्होंने अज्ञात स्थानीय लोगों की बात का जिक्र क्यों किया जबकि वो समिति के साथ क्षेत्रों का दौरा कर इसपर विश्वसनीय जानकारी प्राप्त कर सकते थे।

राहुल गांधी औपचारिक भूमिका को विकल्प के रूप में नहीं मानते हैं। उनके अनुसार जो दिखता है वही बिकता है। फिर भी चीन द्वारा भारतीय जमीन पर कब्जा करने और राफेल डील जैसे सैन्य सौदों पर लगातार आलोचनारत रहने  वाले नेता के लिए यह असामान्य है कि वह उस समिति में ही उपस्थिति न हो जो उनके राजनीतिक मंचों पर उठाए गए प्रश्नों का जवाब दे सकती है।

स्वराज्य की इस रिपोर्ट के अनुसार स्टैंडिंग समिति की अधिकतर बैठकों के दौरान राहुल गांधी विदेश यात्राओं पर थे। चीन के मुद्दे पर सरकार की नीति के विरोध के प्रति वो कितना गंभीर हैं और इसे बदलने के कितने प्रयास कर रहे हैं यह उनकी विदेश यात्राएं दर्शा रही हैं।

विदेशी मंचों पर लोकतंत्र पर प्रश्न उठाना और सरकार की चीन नीति पर आलोचना करना राहुल गांधी की आदत बन गई है। पर देश के आतंरिक मुद्दों के लिए विदेशी मंच का इस्तेमाल करने के स्थान पर वे उस समिति में अपनी भूमिका क्यों नहीं निभा पाए?

सांसद के तौर पर राहुल गांधी को कई अवसर मिले थे जब वे सरकार की चीन नीति पर  स्वयं के भ्रम को दूर कर सकें। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान उन्हें प्रत्येक पाँच वर्षों में विदेश मामलों की संसदीय स्थायी समिति में भी नियुक्त किया गया था। उस समिति की कुल 86 बैठकों में से राहुल गांधी ने केवल 9 में भाग लिया।

भारत-चीन सीमा विवाद को लेकर लगातार मीडिया में बने रहने की कोशिश करने वाले राहुल गांधी सरकार की विदेश नीति पर चर्चा करने के लिए विदेश मामलों की संसदीय स्थायी समिति का प्रयोग कर सकते थे पर इसके लिए उन्हें औपचारिक रूप से उपस्थित होना पड़ता।

विदेश यात्राओं के जरिए राहुल गांधी न सिर्फ एक सांसद के तौर पर काम करने से बचते रहे हैं बल्कि अपनी ही पार्टी बैठकों में भी अनुपस्थित रहे। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली हार के बाद राहुल गांधी ने अपने औपचारिक अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। पार्टी बैठकों से नदारद रहने के साथ ही औपचारिक अध्यक्ष पद की भूमिका छोड़ने के बाद भी लाभ के पद से राहुल गांधी आखिर कितना दूर हुए हैं?

राहुल गांधी कांग्रेस के औपचारिक अध्यक्ष न हो पर अभी भी पद से जुड़े निर्णय और उनकी भूमिका को किस प्रकार पार्टी में देखा जाता है क्या यह बताने की जरूरत है? सोशल मीडिया से लेकर चुनाव प्रचार तक लगा राहुल गांधी का चेहरा दर्शा रहा है कि राहुल गांधी को औपचारिक भूमिका नहीं बस उस भूमिका से मिलने वाले लाभ चाहिए।

राहुल गांधी सिर्फ बयानबाजी कर राजनीतिक स्क्रूटनी से नहीं बच सकते हैं। अगर किसी नेता का मत है कि सरकार पर बिना तथ्यों के लगातार हमलावर रहने पर जनता आपकी राजनीतिक भूमिका पर प्रश्न खड़े नहीं करेगी तो उन्होंने लोकतंत्र की ताकत को हल्के में ले लिया है।

वायनाड के स्थानीय लोगों द्वारा उनपर संसदीय क्षेत्र से नदारद रहने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में राष्ट्र प्रमुख की लालसा करने से पहले राहुल गांधी को एक बार निज का अवलोकन कर लेना चाहिए।

दरअसल राजनीतिक मंचों पर तो राहुल गांधी अपने दावों के साथ उपस्थित रहते हैं पर बात जब औपचारिक भूमिका की हो तो वे उससे बचने का प्रयास करते हैं। एक सांसद, संसदीय समिति के सदस्य और विपक्ष के नेता के तौर पर औपचारिक भूमिका से राहुल गांधी का डर उनके प्रति निराशा पैदा करता है।

यह भी पढ़ें- राहुल गांधी की ‘संसदीय कार्यवाही’ का हवाला देते हुए HC ने दी छूट, मात्र 7 बहसों में लिया है हिस्सा

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