दिल्ली और उत्तर भारत के कई हिस्सों में फैले प्रदूषण का कारण क्या दिवाली है? पंजाब में पराली जलाने के आरोप और दिवाली पर पटाखों पर दोषारोपण के बीच यह समझना जरूरी है कि कृषि और सांस्कृतिक रूप से उन्नत देश में न तो पटाखे नए हैं न ही पराली जलाना। हालांकि अक्टूबर के बाद से ही दिल्ली में हर वर्ष होने वाले प्रदूषण का कारण एक दिन के त्योहार को बता दिया जाता है। दरअसल दिल्ली के इस प्रदूषण का कारण एक राजनीतिक और व्यापारिक गठजोड़ है जिसे समझने की आवश्यकता है।
दिल्ली और पंजाब दोनों में आम आदमी पार्टी की सरकार है। पिछले वर्षों में प्रदूषण कम करने की दिशा में काम किया जाता तो संभव था कि दिल्ली की हवा अभी साफ होती। हां, यह सच है कि पंजाब में पराली जलाने और दिवाली को प्रदूषण का कारण बताकर उपायों के नाम पर आरोप-प्रत्यारोप लगाया जाता है पर क्या आपको पता है कि इस पूरे मामले के पीछे पंजाब में 2009 में कांग्रेस सरकार के दौरान पास पंजाब उपमृदा जल संरक्षण अधिनियम (Punjab Preservation of Subsoil Water Act) है।
अगर भूमिगत जल बचाने और दिल्ली में वायु प्रदूषण के बीच संबंध को लेकर आप संशय में है तो आगे पढ़ते रहिए।
पराली एवं प्रदूषण की समयसीमा
वर्ष, 1991 में प्रकाशित भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के एक प्रकाशन में जानकारी दी गई कि सितंबर के अंत और अक्टूबर की शुरुआत में पंजाब के ग्रामीण इलाकों में यात्रा करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि धान की पराली का धुआं फैल जाता है। जाहिर है किसानों द्वारा सितंबर के अंत और अक्टूबर की शुरुआत में पराली जलाई जाती है। हालाँकि, हाल के वर्षों में पराली जलाने की यह समयसीमा किसानों ने अक्टूबर के अंत तक बढ़ा दी। अब क्योंकि अक्टूबर में दिल्ली में आने वाली हवा की दिशा बदल जाती है और उत्तर से दिल्ली में बहने लगती है तो दिल्ली स्मॉग या कहें कि जहरीली धुंए की चपेट में आ जाती है।
क्या पराली जलाने से पहले दिल्ली में प्रदूषण नहीं होता था? दिल्ली में जो प्रदूषण की समस्या है वो मुख्य रूप से वाहन और औद्योगिक प्रदूषण के कारण रही है, हालांकि इससे पहले धुएं के कारण राजधानी में कभी इस प्रकार की समस्या की रिपोर्ट नहीं है।
प्रदूषण का कारण समझने के साथ ही हम यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि किसानों द्वारा अपने फसल बोने और फिर पराली जलाने के समय में बदलाव के पीछे का कारण राजनीतिक एवं व्यापारिक गठजोड़ है।
पंजाब उपमृदा जल संरक्षण अधिनियम, 2009
किसानों द्वारा जो समयसीमा में बदलाव किया गया है वो पंजाब उपमृदा जल संरक्षण अधिनियम के कारण है जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। इस कानून के आधार पर सरकार ने किसानों को अप्रैल तक धान न बोने के लिए विवश किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वो अब धान बोने के लिए उन्हें जून के मध्य तक इंतजार करना पड़ता था। धान के अंकुरण और कटाई के बीच 120 दिन की अवधि होती है और बुआई पर प्रतिबंध का मतलब है कि खेतों की कटाई और सफाई केवल अक्टूबर में की जाएगी और उस समय तक हवा की दिशा बदल जाएगी। हवा बदलने का इसर दिल्ली पर किस प्रकार होता है यह सबके सामने है।
दरअसल, इस कानून का उद्देश्य था भूमिगत जल का संरक्षण करना। इस कानून के अनुसार पंजाब में भूजल की कमी का कारण चावल की खेती को बताया गया जिसमें कथित रूप से अधिक पानी की आवश्कता होती है।
मोनसेंटो मक्का और विदेशी फंड के जरिए कृषि पर चोट
अब इस एक्ट के जरिए सरकारी पक्ष तो हमनें समझ लिया है अब आते हैं इसके व्यापारिक गठजोड़ पर। दरअसल भूजल को आधार बनाकर विदेशी फंड के जरिए भारत में चावल की पैदावार को लक्षित रूप से समाप्त करने की योजना बनाई गई थी। इस योजना में जो नाम सामने आता है वो है यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) का जो दुनिया भर में मोनसेंटो जैसे अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों को आगे बढ़ाने का काम करती है।
इसी संस्था ने मोनसेंटो मक्का को उगाने का दबाव डालते हुए बताया कि अगर किसान चावल उगाना बंद कर दें और इसकी जगह मोनसेंटो का जीएमओ मक्का लगा दें, तो समस्या हल हो जाएगी। यह संस्था इस विचार को प्रसारित करती रहती है कि अगर वैश्विक स्तर पर मोनसेंटो द्वारा आनुवंशिक रूप से इंजीनियर किए गए पौधे नहीं बेचे गए तो दुनिया में खाद्यान्न की कमी हो जाएगी।
इसी संस्था के साथ पंजाब सरकार के समझौते ने भारत में धान के उत्पादन को कम करने की नींव रखी। यह कहा जा सकता है कि अमेरिकी संस्था के साथ मिलकर पंजाब सरकार ने राज्य की कृषि पर गहरी चोट की थी।
वहीं आगामी सरकारों ने भी इसमें सुधार के प्रयास नहीं किए। वर्ष, 2012 में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मोनसेंटो को मक्का के बीज बनाने के लिए एक अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए कहा और मक्का उगाने के लिए धान की खेती के क्षेत्र को लगभग 45 प्रतिशत तक कम करने की योजना की घोषणा की थी।
इसी मोनसेंटो मक्के के कारण पंजाब की जमीन में उवर्रक औऱ कीटनाशक जमा हो गए हैं। इसके दुष्प्रभाव के कारण ही मिट्टी में नमी की कमी हो गई है। यही कारण है कि किसानों को अत्याधिक मात्रा में भूमिगत पानी पंप करना पड़ रहा है।
कांग्रेस सरकार द्वारा लाए कानून के कारण किसानों के लिए धान उगाने की समयावधि कम हो गई है जिसके कारण नई समस्या उत्पन्न हो गई है। किसानों ने धान की कई किस्मों को उगाकर और अप्रैल से शुरू होने वाले दो महीनों की अवधि में इन किस्मों की बुआई के समय को बढ़ाकर फसल विविधीकरण की अपनी पद्धति विकसित की है।
इस बुवाई पैटर्न का असर यह हुआ है कि उगने वाला धान रोगों और कीटों के प्रति संवेदनशील रहता है। अब अपनी फसल को बचाने के लिए किसानों द्वारा और अधिक मात्रा में कीटनाशकों और उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। अब इससे फसल की गुणवत्ता पर असर तो पड़ता ही है साथ ही मिट्टी और उसकी जल धारण करने की क्षमता भी कम होती है औऱ किसान इसी कुचक्र में फँसकर रह जाते हैं।
मोनसेंटो मक्का का जल और पर्यावरण पर दुष्प्रभाव
अब बात करते हैं कि भूमिगत जल को बचाने के नाम पर जिस मोनसेंटो मक्के को पंजाब लाया गया क्या वो सही में भूमि, किसान और जल स्त्रोत के लिए फायदेमंद है?
पहली बात तो मोनसेंटो मक्का मानव उपभोग के लिए बना ही नहीं है। यह जानवरों और चिकन के खाद्य के लिए ही उपयोगी है। ऐसे में भारत की कृषि में चावल के स्थान पर मोनसेंटो मक्का को लाना किसी अपराध से कम नहीं है।
इसे अपराध इसलिए भी बता रही हूँ क्योंकि पर्यावरण, भूमिगत जल और किसानों के लिए मोनसेंटो मक्का अत्याधिक हानिकारक है। मोनसेंटो के जीएमओ उत्पाद कई समस्याएं पैदा करने के लिए जाने जाते हैं। इसका मक्का मधुमक्खियों को मारने के लिए जाना जाता है, जिससे प्याज जैसे पौधों के बीजों की कमी हो जाती है जो परागण के लिए मधुमक्खियों पर निर्भर होते हैं। कई यूरोपीय देशों ने इस मक्के पर प्रतिबंध लगा दिया है क्योंकि इसका परागकण मधुमक्खियों की पूरी कॉलोनी को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार है।
एक पर्यावरण समूह ग्रीनपीस ने मोनसेंटो मक्का पर शोध किया था जिसमें चौंकाने वाले परिणाम सामने आए थे। ग्रीनपीस के अध्ययन में यह बात सामने आई है कि जिन चूहों को मोनसेंटो का MON863 मक्का 90 दिनों तक खिलाया गया, उनके लीवर और किडनी में विषाक्तता के लक्षण दिखाई दिए थे।
वहीं बात करें भूमिगत जल की तो इसकी कई रिपोर्ट्स है कि जीएमओ आधारित मोनसेंटो मक्का चावल से कई अधिक पानी का दोहन करता है।मोनसेंटो मक्का पंजाब के लिए पारंपरिक नहीं है और सस्ता होने के कारण यह किसानों की आमदनी को भी नुकसान पहुँचाता है। किसानों में बढ़ रही आत्महत्या का एक कारण यही विनाशकारी बदलाव है।
अब वर्तमान पंजाब सरकार को इसकी जानकारी नहीं हो, यह तो संभव नहीं है। सरकार को पराली जलाने से रोकने के लिए छोटे किसानों को चावल और गेहूं के मौसम के बीच खेतों को खाली करने और उचित जल प्रबंधन समाधान लागू करने में मदद करनी चाहिए।
हालांकि यह विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित नियमों के खिलाफ जाना होगा, जिसमें कहा गया है कि अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों के अलावा कोई भी व्यवसाय सरकार से सहायता या सब्सिडी प्राप्त नहीं कर सकता है और अमेरिकी व्यवसायों को दी जाने वाली कोई भी सब्सिडी ‘अनुसंधान’ की आड़ में दी जाएगी।
हालांकि दिल्ली में बढ़ रहे प्रदूषण, किसानों की आत्महत्याएं, भूमिगत जल की कमी और पांरपरिक खेती के विनाश को रोकने के लिए भारत को इन नियमों को पूरी तरह से नजरअंदाज करना चाहिए। राजधानी दिल्ली और इसके आस-पास के क्षेत्र हर वर्ष गैस चैंबर में तब्दील हो जाते हैं। भारत की प्राथमिकता किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन के एजेंडे को प्रसारित करने के लिए नहीं बल्कि देश के प्रति होनी चाहिए।
अमेरिकी संस्था और पंजाब सरकार द्वारा लाए गए 2009 के एक्ट जिसे सीधे तौर पर ‘मोनसेंटो प्रॉफिट एक्ट’ कहा जा सकता है, ने भारत में चावल के उत्पादन खत्म करने को लक्ष्य बनाया, किसानों की आमदनी कम कर दी और अब स्थिति यह है कि पंजाब में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, अक्टूबर में पराली जलाई जा रही है, दिल्ली भयंकर प्रदूषण की चपेट में है औऱ भूमिगत जल संकट के स्तर पर पहुँच गया है।
इन सबके बाद भी देश का कथित बुद्धिजीवी वर्ग दिवाली पर दोषारोपण करके कथित पर्यावरण एक्टिविज्म का झंडा लेकर हर वर्ष खड़ा हो जाता है। क्या यह कहना गलत होगा कि इस राजनीतिक-व्यापारिक गठजोड़ के कारण भारत के कृषि और सांस्कृतिक सभ्यता पर गहरी चोट हुई है और क्योंकि हम सब इसके द्वारा पीड़ित हैं इसलिए इसका अंत कर देना चाहिए।
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