भारत एक अर्ध-संघात्मक राष्ट्र है। यह बात समय-समय पर दोहराई जाती रही है। भारतीय संविधान में कहीं भी संघात्मक (Federation) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है और इसके स्थान पर ‘राज्यों का संघ’ लिखा गया है। सरकार को अगर परिभाषित करना हो तो भारत के मामले में सरकार का ऐसा स्वरूप है, जिसमें कम से कम दो स्तर मौजूद हैं, पहला केंद्रीय और दूसरा राज्य या स्थानीय स्तर।
भारत में संघवाद स्थानीय, राज्य और केंद्रीय स्तर पर शक्तियों के बँटवारे के रूप में परिभाषित है, जिसमें कानून व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। इसका अर्थ यह है कि किसी राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है और अगर राज्य सरकार इसमें नाकाम रहती है तो यहाँ राष्ट्रपति शासन के तहत आवश्यक कानून व्यवस्था स्थापित की जाती है।
इसका उदाहरण हमें आजादी से अब तक करीब 130 से अधिक बार मिल चुका है। राष्ट्रपति शासन, एक तरह से राज्य द्वारा कानून व्यवस्था बनाने में असफल रहने का प्रमाण है, इसलिए आवश्यक है कि राज्य पहले से ही कानून व्यवस्था पर पकड़ मजबूत रखे, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग करें और कड़े फैसले लें।
राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ने से न केवल राजनीतिक उठापटक बढ़ती है बल्कि इसका सीधा असर राज्य के आर्थिक और सामाजिक विकास पर पड़ता है। इसका प्रभाव हम पहले ही जम्मू-कश्मीर और पंजाब में देख चुके हैं। पंजाब में अब तक 8 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। 1987 से 1992 तक तो यहाँ पर 5 वर्षों तक राष्ट्रपति शासन रहा था। हालाँकि, उसके बाद हालात सुधरे और पंजाब ने खुशहाल राज्य की राह पकड़ी परन्तु हाल में हुई घटनाओं की गंभीरता पर नजर डालें तो पंजाब की स्थिति लगातार चिंताजनक होती जा रही है।
सबसे ताजा मामला तरन-तारन का है, जहाँ 10 दिसम्बर रात 1 बजे सरहाली पुलिस स्टेशन पर आरपीजी (आरपीजी- रॉकेट-प्रोपेल्ड ग्रेनेड लॉन्चर) से हमला किया गया। मामले की जानकारी लेने के लिए मौके पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने पहुँचकर जाँच शुरू कर दी है। बहरहाल, हमले में 7 संदिग्धों की गिरफ्तारी हो चुकी है।
पत्रकारों से बात करते हुए पंजाब के डीजीपी गौरव यादव ने कहा कि यह हमले एक कट्टरपंथी विचारधारा के तहत किए जाते हैं। To bleed india through thousand cuts, अर्थात भारत पर हजारों घाव लगाकर उसे कमजोर करके विभाजित करना है। यह पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों और उसकी खुफ़िया एजेंसी का ध्येय रहा है।
इस हमले के साजिशकर्ता में पाकिस्तान की खुफिया इकाई ISI के संरक्षण में पनप रहे खालिस्तान समर्थकों का नाम सामने आना शुरू हुआ ही था कि सिख फॉर जस्टिस (SFJ) ने हमले की जिम्मेदारी ले ली। SFJ एक चरमपंथी संगठन है, जो पंजाब को भारत से अलग करना चाहता है। इसकी फंडिंग विदेश में बैठे खालिस्तान समर्थक करते हैं।
SFJ द्वारा प्रायोजित यह पंजाब या देश में पहला हमला नहीं है। इसी वर्ष जनवरी में पंजाब दौरे के दौरान हुई प्रधानमंत्री की सुरक्षा चूक मामले में भी SFJ का नाम सामने आया था और संगठन के सरगना आतंकवादी पन्नू ने सोशल मीडिया पर भड़काऊ वीडियो जारी कर पंजाब VS इंडिया की बात की थी।
बात SFJ की हो या अन्य खालिस्तान समर्थक संगठनों की पंजाब में ऐसी घटनाओं में इजाफा हो रहा है। इसी वर्ष मई माह में मोहाली के पंजाब पुलिस के इंटेलिजेंस विंग के हेडक्वार्टर पर भी रॉकेट लॉन्चर से हमला हुआ था। बीते वर्ष दिसम्बर, 2021 में लुधियाना के कोर्ट कॉम्प्लेक्स पर भी हमले की साजिश हुई थी, जिसमें एक आतंकवादी की मौत हुई थी।
पंजाब की वर्तमान स्थिति 1980 और 1990 के खौफनाक दौर का दृश्य दिखा रही हैं। टारगेट किलिंग और खुलेआम गुंडागर्दी के आगे पंजाब पुलिस लाचार दिख रही है। खालिस्तानी झंडे और आतंकी भिंडरावाले के पोस्टरों के साथ रैलियाँ निकलना आम बात हो चुकी है। कई बार तो पंजाब पुलिस के ऊपर ऐसे आयोजनों को समर्थन देने का आरोप भी लगा है। अपराध का ग्राफ अपने चरम पर है, ड्रग और नशीली दवाओं का खतरा, चरमपंथी संगठन, नार्को-आतंकवाद, डूबती अर्थव्यवस्था और कानून की बिगड़ती हालत पंजाब की नई पहचान में शामिल हैं।
ऐसा भी लग रहा है कि जैसे राज्य सरकार अपनी प्राथमिकताएँ तय नहीं कर सकी है। ऐसी परिस्थितियों के बीच यदि राज्य के मुख्यमंत्री अपना समय और अपने राज्य के संसाधन अपनी पार्टी के गुजरात चुनाव में लगा रहे हैं तो ऐसी बात स्वाभाविक हो जाती है। जानकारी के अनुसार, पंजाब सरकार ने गुजरात चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए सोशल मीडिया विज्ञापनों पर 1 करोड़ रुपए से भी अधिक खर्च किए हैं। ऐसा ही कुछ हिमाचल प्रदेश के चुनाव प्रचार के लिए भी कहा जा रहा है।
ये राज्य और उसके नागरिकों के संसाधनों का मखौल और राजनीतिक स्वार्थ की पराकाष्ठा है। इस पूरी प्रक्रिया में नुकसान तो राज्य के साथ-साथ देश की आंतरिक सुरक्षा को हो रहा है। ऐसा बार-बार कहा जा रहा है कि इस समय पंजाब में कई खालिस्तानी आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं, जिन्हें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI का समर्थन प्राप्त है। सिख फॉर जस्टिस को हम ऐसी ही घटनाओं और किसान आंदोलन के दौरान इसके कदमों से देख चुके हैं।
बब्बर खालसा भी ऐसा ही अन्य चरमपंथी संगठन है जो भारत की आजादी के बाद से ही अस्तित्व में है। 1985 में एयर इंडिया विमान धमाके से लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में इस संगठन का हाथ था और राज्य में ये अब पुनः सक्रिय हो गया है। वर्तमान में इसका मुखिया वाधवा सिंह बब्बर है जिसे भारत सरकार ने वर्ष 2020 में आतंकवादी घोषित कर दिया था।
खालिस्तानी टाइगर फोर्स पंजाब में विदेश से सक्रिय एक और अलगाववादी संगठन है। केजीएफ उग्रवादियों को प्रशिक्षण देने और उन्हें भारत में सक्रिय करने में सक्रिय रूप से शामिल है। ये सभी संगठन भारत में युवाओं का ब्रेनवॉश कर अलगाववाद की भावना भड़काने की दिशा में काम करते हैं। समय-समय पर राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी और अन्य सुरक्षा संस्थाओं के प्रयास से इन लोगों के ऊपर कार्रवाई जरूर की जा रही है लेकिन लगातार होते हमले और पंजाब में खुलेआम खालिस्तान समर्थक प्रदर्शन कानून व्यवस्था की डाँवा-डोल स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं।
खुलेआम हत्या, पंजाब को दहलाने की साजिश के तहत आतंकवादियों द्वारा IED एवं RDX की बरामदगी, नशे में लिप्त युवा और दीवारों पर पुते खालिस्तानी नारे, AK-47 का बढ़ता चलन विदेशी फंडिंग पर देश के अंदर ही तीसरा मोर्चा खुलने की चेतावनी की तरह है। पंजाब की यह स्थिति चिंताजनक है जिस पर सबसे पहले विचार करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। आतंक और सुरक्षा को मुद्दा बनाकर इसे केंद्र की नाकामी का नाम देना राजनीतिक कदम हो सकता है लेकिन जिम्मेदार सरकार का रवैया नहीं।
खालिस्तान समर्थक आज भले ही एक राज्य तक सीमित दिखते हों लेकिन इन्हें रोका नहीं गया तो ये देश के अन्दर अन्य राज्यों में भी पहुँच बनाएँगे और फिर देश बाहरी ताकतों के साथ अंदरूनी घावों से लड़ रहा होगा। राज्य सरकारों की ये जिम्मेदारी है कि राजनीतिक स्वार्थ और वोट बैंक से परे रहकर वो राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता को सर्वोपरि रखे अन्यथा इस खोखलेपन का फायदा उठाने वाले पड़ोसी देश पहले से ही मौजूद है। राज्य सरकारों को ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर राजनीतिक लाभों से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है ताकि कभी ऐसी स्थिति ना आए कि किसी को कहना पड़े, “Heal India through thousand stitches।”