हमारा इतिहास ब्रिटिश राज के विरुद्ध क्रांतिकारियों द्वारा प्रदर्शित जिद, वीरता, धैर्य और दृढ़ संकल्प के उदाहरणों से भरा पड़ा है। दुखदः स्थिति यह है कि कुछ नाम तो आपको हर इतिहास पुस्तक में दिखाई देंगे जब अन्य को कभी भी उनकी योग्य पहचान नहीं मिली।
मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले ऐसे अनेक क्रांतिदूत गुमनामी में चले गए। एक ऐसा ही नाम बंगाल की पहली महिला हुतात्मा प्रीतिलता वादेदार का रहा है। उन्होंने आज ही के दिन मात्र 21 वर्ष की उम्र में देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था।
बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के इस नए चरण का एक उल्लेखनीय पहलू युवा महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी थी। दिसंबर 1931 में कोमिला की दो स्कूली छात्राओं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने जिलाधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। वहीं फरवरी 1932 में, बीना दास ने दीक्षांत समारोह में अपनी डिग्री प्राप्त करते हुए राज्यपाल पर प्वाइंट ब्लैंक गोली चला दी थी।
मास्टर सूर्यसेन को पता था कि एक महिला के लिए बिना शक किए हथियारों की आवाजाही आसान होगी। इसी के चलते महिला क्रांतिकारी गुप्त रूप से संदेशों आगे बढ़ाने का काम भी करती थीं। हालाँकि शुरूआत में प्रीतिलता को दल में ब्रिटिश अधिकारियों को धोखा देने के लिए शामिल किया गया था, किन्तु शीघ्र ही प्रीतिलता वादेदार के साहस की वजह से वो दल में ऊंचा कद पाती गई।
18 अप्रैल, 1930 के चटगांव शस्त्रागार छापे के दौरान, प्रीतलता वादेदार ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था और टेलीफोन लाइनों, टेलीग्राफ कार्यालय को नष्ट करने में सफल रही थीं। प्रीतिलता एक गरीब परिवार आती थीं और स्नातक की पढ़ाई के दौरान पिता की नौकरी चले जाने के बाद उन्होंने एक स्कूल शिक्षक की नौकरी स्वीकार कर ली थी।
आश्चर्य वाली बात यह है कि मेधावी प्रीतिलता ने ढाका बोर्ड के सभी उम्मीदवारों में पहली रैंक हासिल की थी। ईडन कॉलेज में इंटरमीडिएट के दौरान, प्रीतिलता ने क्रांतिकारी गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया और स्वतंत्रता सेनानी लीला नाग का साथ देते हुए दीपाली संघ में में शामिल हो गई।
आगे चलकर उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल करने के लिए कोलकाता के बेथ्यून कॉलेज में प्रवेश लिया था। उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी थी लेकिन, ब्रिटिश अधिकारियों ने उनकी गतिविधियों के कारण उनकी डिग्री पर रोक लगा दी। बाद में उनकी डिग्री, मरणोपरांत 22 मार्च, 2012 को कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई।
वर्ष 1930 के इस दशक में बंगाल ने गांधी के सेलेक्टिव “अहिंसा” के विचार को त्याग दिया था। कल्पना दत्ता, प्रीतिलता की सहपाठी, जीवनी चटगांव आर्मरी रेडर्स में लिखती हैं, “हमने अपने भविष्य के बारे में अपने स्कूल के दिनों में कुछ तय नहीं किया था। कक्षा में रानी झाँसी की वीरता की कहानियाँ सुनते हुए हम अपनी कल्पना को उड़ान देने लगते थे। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और साहस हम सभी के अंदर एक अलग ही प्रकार की निडरता पैदा कर देती थी।”
हिंसा और अहिंसा के सन्दर्भ में एक घटना के दौरान जब प्रीतिलता से उनकी कार्यप्रणाली के बारे में सवाल किया गया था तो उन्होंने जवाब दिया था, “जब मैं देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार हूं, तो आवश्यकता पड़ने पर किसी की जान लेने में भी मैं ज़रा भी नहीं हिचकिचाऊंगी।”
13 जून, 1932 को जब वह सूर्य सेन से मिलने गई तो प्रीतिलता वादेदार बाल-बाल बची थी। उनके ठिकाने को ब्रिटिश सैनिकों ने घेर लिया और खरतनाक मुठभेड़ हुई थी। हालाँकि, कुछ क्रांतिकारी शहीद हो गए लेकिन मास्टर दा और प्रीतिलता भागने में सफल रहे थे।
ब्रिटिश अधिकारी सतर्क हो चुके थे और उन्होंने प्रीतिलता को “मोस्ट वांटेड” क्रांतिकारियों की सूची में डाल दिया था। सेन ने प्रीतिलता को भूमिगत रहने का निर्देश दिया और स्वयं अगली योजना में जुट गए। यह एक ऐसी योजना थी जो काफी लम्बे समय से मास्टर दा के दिल में काँटा बन के चुभी हुई थी।
मास्टर दा एक नस्लवादी, “ओनली फॉर वाइट” क्लब को निशाना बनाना चाहते थे, जिसका नाम ‘पहार्ताली यूरोपियन क्लब’ था। क्लब के बाहर नोटिस बोर्ड पर लिखा था, ‘कुत्तों और भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं है’।”
यह वह काल था जब रेलवे कैरिज, स्टेशन रिटायरिंग रूम, पार्कों में बेंच आदि को ‘केवल यूरोपीय लोगों के लिए’ चिह्नित किया जाता था। यह दक्षिण अफ्रीका या अन्य जगहों पर अक्सर होता था, लेकिन अपने ही देश में इसे झेलना पराधीनता की स्थिति का एक अपमानजनक और कष्टप्रद अनुभव था।
यह क्लब पर आक्रमण करने का उनका दूसरा प्रयास था। उन्होंने पहले अपने चटगांव शस्त्रागार छापे (जिसे चटगांव विद्रोह के रूप में भी जाना जाता है) के हिस्से के रूप में क्लब पर आक्रमण किया था। हालाँकि, वह योजना आंशिक रूप से असफ़ल रही थी क्योंकि उन्होंने यह आक्रमण गुड फ्राइडे वाले दिन किया था जब अधिकारी वहाँ उपस्थित नहीं थे।
इस बार कोई गलती नहीं होने वाली थी। मास्टर दा ने समूह का नेतृत्व करने के लिए विशेष रूप से महिलाओं को चुना था ताकि इस आक्रमण से अंग्रेजों में भय की लहर दौड़ जाए। उन्हें साहस, बहादुरी, कौशल और नेतृत्व वाली महिलाओं की आवश्यकता थी। उनके सामने थीं उनकी दो सबसे प्रमुख महिला सहयोगी – कल्पना दत्ता और प्रीतिलता वादेदार।
कल्पना दत्ता और प्रीति रिवॉल्वर शूटिंग में नियमित प्रशिक्षण लेती थीं और इसके पहले भी ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध कई गुरिल्ला युद्ध लड़ चुकी थीं। सूर्य सेन ने उन दोनों को अपने गुप्त स्थान पर मिलने के लिए बुलाया, जहाँ उन्होंने अपना मास्टर प्लान बताया। 16 सितंबर 1932 को प्रीतिलता और कल्पना ने कलतली गांव में उन्हें मिलने की सूचना दी।
गाँव चटगाँव से अधिक दूर नहीं था किन्तु कल्पना और प्रीतिलता को उस स्थान पर जाते समय बहुत सावधान रहना था क्योंकि पुलिस उनके पीछे लगी हुई थी। 17 सितंबर 1932 को, कार्रवाई से एक सप्ताह पहले, कल्पना दत्ता को पुलिस ने चटगांव वापस जाते समय गिरफ़्तार कर लिया था। उसने एक लड़के की पोशाक पहनी हुई थी जिससे पुलिस को संदेह पैदा हो गया था।
हालाँकि, कुछ दिनों बाद मास्टर दा की भारतीय क्रांतिकारी सेना के साथ उनके संबंधों के अभाव में कल्पना को छोड़ दिया गया था। इस असामयिक गिरफ्तारी के कारण, प्रीतिलता को सूर्य सेन द्वारा छापामार आक्रमण का नेतृत्व सौंपा गया था।
प्रीतिलता वादेदार सहित दूसरे क्रांतिकारियों ने 23 सितंबर, 1932 को क्लब के मालिकों को सबक सिखाने की ठान ली थी। छापेमारी करने और क्लब को नष्ट करने का काम 7 लोगों के समूह को सौंपा गया था, जिसका प्रीतिलता को नेतृत्व करना था।
हमले के दिन, प्रीतिलता एक पंजाबी पुरुष के भेष में थीं, जबकि उनके सहयोगी कालीशंकर डे, बीरेश्वर रॉय, प्रफुल्ल दास, शांति चक्रवर्ती ने धोती और शर्ट पहनी हुई थी। महेंद्र चौधरी, सुशील डे और पन्ना सेन लुंगी और शर्ट पहन कर भेष बदले हुए थे। रात 10.30 के आसपास जब क्लब में चल रही पार्टी नृत्य और संगीत में डूबी पर थी क्रांतिकारियों ने क्लब की घेराबंदी कर उसमें आग लगा दी।
क्लब के अंदर करीब 40 लोग थे। क्रांतिकारियों ने हमले के लिए खुद को तीन अलग-अलग समूहों में विभाजित किया हुआ था। क्लब में कुछ पुलिस अधिकारियों ने, जिनके पास रिवॉल्वर थी, फायरिंग शुरू कर दी और क्रांतिकारियों द्वारा किये गए हमले का भीषण जवाब दिया।
पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक, इस हमले में सुलिवन नाम की एक महिला की मौत हो गई और 4 पुरुष और 7 महिलाएं घायल हो गईं थीं। एक संतरी द्वारा फेंके गए हथगोले के कुछ टुकड़े प्रीति को लगने से बुरी तरह से घायल हो वह मुख्य द्वार के कुछ गज के भीतर ब्रिटिश पुलिस द्वारा फंस चुकी थीं।
उस भयानक रात में अब बचने का कोई रास्ता नहीं था। स्वयं को फंसा हुआ महसूस करते हुए, प्रीति ने अपने साथियों को भाग जाने और पकड़ने से बचने का संकेत दिया। प्रीतिलता को पता था कि अगर वो जिन्दा बच गई तो पुलिस उन पर अत्याचार कर उनके साथियों के बारे में जानकारी निकलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी।
प्रीति नहीं चाहती थीं कि उनके बाद किसी भी साथी पर कोई आँच आए। घायल प्रीति ने भारत माता को याद करते हुए आँख बंद की और पोटेशियम साइनाइड खा कर अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया।
हालाँकि, छापेमारी आंशिक रूप से ही सफल हो पाई थी, लेकिन उसका प्रभाव आशानुसार ही था। प्रीतिलता की वीरता की खबर जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। उनके इस अतुलनीय बलिदान ने आने वाले समय में बंगाल और शेष भारत में क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में काम किया था।
प्रीतिलता को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत की आजादी के संघर्ष में बलिदान देनी वाली पहली महिला के रूप में हमारी श्रद्धांजलि अर्पित है।